ज्ञान और आचार दोनों ही आवश्यक हैं।

November 1949

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(श्री विजयमुनी जी)

जीवन एक प्रश्न है, और मृत्यु है उसका अटल उत्तर! आत्मा अज्ञान काल से, जीवन और मृत्यु के झूले पर झूलता चला आया है। जन्म और मरण का खेल वह अनादि काल से खेलता आ रहा है। परन्तु, अब सवाल यह है कि आत्मा अपनी उलझनों को कैसे सुलझा सकता है?

भारतीय दर्शनकारों ने अपनी-अपनी सूझ और अनुभव के आधार पर, आत्म कल्याण का जो मार्ग बतलाया है उसे संक्षेप में यहाँ लिख देना आवश्यक है।

भक्तिवाद का कहना है कि ‘मानव जीवन को सरस और सुन्दर बनाने के लिए भक्ति मार्ग सब से अधिक उपयुक्त और सरल है। प्रभु का नाम स्मरण कोटि-कोटि जन्म संचित कर्मों को नष्ट कर डालता है। अतएव भक्त शिरोमणि मलूकदास जी कहते हैं कि “कुछ करने धरने की जरूरत नहीं है केवल भगवान के नाम की माला फेरने भर से जीवन निर्वाह हो जायगा।” मलूक दास जी आलस्यवाद और भक्तिवाद में कोई अन्तर नहीं समझते। और इसीलिए यह कह बैठे-

“अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए सब के दाता राम।”

भक्तिवाद से प्रभु नाम स्मरण मात्र से ही बैकुँठ का प्रवेश पत्र मिल जाता है।

ज्ञानवाद का दावा है कि मुक्ति के लिए भक्ति नहीं, ज्ञान आवश्यक है। भक्ति अंधी है, वह ठीक-ठीक मार्ग का निर्देश कैसे कर सकती है? अंधा मनुष्य जब स्वयं ही अपना गन्तव्य मार्ग नहीं जानता? तब यह दूसरों का क्या खाक बतलाएगा? अतएव ज्ञानवाद ज्ञान को ही मुक्ति का साधन बतलाता है।

न्याय और वैशेषिक दर्शन का कहना है कि आत्म ज्ञान द्वारा ही अपने बंधनों से मुक्ति हो सकती है। देखिए ज्ञानवादी दर्शन यह कहते हैं-

“तत्वज्ञान सति दोषा, भावस्ततो जन्मा भाव” तत्व परिज्ञान होने से दोषों का नाश हो जाता है और फिर तो जन्म और मृत्यु का प्रश्न ही समाप्त समझिए। जिस किसी भी मनुष्य का ज्ञान खूब परिपक्व हो गया है, वही कैवल्य प्राप्त कर मुक्ति का अधिकारी हो जाता है।

जीवन को प्रगतिशील बनाने के लिए ज्ञान और आचार दोनों ही आवश्यक हैं। सच्चा दर्शन ज्ञान और आचार दोनों से समन्वय और सन्तुलन चाहता है। ज्ञान तथा आचार का सन्तुलन ही जीवन-प्रगति के लिए आवश्यक है।

“पढनं ताणँ तओ दया” ज्ञान और आचार दोनों तत्व ही जीवनोत्कर्ष के लिए अनिवार्य बतलाए हैं। और भी देखिए, ‘ज्ञान क्रियाएँ मोक्षः’ अर्थात् ज्ञान और क्रिया के समन्वय से आत्मा अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। क्या रथ कभी भी एक चक्र से गतिशील हो सकेंगे? क्या कोई पक्षी गगन में एक ही पर के बल से ऊँची उड़ान भर सकता है? ऐसा कभी नहीं होगा। फिर, ज्ञान और क्रिया के बिना मोक्ष कैसा?

जैसे प्रकाश और ताप दोनों सूर्य के गुण हैं, वैसे ज्ञान और आचार भी आत्मा के वास्तविक गुण है। जिस प्रकार अग्नि में स्वाहा और स्वधा दो शक्तियाँ प्रच्छन्न है, उसी प्रकार आत्मा में भी विचार और आचार दो शक्तियाँ रही हुई हैं। उक्त दोनों शक्तियों के सहयोग और सन्तुलन से ही आत्मा कर्मों से मुक्त हो सकती है। जब विचारों का सम्बन्ध जीवन से टूट जाता है, तब वे निर्जीव हो जाते हैं। उनकी प्राण शक्ति का लोप हो जाता है।

एक अध्यापक जब अपने शिष्य को विज्ञान का शिक्षण देता है, उसको विज्ञान के प्रच्छन्न रहस्य बतलाता है, तब क्या इतने भर से ही शिष्य विज्ञान का रहस्य जान लेता है? नहीं कदापि नहीं। शिष्य विज्ञान के प्रच्छन्न रहस्यों को तब तक नहीं समझ पाता, जब तक कि अध्यापक प्रयोगशाला में पहुँच कर, कथित सिद्धान्त का प्रत्यक्ष नहीं करा देता है। शिक्षार्थी विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में जो कुछ पढ़ता है। जब उसे वह प्रयोग शाला में प्रत्यक्ष देख लेता है, तभी उसे सिद्धान्तों के रहस्यों का परिज्ञान होता है।

