प्रेम धर्म से परिपूर्ण जीवन

November 1949

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(कुमारी कृष्णा सरीन एम. ए.)

महान् पुरुषों ने सत्य ही कहा है- “प्रेम में भगवान है” प्रेम और दुःख का जोड़ा है। जहाँ प्रेम हैं वहाँ दुःख अवश्य है। प्रेम से प्राण भी पृथक् नहीं हो सकते। प्रेम का क्षेत्र बढ़ने पर दुःख का क्षेत्र भी बढ़ जाता है। जिनसे हम प्रेम करते हैं, उनका दुःख दूर करने के लिए हमें न्याय करना पड़ता है। अतः प्रेम और दुःख के विस्तार के साथ-साथ हमारे त्याग की भावना भी उत्कृष्ट होती जाती है। परिवार, समाज, देश और विश्व-धर्म के पालकों में से प्रत्येक को अपने-2 क्षेत्र में दुःखानुभूति होती है और उस दुःख को दूर करने के लिए वे अपने समस्त सुखों को त्याग देते हैं। परिवार से प्रेम करने वाली गृहणी और गृहस्वामी परिवार के सुख में अपने सुखों को होम देते हैं। समाज-प्रेमी समाज के सुख के लिए, देश-प्रेमी देश के सुख के लिए और विश्व-प्रेमी विश्व के कल्याणार्थ, अपने सुखों को तिलाँजली दे देता है। गौतम, अत्रि, कणाद, वशिष्ठ, भागीरथ इत्यादि अनेक ऋषि हो चुके हैं, जिन्होंने संसार के कल्याणार्थ भौतिक सुख वैभव को त्याग कर एकान्त वास किया और तपस्या चिन्तन और मनन के द्वारा निज आत्माओं को ईश्वरीय ज्ञान से अलोकित कर उत्तम ग्रन्थों का निर्माण किया। अतएव उन्होंने संसार को अमूल्य ज्ञान निधि भेंट की। वे मानव के हित चिन्तक और विश्व धर्म के पालक थे।

धर्म की उच्चतम श्रेणी विश्व-धर्म है जो कि पूर्ण धर्म है। विश्व धर्म शरीर है तो गृह, कुल, समाज, और देश धर्म उसके अंग। इन अंगों के मिलने पर (जहाँ) विश्व धर्म रूपी शरीर पूर्ण होता है। और पृथक् होने पर उसका अस्तित्व नहीं रहता। विश्व धर्म के पालक में समस्त धर्मों का समन्वय होता है। छोटी-2 धर्म रूपी नदियाँ विश्व-धर्म रूपी समुद्र में समा जाती हैं। मनुष्य जीवन के ध्येय की पूर्णता विश्व-धर्म में है। यदि शरीर का कोई अंश सड़ रहा है और उससे सारे शरीर को हानि पहुँचने की सम्भावना है तो डॉक्टर उस अंग को शरीर से पृथक् करके शरीर की रक्षा करते हैं। इसी प्रकार धर्माचार्यों ने धर्म की श्रेणियों में विरोध होने पर विश्व-धर्म की रक्षा के लिए शेष धर्मों की उपेक्षा सर्वथा उचित मानी है। युद्ध क्षेत्र में खड़े अर्जुन के मन में कुल-धर्म और लोक विधायक विश्व-धर्म के सम्बन्ध में भ्रम उत्पन्न हुआ और वह विश्व धर्म की महानता को भूलकर कुल-धर्म के चक्कर में पड़ गया। उस समय श्री कृष्ण ने उसको कुल-धर्म का उल्लंघन करके विश्व-धर्म के पालन का उपदेश दिया। भगवान् की भक्ति में तन्मय मीरा को विश्व-धर्म के लिए गृह परित्याग करना पड़ा, उसने दोनों धर्मों को निबाहने का शक्ति भर प्रयत्न किया, किन्तु उसके मार्ग में अधिक से अधिक रोड़े अटकाये गए। जिस समय उसके लिए दोनों धर्मों का पालन निताँत असंभव हो गया तो वह कुल-धर्म की उपेक्षा करने के लिए विवश हो गई। लंका पति रावण के भाई विभीषण को भी ठीक ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा। साँसारिक व्यवहारों में छोटे बड़े सभी के सम्मुख धर्म के अंगों में विरोध के विकट अवसर आते हैं। ये व्यक्ति चाहे सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक हों या संन्यासी अथवा गृहस्थी। सामाजिक कार्यकर्ता के सामने समाज की दशा सुधारने में अपने बड़े-बूढ़ों के कुपित होने का भय और सामाजिक सम्बन्ध विच्छेद का प्रश्न उठता है। राजनैतिक कार्यकर्त्ता को निज कर्त्तव्य पालन करने में अपनी जाति तथा परिवार के लोगों को भारी कष्ट होने तथा हत्यायें होने तक की सम्भावना होती है। ऐसे अवसर पर कार्य-कर्त्ता यदि सम्बन्धियों के भौतिक शरीरों के मोह में पड़कर व्यापक धर्म की अवहेलना करते हैं तो वे स्वयं अनेक प्रकार की हानियाँ उठाते हुए मानव समाज का अनिष्ट करते हैं। दूरदर्शी श्री कृष्ण को सदियों पूर्व यह ज्ञात हो गया था कि आधुनिक जीवन की बढ़ती हुई जटिलताएँ मनुष्य के जीवन में धर्म सम्बन्धी संघर्ष और विरोध के अधिकाधिक अवसर लायेगी। अतः उन्होंने संसार को ज्ञान का यह अमृत पिलाया जो ऐसे प्रत्येक अवसर पर मनुष्य को कर्त्तव्य ज्ञान कराकर धर्म का पथ सुझाता है। गीता में स्थान-2 पर यह स्पष्ट कहा गया है कि व्यापक धर्म की अवहेलना किसी भी दशा में उचित नहीं।

