साधन को ही साध्य न मान बैठिए।

November 1949

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(ले.- श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर)

सिद्धि ही जीवन का चरम एवं परम लक्ष्य है और उसके लिए साधक, साधन एवं साध्य की त्रिपुटी की शुद्धता अत्यन्त आवश्यक है। इस त्रिपुटी में से एक भी सदोष है तो सिद्धि भी सदोष ही प्राप्त होगी, जिसे वास्तव में सिद्धि कहा भी नहीं जाना चाहिए। हमें कलकत्ता जाना है पर मार्ग दूसरा ही ले लिया या चलने में उत्साह की मन्दता हो गई और चलना बन्द कर दिया या रास्ते में ही अन्य स्थान को कलकत्ता समझ कर जम गये, तो कलकत्ता पहुँचने की इच्छा की सिद्धि न हो सकेगी। इसी प्रकार यदि साध्य को ही निश्चित नहीं किया या भ्रमवश गलत वस्तु को ही साध्य मान बैठे तो सिद्धि नहीं मिलेगी। एक गंभीर भूल जो हम सभी कर बैठते हैं, वह है साधनों को साध्य मान लेना। इससे हमारी प्रगति रुक जाती है। योग रूप साधन का साध्य मोक्ष प्राप्त करना है पर योग साधन करते-करते बीच में विभूतियाँ सहज रूप में प्राप्त होती हैं। यदि हम उनके आकर्षक रूप में मोहित हो गये तो आगे बढ़ नहीं सकेंगे, हमारी प्रगति वहीं रुक जायेगी।

विश्व के अधिकाँश प्राणी तो साध्य को निश्चित ही नहीं कर पाते। उनके लिए तो साधन ही साध्य होता है। अतः उनको सिद्धि की प्राप्ति न होना तो स्वाभाविक है पर कुछ समझदार कहे जाने वाले व्यक्ति साध्य को ठीक से जान लेते हैं, पर थोड़ा चल कर वे भी विचलित हो जाते हैं क्योंकि सिद्धि का मार्ग बहुत लम्बा एवं विकट है। उसको पूर्ण रूप से पार कर लेने के लिए असाधारण धैर्य, उत्कृष्ट इच्छा, अनुपम लगन, एवं काफी पुरुषार्थ की आवश्यकता है।

रुचि-वैचित्र्य के कारण विश्व के समस्त प्राणियों के साध्य की कल्पना एक–सी न होकर विभिन्न प्रकार की हैं, पर सबके मूल में एक ऐसी वस्तु अवश्य है, जो सभी की चाहना का सार है, वह है “सुख की अनुभूति करना’। अतः साधारणतया उसे ही सबका साध्य कह सकते हैं। कोई भी प्राणी दुख नहीं चाहता, पर वही उसे प्रतिफल मिलता रहता है। अतः सुख कैसे मिले?-यही समस्या सबके सामने खड़ी है। इस विकट समस्या को सुलझाने का प्रयत्न अपनी-अपनी बुद्धि, योग्यता एवं प्रतिभा के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से मनीषियों ने किया है, पर उनमें दो तरह की दृष्टि ही प्रधान रूप से लक्षित होती है। बाह्य दृष्टि वालों ने तो सुख का साधन विभिन्न वस्तुओं की अधिकाधिक परिमाण में प्राप्ति को जाना है। फलतः विश्व में नित्य नई वस्तुओं का आविष्कार हुआ एवं होता जा रहा है। और उनके अधिकाधिक प्राप्त करने में विश्व जुटा हुआ है। हमें ज्यों-ज्यों अधिक धन अधिक वस्तुएं मिलती जाती हैं, हमारी तृष्णा बढ़ती ही जाती है, तृप्ति और शान्ति नहीं प्राप्त होती, हमारी बेचैनी बनी रहती है। इस एक बात को लेकर अंतर्मुखी वृत्ति वाले मनीषियों ने सुख की प्राप्ति के इस तरीके को गलत बतलाते हुए आवश्यकताओं को कम करने तथा वृत्तियों को वश में कर संतोष और आत्म साक्षात्कार करने को ही सुख का साधन निश्चित किया। वास्तव में अनुभूति भी इसी को सत्य बतला रही है, पर अनादि अभ्यास तथा संस्कार के वश हो अंधानुकरण की प्रवृत्ति से छूटना भी तो सहज नहीं। विकट मार्ग में जाने का साहस और उत्साह भी सबके लिये सम्भव नहीं। अतः बिरले व्यक्तियों को छोड़ सभी बाह्य पदार्थों की प्राप्ति को ही साध्य मानकर रात-दिन उसी के पीछे भागते फिरते हैं।

