भगवान के अनेक नाम हैं, अनन्त रूप हैं, चाहे जिस नाम का एवं जिस रूप का सरल हृदय से स्मरण करो, उसी के द्वारा परमेश्वर से मिलाप हो सकता है। जैसे जल एक ही है, कोई उसे पानी कहता है तो कोई वाटर, कोई जल कहता है तो कोई आब। इसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है। कोई उसे कृष्ण कहता है तो कोई शिव या देवी कहता है, किसी की भाषा में उसका नाम गौड है तो किसी की बोली में अल्लाह। कोई उसे जिहोवा कहते हैं तो कोई हरि या ब्रह्म।
जल में नाव रहे तो कोई हानि नहीं, पर नाव में जल नहीं रहना चाहिये। साधक संसार में रहे तो कोई हानि नहीं परन्तु साधक के भीतर संसार नहीं होना चाहिये।
व्याकुल होकर उसके लिये रोने से ही वह मिलता है, लोग लड़के-वाले के लिये, रुपये-पैसे के लिये कितना रोते हैं, किन्तु भगवान् के लिये क्या कोई एक बूँद भी आँसू टपकाता है? उसके लिये रोओ, आँसू बहाओ, तब उसको पाओगे।
जिसके मन में ईश्वर का प्रेम हो गया, संसार का सुख अच्छा नहीं लगता। जो एक बार भी बढ़िया मिश्री का स्वाद ले चुका है, वह क्या राख खाना चाहेगा?
दो आदमी बगीचे में घूमने-फिरने गये थे एक आदमी यह हिसाब करने लगा कि इस बगीचे में कितने पेड़ हैं कितने फल हैं, बगीचे के दाम कितने हैं इत्यादि दूसरा आदमी मालिक के साथ मेल-जोल करके आम तोड़-तोड़कर खाने लगा। इन में यह पिछला आदमी ही चतुर था। ऐसे संसार में आकर भगवान के विषय में तर्क युक्ति विचार आदि करने से कुछ फल नहीं। जो उसको प्राप्त कर आनन्दानुभव कर सकता है, वही धन्य है।
अवधूत का एक गुरु था भ्रमर। उसने अत्यन्त कष्ट सह सह कर मधु संचय किया। कहीं से एक मनुष्य आया और मधु का छत्ता तोड़कर सारा मधु ले गया। अपने चिरसंचित मधु का उपभोग वह भ्रमर न कर सका अवधूत ने यह देखकर भ्रमर को प्रणाम किया, और कहा ‘प्रभो! तुम मेरे गुरु हो! संचय करने से क्या परिणाम होता है, यह मैंने तुम से आज सीख लिया है।
संसार कच्चा कुआँ है। इसके किनारे पर खूब सावधानी से खड़ा होना चाहिये। तनिक असावधान होते ही कुएं में गिर पड़ोगे, तब निकलना कठिन हो जायगा।
केवल शब्द कण्ठस्थ कर लेने से कुछ लाभ नहीं। ईश्वर-प्राप्ति के लिये ही पुस्तकों का पढ़ना है। के वल गीता पढ़ने से पूरा लाभ नहीं, जब तक वैराग्य प्राप्त कर ब्रह्म का साक्षात्कार करने की चेष्टा न की जाय। गृहस्थ हो या संन्यासी, सभी को मन से विषयासक्ति निकालनी होगी, तब ध्येय की प्राप्ति होगी।
ग्रन्थों में बहुत सी बातें हैं यह तो ठीक है, किन्तु जिन्होंने ग्रन्थ लिखे हैं, वे ग्रन्थों में लिखे हुए तत्वों की धारणा नहीं करा सकते हैं। साधु-संग होने पर धारणा होती है। ठीक-ठीक त्यागी-ज्ञानी-साधु यदि उपदेश दे, तब लोग इस बात को सुनेंगे और मान लेंगे। खाली पण्डित हो, वह यदि ग्रन्थ लिखे और मुँह से उपदेश देवे तो उससे धारणा उतनी नहीं होती जितनी त्यागी साधुओं की वार्ता से होती है।
उपाधियों के नाश के समय ही शब्द होता है। लकड़ी जलते समय आवाज करती है। सब जल जाने से फिर आवाज नहीं करती।
जमीन, जोरू और रुपया ये तीनों चीज लोगों को संसार में वृद्ध करती हैं। इन तीनों चीजों पर मन रखने से भगवान की ओर मन का योग नहीं होता।