धर्म के अंगों में विरोध का कारण मानव हृदय की संकीर्णता है जो दुःख का मूल है और कभी आनन्द दायक नहीं। एक गृहस्वामी अपने रोगों, बालक का उपचार कराने में तन-मन-धन लगा देता है। लेकिन सड़क के किनारे ठंड से ठिठुरते हुए बच्चे के लिए उसके हृदय में करुणा का श्रोत नहीं उमड़ता। एक गृहणी अपने बच्चे को फलता-फूलता देखकर हर्षित होती है और द्वार पर खड़े भूख से व्याकुल बच्चे को चार गालियाँ सुनाकर बाहर निकाल देती है। ‘समाज’ शब्द से आप मानव समाज की कल्पना करेंगे। क्या मनुष्य ने मानव समाज के टुकड़े नहीं कर दिये? हमारे ही देश में एक ईसाइयों का समाज है दूसरा सवर्णों हिन्दुओं का तीसरा हरिजनों का चौथा सिक्खों का पाँचवा मुस्लिम लीगियों का और छठा राष्ट्रीय मुसलमानों का। इनमें भी प्रान्तों के अनुकूल जातियाँ बन गई हैं। पहाड़ी, आसामी, बंगाली, पंजाबी, सिंधी, मारवाड़ी इत्यादि। जब प्रत्येक सीमित समाज राष्ट्र के कल्याण की अवहेलना करके अपने समाज की उन्नति करता है। तो वह एक ओर अपना नाश करता है और दूसरी ओर राष्ट्र रूपी शरीर के नाश का कारण बनता है। क्या लीगी भाइयों ने स्वार्थान्ध होकर अपने सीमित समाज के सुख के लिए देश के निरीह प्राणियों के गले पर छुरे नहीं चलाये? जो अनर्थ एक साम्प्रदायिक सामाजिक धर्म के पालक ने किया वही एक देश-धर्म का पालक भी कर रहा है। जो देश-प्रेमी अपने देश के लिये मर मिटने को तैयार है। उसकी रक्षार्थ अपना सिर हथेली पर रखे हैं। किन्तु दूसरे देशवासियों की रोटी छीन कर अपने देश वासियों का पेट भरता है और उनको भूखों तड़पने के लिए छोड़ देता है। उनका पैसा छीन कर अपने देश को धनी बनाता है और उनको निर्धनता का सामना करने के लिए छोड़ देता है। उनके दुःख से उसका हृदय दयार्द्र नहीं होता। आप ऐसे देश प्रेमी को क्या कहेंगे? धर्म के स्वरूप का यह कैसा उपहास है। कैसा आडम्बर है? संसार प्रसिद्ध देश भक्त अंग्रेज जाति ने क्या भारत के साथ ऐसा ही व्यवहार नहीं किया, यूरोप के बड़े-2 देश रूस और अमेरिका क्या संकुचित देश-धर्म का पालन नहीं कर रहे? आधुनिक मनुष्य के दुख मय जीवन का क्या यह वास्तविक कारण नहीं? जिस प्रकार शरीर के अंग शरीर से पृथक होने पर कुछ भी कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार शरीर रूपी विश्व-धर्म जो कि पूर्ण-धर्म है, लोक विधायक है और जिससे समस्त सृष्टि की स्थिति और रक्षा है- से पृथक होकर गृह, कुल, समाज और राष्ट्र-धर्म कुछ अर्थ नहीं रखते। बल्कि वे मनुष्य के विनाश का कारण बनते हैं। आज मनुष्य विज्ञान और कला की उन्नति के शिखर पर पहुँच कर भी विनाश की ओर जा रहा है, क्योंकि धर्म के अंग अपने प्राण, विश्व धर्म से सम्बन्ध तोड़ बैठे हैं। मानव का कल्याण इसी में है कि गृह, कुल, समाज और राष्ट्र-धर्म विश्व-धर्म के अधीन होकर उसके संकेत पर कार्य करें। तभी मनुष्य मानसिक संघर्ष से अवकाश पाकर लोक के मध्य मंगल का विधान कर सकेगा। उसके धार्मिक विचारों में आज जो विरोध और विषमता फैली है वह मिट जायगी और सर्वत्र समता का राज्य होगा।