मनुष्य जब कोई प्रवृत्ति करता है, तो किसी कारण से। कारण के बिना ‘कार्य नहीं होता। हम अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति के कारण को ढूंढ़ें, तो सबके मूल में वही भूल व्याप्त मिलेगी। यहाँ निम्न लिखित उदाहरण काफी होंगे। विचार शील प्रत्येक मनुष्य जानता है कि हम भोजन करते हैं शरीर-रक्षा और पोषण के लिये। धन कमाते हैं आवश्यक सामग्री को जुटा सकने के लिये। पढ़ते हैं तो ज्ञान बढ़ाने के लिये या बुद्धि विकास के लिये। धर्मानुष्ठान करते हैं परमात्मपद प्राप्त करने के लिये। घर बनवाते हैं सर्दी-गर्मी आदि से बचने के लिये। कपड़े पहनते हैं शरीर की रक्षा के लिये। खेती आदि करके उत्पादन करते हैं खाने के लिये। बोलते हैं अपने भाव दूसरों तक पहुँचाने के लिये। लिखते हैं तो याद रहने और अधिक समय तक दूसरों के लाभ उठाते रहने के लिये। इस प्रकार प्रत्येक प्रवृत्ति सकारण है, पर हमें देखना यह है कि उसका मूल उद्देश्य उससे पूरा होता है या नहीं।

अब हमारी भूल कहाँ होती है, टटोलिये। हम भोजन करते हैं, पर उसमें शरीर के पोषण को ध्यान रख बीच में ही पथभ्रष्ट ही स्वाद को साध्य समझ लेते हैं। फलतः बहुत बार भूख से अधिक खा लेते हैं या अनावश्यक गरिष्ठ पदार्थ खा लेते हैं, जिससे शरीर रक्षा का उद्देश्य नष्ट होता है और उल्टे उसकी हानि हो जाती है। हमारा साध्य शरीर-रक्षा न रहकर बीच की भूलभुलैया का मजा लेना हो जाता है। वास्तव में खाना साधन है पर उसे साध्य मान हम भूल को छोड़ देते हैं। उसी प्रकार शरीर रक्षा की जाती है दीर्घायु और धर्म सामने के लिये, पर जब हमारा शरीर निरोग हुआ, तब हम भोगों में जुट जाते हैं। उसी के शृंगार और सार सम्भाल में सारा समय और जीवन बरबाद कर देते हैं। अतः साध्य-धर्म को छोड़ शरीर रूपी साधन को साध्य मान उसी से ममत्व बढ़ा लेते हैं। यह हाल धन कमाने का है। उसका साध्य जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति और सद्कार्य करना है। पर आवश्यक धन की प्राप्ति हो जाने पर भी हम उसी के संग्रह में जीवन व्यतीत कर देते हैं। आखिर उस परिग्रह बढ़ाने का उद्देश्य क्या? मानव क्यों व्यर्थ का श्रम करता है और चिंता मोल लेता है? धन रूप साधन को साध्य मान लेने के कारण मनुष्य उसी के पीछे चिपका रहता है। सद्कार्यों में व्यय करते नहीं बनता और जीवन के अन्त तक कमाता ही रहता है। उसे विश्रान्ति कहाँ?

यही हाल घर-मकान और अन्य वस्तुओं के संग्रह तथा उत्पादन का है। एक घर बनता है, फिर धन बढ़ा तो उसको गिरा नया बनाता है। उसको एक घर चाहिए, पर 10-20 बढ़ाता जाता है। कहिये, यह पागलपन नहीं तो क्या है? आखिर अमर-पद तो कोई लिखा के लाया नहीं। दो दिन की जिन्दगी है। फिर उसे झमेलों में बरबाद कर देना कहाँ की अकलमन्दी है? पर भूल में वही भूल यहाँ भी काम कर रही है। घर आदि को ही साध्य मान, उन्हीं के पीछे लिपटे और भूल साध्य को भुला दिया गया। उसी का यह दुष्परिणाम है। हमारी भूल की कहानी कहाँ तक कही जाय। लिखते-लिखते पोथा हो जायेगा।

