बोलने का उत्तरदायित्व।

August 1950

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डॉ. परशुराम शर्मा फीरोजपुर)

वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य भी एक प्रकार का पशु है। पर अन्य पशुओं से इसमें जो विभिन्नतायें तथा विशेषतायें हैं उनमें से एक उसकी बुद्धिशक्ति है। इस शक्ति ने उसे इतना उन्नत किया है कि कोई भी पशु उसके आगे नहीं ठहर सकता। जो कुछ भी हम इस पृथ्वी पर देखते हैं वह मनुष्य की बुद्धिशक्ति का ही फल है। ऐसे चमत्कार पशु नहीं कर सकते। यदि यह न होती तो पृथ्वी का रंग रूप कुछ और ही होता।

यद्यपि बुद्धिशक्ति पशुओं में भी है और उसके द्वारा वह अपने कार्य करते हैं पर वह मनुष्यों की तरह अपने साथी पशुओं तक अपना ज्ञान तथा भाव नहीं पहुँचा सकते जैसे मनुष्य करता है। इस लिए मनुष्य ने जितनी उन्नति की है उतनी पशु न तो कर सकते हैं और न उन्होंने की है। मनुष्य अपने आँतरिक भाव और गुप्त विचार अपने साथियों तक बोल कर पहुँचाता है। इसलिए वाणी उसकी मुख्य विशेषता है। एक दूसरे के प्रति बोली द्वारा ही मेल मिलाप होने से मनुष्य ने समाज का बड़ा विस्तृत रूप बना लिया है और मिलजुल कर रहने की आवश्यकता बढ़ गई है।

यह एक सत्य है कि शब्द अक्षरों के मेल से बनते हैं। अक्षर का अर्थ है नाश न होने वाला। इससे शब्द भी नाश वान नहीं। इसीलिए शब्द को वेद तथा ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। क्योंकि जैसे ब्रह्म नाशवान नहीं उसका कोई आदि अंत नहीं उसी प्रकार हमारे शब्द भी अनादि तथा अमर हैं और सर्वव्यापक हैं। यह सत्य यद्यपि हमारे महान ऋषियों ने जनता पर प्रकट किया था अब रेडियो के आविष्कार ने स्थूल रूप से इस सत्यता का कुछ अंश हमारे सामने रख दिया है।

शब्द का बल कितना है इसको हम प्रतिदिन देखते तो हैं फिर भी उसके मर्म को समझने में अयोग्य हैं। हम देखते हैं कि एक हमारा सम्बन्धी हम से प्रिय, मीठे, रुचिकर तथा पवित्र शब्द कहता है तो उसका हम पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है और हमारे भीतर सरसता, मिठास, प्रेम तथा निकटता का भाव पैदा होता है और जो भी उस वातावरण से स्पर्श करता है वह भी ऐसी ही अवस्था को प्राप्त होता है। परन्तु यदि उसके विपरीत वही सज्जन हमें कटु, घृणा, तथा झूठे शब्द बोलता है तो हम पर वही प्रभाव पड़ते हैं।

इन दोनों अवस्थाओं में यदि हम भी उसकी प्रतिक्रिया के अनुसार वैसे ही कटु और दुखदाई शब्द बोलने लग जायेंगे अथवा मीठे और प्रेम भरे भावों से उसे सम्बोधित करेंगे। इस प्रकार से एक चक्र चलने लग जाता है जो कुछ समय के लिए बंद हुआ प्रतीत हो परन्तु उसकी छाप हमारे दिल पर पड़ जाती है और वह आगे के लिए क्रम को और भी दृढ़ कर देता है। यदि बुरे शब्दों पर अधिकार न जमाया जावे तो उनके प्रभावों के अंकुर बढ़ते रहते हैं और कुचक्र हमें उसी गड्ढे में ढकेलता रहता है क्यों कि वह हमारे जीवन का अंग बन जाता है। इसलिए शब्दों पर अंकुश का होना अत्यन्त आवश्यक है। नहीं तो अति भयानक फल हमारे लिए तथा औरों के लिए पैदा हो जाते हैं। घरों में लड़ाइयां, बाजारों और शहरों में दंगे, देशों के भीतर परस्पर युद्ध इसी का फल होते हैं।

शब्दों पर अंकुश रखना अति कठिन है क्योंकि इनका स्रोत हमारे भीतर के भाव तथा विचार हैं। जब वह शुद्ध न होंगे तथा काबू में न होंगे तब तक शब्दों पर भी अधिकार नहीं हो सकता है। इसलिए हमें अपने भीतर की अवस्था को जानना और समझना चाहिए और उनको ऐसे नीच तथा बुरे नहीं होने देना चाहिए जिससे उनके द्वारा बुरे और घृणास्पद शब्दों की उत्पत्ति हो। इसके लिए हमें पहली बात यह करनी होगी कि हम ऐसे लोगों का संग न करें जो उन नीच विचारों को बढ़ाने वाले हैं। इसी प्रकार ऐसी पुस्तकें भी न पढ़े जो मन को उत्तेजित करती हों। वरन् श्रेष्ठ और भद्र जनों का संग करना चाहिए और ऐसा ही साहित्य देखना और पढ़ना चाहिए। तब जाकर उनसे बुरे शब्दों की उत्पत्ति न होगी और हम तथा और जन उन सब दुखों से बच सकेंगे जो उनसे पैदा होते हैं।

इस प्रकार से शब्द जहाँ पहले ही हमारे भीतर थे वहाँ वह प्रकाश होने पर भी बने रहते हैं और फिर हमारी ओर ही खिंच कर हम पर ही आक्रमण करते हैं अथवा हमारे ऊपर अधिकार जमा लेते हैं और हमारे जीवन का एक अंग बन कर न केवल टिके रहते हैं किन्तु औरों पर भी प्रभाव डालते रहते हैं। उनका अमर अस्तित्व चला ही चलता है। तब इन शब्दों के उच्चारण करने तथा औरों तक पहुँचाने में कितनी सावधानी की आवश्यकता है इसका अनुमान किया जा सकता है। हमें अपनी जिम्मेदारी इस विषय में पूरी तरह अनुभव करनी चाहिए।

गायत्री माता का यही उपदेश है कि “वह प्रभु जो सर्वशक्तिमान है हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ और उच्च मार्ग की ओर प्रेरित करे” जिससे हम श्रेष्ठ और उच्च वाणी का प्रयोग करें और उसके द्वारा अपना तथा औरों का हित साधित करें। नहीं तो हमारा मनुष्य जीवन गिर कर पशुओं से भी निकृष्ट हो जायेगा। और हम जहाँ आप दुख भोगेंगे वहाँ औरों के लिए भी दुखदाई प्रमाणित होकर उनका भी नाश करेंगे। हमारी यह साधना तथा भाव इतने प्रबल और उच्च हों कि हमारे भीतर दूसरों के अहित का भाव लेश मात्रा भी न होने पावे और उनके हित तथा सेवा का कार्य कर सकें इसी में हमारा हित तथा लाभ है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118