मनुष्य के आत्मिक विकास के लिए धर्म के विभिन्न अंगों को ध्यान रखते हुए हिन्दू धर्म में चार आश्रम की व्यवस्था की गई है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ब्रह्मचर्याश्रम में मनुष्य का धर्म, प्रेम और कर्त्तव्य अपने तक सीमित रहता है, गृहस्थ आश्रम में समाज और परिवार तक बढ़ता है, वानप्रस्थ आश्रम में समाज और देश तक बढ़ता है, और संन्यास आश्रम में मनुष्य का धर्म, प्रेम और कर्त्तव्य विश्व के प्रति होता है। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम् की अवस्था है जब सारी वसुधा अपना परिवार बन जाती है। प्रत्येक धर्म के पालन की विशेष अवस्था को छोड़ कर चारों आश्रमों में धर्म के विभिन्न अंगों का थोड़ा समावेश हो जाता है। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति, व्यक्तित्व के विकास और धर्म के तत्व का इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र नहीं मिलता।

धर्म का पूर्ण विकास और ईश्वर के सत् स्वरूप का प्रकाश महान व्यक्तियों में होता है, जो पूर्ण धर्म-विश्व-धर्म-का पालन करते हुए व्यक्तित्व रूपी पुष्प को कर्म-ज्ञान-भक्ति के द्वारा विकसित करते हैं। ऐसे मनुष्य पूर्ण-धर्म स्वरूप माने गये हैं। मनुष्य के लिए वह स्वाभाविक हो गया है कि वह उनको भगवान का अवतार मानें। जब एक वस्तु में हम किसी दूसरी वस्तु के गुणों की अधिकता देखते हैं तो उस वस्तु में दूसरी वस्तु का आरोप कर दिया करते हैं। सुन्दर मुखवाली स्त्री की उपमा चन्द्रमा से दी जाती है। इसी प्रकार विश्व-प्रेमी में ईश के गुणों का बाहुल्य देख कर मनुष्य ने उसमें ईश्वर का आरोप कर दिया। अज्ञानी मनुष्य इन महान् पुरुषों में ईश्वरीय विभूति का प्रकाश न देख कर उनके नाम और मूर्ति तक सीमित रह गये, आगे न बढ़ सके। जिसका परिणाम हुआ-धर्म में ढोंग और आडम्बर की वृद्धि।

अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात् धर्म का विकास और मोक्ष की प्राप्ति इसी लोक के मध्य मानव समाज के व्यवहार के द्वारा होती है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र ने विश्व के एक कोने में बैठ कर तपस्या नहीं की थी। कर्मठ होते हुए भी उनका समस्त जीवन एक लम्बी तपस्या था। निष्काम भावना से अपने व्यवहारों में धर्म पालन करते हुए वह संसार के लिए एक आदर्श स्थापित कर गये। जो मनुष्य यह सोचते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति जंगल के किसी कोने में बैठे, नेत्र मूँद, अंतःकरण में ईश्वर को खोजने से होती है वह भूल करते हैं। वास्तव में मनुष्य के जीवन का पूर्ण विकास कर्म, ज्ञान और भक्ति को ठीक-2 अपनाने में होता है। कोरे ज्ञान का उपदेश आलस्य, कोरी भक्ति पाखण्ड और कोरा कर्म अज्ञानता है। ज्ञान के बिना कर्म और कर्म के बिना भक्ति व्यर्थ है। अतएव मनुष्य इनमें से किसी अंग को छोड़ कर पूर्ण भक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। यह सम्भव है कि कोई ज्ञान को प्रधान रख कर चले, कोई भक्ति को और कोई कर्म को, लेकिन शेष दोनों को उनके अंग रूप समझे। महर्षि दयानन्द ने ज्ञान को प्रधान रखा, तुलसीदास ने भक्ति को प्रधानता दी, श्री राम और श्री कृष्ण ने कर्म को प्रधान मानकर भक्ति और ज्ञान को पीछे रखा किन्तु छोड़ा किसी अंग को नहीं।

युगावतार महात्मा गाँधी कर्म, ज्ञान और भक्ति के द्वारा जीवन की सफलता एवं व्यक्तित्व के विकास का जो जीता जागता स्वरूप हमारे सामने छोड़ गये, क्या वह हमारे धार्मिक, राजनैतिक, नैतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत विरोधों तथा भ्रमपूर्ण विचारों को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं? क्या हम प्रेम धर्म को अपना कर उनका अनुकरण करते हुए अपने जीवन को सफल नहीं बना सकते?


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