प्रत्येक धर्म में कुछ व्रत नियम और अनुष्ठान पाये जाते हैं। उनका उद्देश्य पशुता से ऊपर उठकर मानवता की प्राप्ति करना होता है। पर, उन व्रत-नियमों और अनुष्ठानों को करते-करते हमारी उम्र बीत जाती है। फिर भी हमारी पशुता तनिक कम नहीं होती। हम में मानवोचित गुणों का भी विकास नहीं होता। फिर मोक्ष की प्राप्ति की तो बात ही करना व्यर्थ है। हम मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारे में जाते हैं। उसका साध्य क्या है। यही न, कि हमारे जीवन में नैसर्गिक गुणों का विकास हो? दर्शन, भजन और चिन्तन करते हैं आत्म विकास के लिये। धर्म ग्रन्थ पढ़ते हैं और व्याख्यान सुनते हैं इसलिये कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की जीवन में प्रतिष्ठा हो, हमारा नैतिक जीवन आदर्शमय बने। सामयिक, प्रतिक्रमण, क्षामन, क्षामना करते हैं, इसलिये समत्व भाव की वृद्धि हो, क्रोध, मान, माया एवं लोभ की कमी हो, राग-द्वेष को छोड़ें, अपने दोषों को स्मरण कर भविष्य में उनसे हटते रहें, क्षमत-क्षामना कर द्वेष को हटाकर हृदय को पवित्र-उदार और विशाल बनावें। पर ऐसा होता कहाँ है। नित्य प्रतिक्रमण और सामयिक करते रहने पर भी हमारी वृत्तियाँ पुरानी हैं एवं धर्म कार्य न करने वाले दूसरों की भाँति ही उसमें भी वे सब दोष पाये जाते हैं। कभी-कभी तो अधिक मात्रा में। कहिये, साधन दूषित है या साध्य गलत है। क्योंकि साध्य तो प्राप्त होता नहीं। अतः कोई कमी तो अवश्य है ही।

विचार करने पर यहाँ भी वही भूल घर किये बैठी प्रतीत होती है। धर्म ग्रन्थ पढ़कर सामयिकता क्रिया कर हमने अपना काम कर लिया यही हमारी धारणा प्रतीत होती है और वास्तव में यही साधनों को साध्य मान लेना है। किन्तु साध्य दूर है। वहाँ तक हमें पहुँचना है, पर सोचने-विचारने का तनिक भी कष्ट नहीं उठाते। इस भूल का दुष्परिणाम यहीं तक नहीं रुकता। पर साधनों को साध्य मान लेने के कारण ही साधनों को लेकर झगड़े होते हैं, जिससे साध्य का सर्वथा खून हो जाता है। धर्म के लिए जो साधन हैं उन्हीं को लेकर हम धर्म के मूल को जलाने वाले द्वेष, गाली, गलौज, ईर्ष्या एवं मार-काट तक कर बैठते हैं।

समस्त धर्मों के व्रत, नियम, पूजा-पाठ, देव-गुरु-भक्ति आदि के विधि विधानों में एक ही साध्य समान रूप से प्रतिष्ठित मिलता है- वह है मोक्ष की उपलब्धि। जिससे समस्त दुःखों से छुटकारा मिल जाता है जिसके लिए राग द्वेष रूपी कालुष्य को हटाकर समत्व भाव रूप आत्म-शुद्धि की अत्यन्त-आवश्यकता है। जब तक बाह्य पदार्थों में आसक्ति या ममत्व भाव है, तब तक राग द्वेष का झगड़ा लगा ही रहेगा। अतः जिस किसी प्रवृत्ति द्वारा हम निजात्म स्वरूप के निकट पहुँचते हैं, वही उपादेय है।

जिससे बीत राग भाव की प्राप्ति न हो, वह साध्य अधूरा है। यही मान कर चलते जाना है। एक ही स्थान पर पहुँचने के मार्ग अनेक हो सकते हैं। अतः मार्ग के लिये हमें झगड़ा नहीं करना है। लक्ष्य को ठीक से निर्धारित कर सम्मुख रखना है और उसकी प्राप्ति हो रही है या नहीं, या किस हद तक हो रही है, इस तुला पर अपनी प्रवृत्ति को तौलते रहना है। यदि राग द्वेष बढ़ रहे हैं तो उसके कारण निकाल के उन्हें हटाने में प्रयत्नशील रहना है।


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