अतएव आचार के बिना विचार का कोई मूल्य नहीं है। विचार तब आचार में आता है तभी उस का महत्व समझ में आता है। विचार और आचार दोनों सापेक्ष तत्व हैं।

महात्मा गाँधी ने एक बार छात्रों के समक्ष भाषण करते हुए कहा था- “पढ़ने का अर्थ ही आज गलत हो गया है। जो पढ़ कर गुणना न जानें, वे पढ़े नहीं हैं। जो गुन सकें, वे ही पढ़े हुए हैं। विचार और आचार के सन्तुलन से ही जीवन सुन्दर बनता है।” व्याकरणशास्त्र का नियम है कि कर्ता होकर भी जब तक क्रिया न हो वाक्य नहीं बन सकता। इसी प्रकार विचार के साथ आचार भी आवश्यक है।

आज का युग, एक बौद्धिक युग है। इस युग में मानवीय मस्तिष्क का विकास तो खूब हुआ है परन्तु मनुष्य को नैतिक भावना में बहुत कम सफलता मिली है। अतएव मनुष्य का ज्ञान निष्फल प्रतीत होता है। जीवन में समाज में और देश में जब कोई ऐसी समस्या आ पड़ती है जिसे हम अपने नैतिक आदेशों के प्रयोग से हल कर सकते हैं तब ही असफल ही रहते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस युग में मानव का बौद्धिक विकास तो अवश्य हुआ परन्तु नैतिक विकास नहीं हो पाया।

अतएव विचार और आचार का समन्वय करना, उस में सन्तुलन करना, दर्शन का मुख्य विषय रहा है। यह एक परखा हुआ मार्ग है कि आत्मा विचार और आचार के समन्वय से ही उन्नत और पवित्र होकर बन्धनों से छुटकारा पा सकती है।

पक्व विज्ञानः कैचल्यं लभते नरः।” साँख्य और योग भी ज्ञानवाद के ही मानने वाले रहे हैं साँख्य दर्शन का मन्तव्य है कि प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान ही मोक्ष प्रधान साधन है। साँख्य दर्शन मनुष्य का माया के साथ खुल कर खेलने को कहता है और फिर भी उस के लिए मोक्ष का द्वार खुला रखा है-

“हस, पिव, लल, खाद, दोद,

नित्य भुड्क्षस्व व भोगान यथामि कामं,

यदि विदितं ते कपिल मतं

तत्प्राणस्यति मोक्ष सौख्य मचिरेण। “

हँसना तथा खेलना-कूदना, खाना और पीना नाना विधि भोग भोगना। यह सब कुछ साँख्य मत में मोक्ष के प्रति बन्धक नहीं हैं। यह सब कुछ करते कराते भी यदि तुमने कपिल मुनि को साँख्य सिद्धान्त को, साँख्य को समझ लिया है तो फिर तुम्हारी मुक्ति को कौन रोक सकता है? प्रकृति और पुरुष की विवेक ख्याति ही मोक्ष का साधन है।

वेदान्त दर्शन तो ज्ञानवाद का प्रबल समर्थक है ही। “ब्रह्मचित् ब्रह्मैव भवति” जिसने ब्रह्म को समझ लिया वह तो बस ब्रह्म हो ही गया। वेदान्त का यह सुप्रसिद्ध सिद्धान्त है कि “ज्ञानान्मुक्तिः” ज्ञान के द्वारा ही मोक्ष सम्भव है। ज्ञान के बिना मुक्ति पाना दुराशा मात्र है। अतएव ब्रह्म और माया का विभेद जान लेने से मुक्ति मिलती है।

और, मीमाँसा दर्शन? वह ज्ञान का नहीं, बल्कि क्रियाकाण्ड के द्वारा मुक्ति का प्रतिपादन करता है। उसका कहना है कि यज्ञ और होमादिक के द्वारा ही आत्मा का कल्याण हो सकता है।

इस प्रकार सभी ने अपनी-अपनी बात कह डाली। दोनों ओर से ‘अतिवाद’ का प्रबल समर्थन मिला है। भक्त, भक्ति से आगे कदम नहीं बढ़ाता और ज्ञानी, ज्ञान की सीमा से बाहर पैर रखना पाप समझता है। और यज्ञ वादी तो भक्ति और ज्ञान दोनों को ही व्यर्थ समझता चला आया है।

आगमों में ज्ञानवाद को बड़ा महत्व दिया गया है। ज्ञान के बिना, प्रकाश और आलोक के बिना गन्तव्य स्थान का पता ही कैसे चलेगा? ज्ञान का जीवन में कम महत्व नहीं। परन्तु ज्ञान को ही सब कुछ समझ लेना, कहाँ की बुद्धिमता है? सच्चा दर्शन एकान्त को नहीं, अनेकान्त को स्वीकार करता है। वह कहता है कि जीवन को सुन्दर बनाने के लिए ज्ञान भी आवश्यक है, पर आचार की उपेक्षा से जीवन सुन्दर कैसे बना रह सकेगा?


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