ऐ अज्ञानियों, मझधार में डूब मरोगे!

November 1949

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आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुऋतस्यसीदति। जहात्य प्रचेतसः॥

अभिवेनाः अनूषते यक्षन्ति प्रचेतसः।

मज्जन्त्यविचेतसः॥

ऋग् 9।6420, 21

(आशुः) भोक्ता जीव (यत्) जो (ऋतस्य) ऋत की (हिरणयम्) स्वर्णिम (योनिम्) गोद में (आसीदति) आ बैठता है। उसे (अप्रचेतसः) मूढः अज्ञानी (जहाति) छोड़ देते हैं। अथवा वह (अप्रचेतसः) अज्ञानियों को (जहाति) छोड़ देता है। (बेनाः) बुद्धिमान, मेधावी (अभि अनुषते) अभिमुख होकर प्रशंसा करते हैं। (प्रचेतसः) ज्ञानी (यक्षन्ति) यज्ञ करते हैं, सत्कर्म करते हैं और (अविचेतसः) अज्ञानी (मज्जन्ति) डूब मरते हैं।

ऋत की, सत्य की, कल्याण की, श्रेय की स्वर्णमयी, शान्ति दायक गोद में जो बैठ जाता है उसे बेवकूफ लोग छोड़ देते हैं या वह उन बेवकूफों को छोड़ देता है क्योंकि उन दोनों के मार्ग एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न होते हैं, दोनों के विचार और कार्यों में भारी अन्तर होता है-जिससे उनकी पटरी आपस में नहीं बैठती। फलस्वरूप दोनों को अलग-अलग रहने के लिए विवश होना पड़ता है।

जिन्होंने स्वर्णिम ऋतम्भरा बुद्धि को अपना लिया है। उनका दृष्टि कोण दूसरा होता है। वे सत्य को ढूँढ़ते हैं, सत्य को देखते हैं, सत्य की ओर चलते हैं, सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं। यही उनका लक्ष होता है, इसी में उन्हें जीवन की सफलता दीखती है। वे सोचते हैं। मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ, मुझे वह करना चाहिए जो अविनाशी आत्मा के गौरव के अनुकूल हो। मुझे वह करना चाहिए जो आत्मकल्याणकारी हो, आत्मोन्नति और आत्म शान्ति में सहायक हो। आत्म लाभ में, धर्म लाभ में उसे अपना सच्चा लाभ दिखाई पड़ता है।

अज्ञानियों का दृष्टिकोण दूसरा होता है। वे दूर की नहीं सोच पाते, आज का भौतिक हानि लाभ ही उन्हें वास्तविक हानि लाभ दीखता है, ऐसे आदमी तीन वस्तुएं चाहते हैं (1) अपरिमित धन संपदाएं (2) हर घड़ी बढ़िया-बढ़िया इन्द्रिय भोग (3) अहंकार की, गर्व की पूर्ति। इन तीन इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह व्याकुल रहते हैं। जितनी मात्रा में यह त्रिविधि माया उन्हें मिलती है, उतनी ही उनकी तृष्णा बढ़ती जाती है। अधिक का, और अधिक का लालच बढ़ता है, यहाँ तक कि वे उचित अनुचित का विचार छोड़ देते हैं और जैसे भी बने वैसे इस त्रिविधि माया को पकड़ने के लिए दौड़ते हैं। इस दौड़ के आवेश में वे चोरी, हिंसा, हत्या, लूट, शोषण, अपहरण, व्यभिचार, बलात्कार, जुआ, ठगी, धोखा, असत्य, ढोंग आदि बुरे से बुरे कर्म को करने में नहीं चूकते। आरंभ में थोड़ा नशा होने पर अनीति के मार्ग पर वह धीरे-धीरे थोड़ा झिझक-झिझक कर चलता है, पर जब नशा पूरे जोर से बढ़ आता है तो वह धर्म-अधर्म का, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विवेक छोड़ कर जैसे भी बने वैसे अपनी इच्छा पूर्ति के लिए अनीति के मार्ग पर सरपट दौड़ने लगता है। धर्मपूर्वक नीति पूर्वक तो यह तीनों ही वस्तुएं बहुत थोड़ी मात्रा में मिल सकती हैं। जिन्हें इन वस्तुओं की तृष्णा प्रचंड रूप से सता रही है, उनके लिए अधर्म का मार्ग अपनाने के सिवा और कोई चारा नहीं।

