गृहस्थाश्रम में रहकर भगवत् प्राप्ति के साधन

November 1949

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(श्री सच्चिदानन्द जी तिवारी, स्टेशनमास्टर, रीठी)

बहुधा मनुष्यों को यह कहते सुना जाता है कि गृहस्थाश्रम में रह कर भाई हम क्या कर सकते हैं, या गृहस्थ की झंझटों में फँस कर सब भूल कर, नोन, तैल, लकड़ी ही याद रह जाती है, या गृहस्थ छोड़ कर जंगल या पर्वतों में जाकर भजन हो सकता है-इत्यादि, नाना प्रकार के उदाहरण देकर, अपने बचाव तथा संसारी मिथ्यानन्द में लिप्त रहने के लिए हजारों बहाने ढूँढ़ निकालते हैं और कर्त्तव्य शून्य होकर अकर्त्तव्य की ओर बढ़े चले जाते हैं, और चले जा रहे हैं। हम उपरोक्त अड़चनों अथवा गृहस्थ आश्रम की कायरता पूर्ण आड़ लेने वालों से केवल यह अनुरोध करना चाहते हैं कि अगर हम किसी से सुनकर कि बद्रीनाथ का पथ अत्यंत कठिन है, या वहाँ से लौटने पर मनुष्य मर जाते हैं अथवा हजारों में से कोई एक बद्रिकाश्रम पहुँच पाता है, अपने को असमर्थ समझ बैठे और जो अन्य पुरुष उत्साह पूर्वक जाने को तत्पर हैं उनको भी उपरोक्त कठिनाइयाँ सुनाकर हतोत्साह करते हैं तो बद्रीनारायण के दर्शन जीवन भर भला कैसे हो सकते हैं? इसी प्रकार गृहस्थाश्रम में रह कर, बिना भगवत् प्राप्ति के उपाय किये ही हम हार मान बैठे तो सद्गति कैसे प्राप्त हो सकती है?

यह माना कि कार्य इतना सहज नहीं है परन्तु दुर्लभ भी तो नहीं है। यदि आप चाहें और अभ्यास करना आरम्भ करें तो आप देखेंगे कि जिसको आप पर्वत समझ रहे थे वह तिल मात्र भी नहीं है।

गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी त्याग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने के लिए त्याग ही मुख्य साधन है, अतएव, त्याग के लक्षण सात श्रेणियों में विभक्त करके, संक्षेप रूप से हम आपके समक्ष उपस्थित करते हैं।

(1) निषिद्ध कर्म त्याग। जैसे चोरी, कपट, झूठ, हिंसा, प्रमाद, व्यभिचार, अभक्ष्य भोजन, निकृष्ट कर्मादि में आसक्ति इत्यादि।

(2) काम्य कर्म त्याग। धन, पुत्र, स्त्री, रोग निवृत्ति, आदि के उद्देश्य से दान, तप, यज्ञ, उपासनादि, अर्थात् सकाम कर्मों को अपनी स्वार्थ सिद्धि के निमित्त करना।

(3) तृष्णा त्याग। मान बड़ाई, प्रतिष्ठा अथवा अन्य संसारी व्याधियाँ, जो भगवत्प्राप्ति में बाधक हों, उन सब का त्याग।

(4) स्वार्थ त्याग। अपने सुख के लिए किसी भी प्रकार की सेवा, धन, पदार्थों या शारीरिक सेवा की इच्छा दूसरों से करने का त्याग।

(5) आलस्य तथा फल की इच्छा का त्याग। ईश्वर भक्ति, देवता, माता, पिता, गुरुजन, सेवा, यज्ञ, दान, तप, वर्णाश्रम के अनुसार गृहस्थ निर्वाह के लिए जीविकोपार्जन तथा शुभ कर्मों में आलस्य और सब प्रकार की कामना का त्याग।

(6) संसारी पदार्थ, कर्मों में ममता और आसक्ति का त्याग। धन, मित्र स्त्री, पुत्र, बान्धवजन, मान, बड़ाई, भवन, इहलोक व परलोक के विषय भोग रूप पदार्थ, इनमें आसक्ति और ममता का त्याग।

(7) संसार को नाशवान् समझ कर इसकी सम्पूर्ण वस्तुएं मायामय जान, शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में सूक्ष्म वासना तक का सर्वथा अभाव अथवा अन्तःकरण में उनके चित्रों का संस्कार रूप से भी न रहना, शरीर में अहंभाव का सर्वदा अभाव होकर मन, वाणी, और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्त्तापन का अभिमान लेश मात्र भी न रहना। यह सातवीं श्रेणी का त्याग है।

पूर्वोक्त 6 श्रेणियों के त्याग को प्राप्त हुए पुरुष की तो विषयों का विशेष संसर्ग होने से कदाचित् उनमें कुछ आसक्ति हो भी सकती है परन्तु सातवीं श्रेणी के त्यागी व्यक्ति की विषयों के साथ संसर्ग होने पर भी आसक्ति कदापि नहीं हो सकती है क्योंकि इस पुरुष के लिये केवल एक परमात्मा के अतिरिक्त संसार में कोई वस्तु रहती ही नहीं और ऐसे पुरुष की एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य भाव से गाढ़ स्थिति निरन्तर बनी रहती है इसीलिए उसके अन्तःकरण में सम्पूर्ण अवगुणों का अभाव होकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपैशुनता, लज्जा-अमानित्व निष्कपटता, ऐसे ही व्यवहार करता है। यदि किसी काल में कोई साँसारिक स्फुरणा हो भी जावे तो भी उसके संस्कार नहीं जमते।

यह पुरुष सर्व सद्गुणों का आविर्भाव स्वभाव से ही रखता है या यों कहें कि ये सब स्वाभाविक गुण हो जाते हैं जैसे-शौच, (बाहर, अन्तर, शुद्धि) संतोष, तितिक्षा, सत्संग, स्वाध्याय, शम, दम, विनय, आर्जव, दया, श्रद्धा, विवेक, वैराग्य, एकान्तवास, अपरिग्रह, समाधान, उपरामता, तेज, क्षमा, धैर्य, अद्रोह, अमय, निरहंकारता, शान्ति और ईश्वर में अनन्य भक्ति इत्यादि।

इसलिए अज्ञान निद्रा से चेत कर उपरोक्त सात श्रेणियों के कहे गये त्याग द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने के हेतु किसी सत्यपुरुष की सहायता लेकर उसके कथनानुसार साधन करने को तत्पर हो जाना ही उत्तम है, क्योंकि यह अति दुर्लभ मनुष्य देह अनन्त जन्मों के उन कृपासिन्धु भगवान की दया से ही मिलती है फिर इन नाशवान क्षण भंगुर संसारी अनित्य भोगों में इस जीवन के अमूल्य समय को क्यों नष्ट किया जावे?

गृहस्थाश्रम इसी कारण सब आश्रमों में श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि इस आश्रम में रहकर जो मनुष्य अपने कर्त्तव्य का पालन करता हुआ, संसार में रहते हुए भी अपने अन्दर संसार को न रहने देता हुआ, संसारी व्यवहारों को स्वप्नवत् मानता हुआ, दुख, सुख, जीवन, मरण, सब में समत्व भाव रखता हुआ, सब कुछ श्री कृष्ण भगवान को अर्पण करता हुआ, भगवान को कर्त्तामान उनकी आज्ञानुसार कार्य करता हुआ, उत्तम आचरण करने वाला पुरुष गृहस्थाश्रम में रह कर भी गुप्त योगी कहाता है और सुगमता से भगवान को प्राप्त हो जाता है।


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