ऋत की गोद में बैठा हुआ व्यक्ति सोचता है, इस माया में, इस मृग तृष्णा से भटकने से कोई लाभ नहीं, अपरिमित धन को जमा करके क्या करूंगा? यह मेरे साथ जाने वाला तो है नहीं, बिखरे हुए बालू के कण जमा करके महल बनाने के समान बाल क्रीड़ा करने से क्या लाभ? धन एक स्थान पर जमा रह नहीं सकता। हवा का झोंका आते ही रेत के कण जैसे इधर-उधर उड़ जाते हैं वैसे ही कठिन परिश्रम से जमा की हुई सम्पदा, घटना चक्र के एक ही दौर में कहीं से उड़कर कहीं पहुँच जाती है। ऐसी अस्थिर वस्तु को बटोरने की भूल विलौअल करने से, पानी को मथने से क्या लाभ? वह धर्म-जीविका करता है। निर्वाह के लायक नीति पूर्वक कमाता है और अपनी आवश्यकताएं सीमित रखता हुआ, थोड़े में गुजारा कर लेता है और सुखी रहता है।

ऋत की गोद में बैठा हुआ व्यक्ति इन्द्रिय भोगों की अति के पीछे चलती-फिरती मृत्यु की छाया देखता है। विषयी, कामी, असंयमी, चटोरे, रंगीले, ऐयाश, आराम-तलब, मनोरंजनों में मस्त लोग अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को खोखला कर डालते हैं। निरोगता उनका साथ छोड़ देती है, शान्ति उनके मन में से विदा हो जाती है, वृद्धावस्था, अशक्तता, अकाल मृत्यु उनके सिर पर मँडराने लगती है। भोग की अधिकता के कारण इन्द्रियाँ जवाब दे जाती हैं, उनमें नीरसता अनुभव करती हैं फिर भी आदत से मजबूर चटोरे व्यक्ति उसी राह पर बढ़े चलते हैं। ऋत? बुद्धिवाला, मेधावी इस बेवकूफी को देखकर हँसता है। कुत्ता सूखी हड्डी चबा कर अपने मसूड़े छील लेता है और अपना खून आप पीकर बड़ा प्रसन्न होता है सोचता है कि बड़ा लाभ कमा लिया। मेधावी देखता है कि विषयी पुरुष अपने ही बलवीर्य की, अपनी ही जीवनी शक्ति की होली फूँक रहे हैं और उस कौतूहल को देख कर प्रसन्न हो रहे हैं। इस बेवकूफी से वह दूर रहता है। वह अपनी ईश्वर प्रदत्त शक्तियों को इस प्रकार नष्ट न करके उन्हें संयम पूर्वक आत्मोन्नति की साधना में लगाता है।

ऋत की स्वर्णिम गोद में बैठा हुआ व्यक्ति पानी के बबूले को ऐंठ में इतराता हुआ, टेढ़ा-2 चलता हुआ देख कर हंसता है। बीमारी के एक झटके में शरीर की सारी चमक-दमक काफूर हो सकती है, घटना चक्र की एक लात में धन, पद, सत्ता धूल में मिल सकती है। मौत की डाढ़ में उलझा हुआ इंसान किस विरते पर घमंड से इठा जाता है? विद्या में, बल में, बुद्धि पद में, योग्यता में, वैभव में एक से एक बड़े इस दुनिया मौजूद हैं। इन घमंड से गला फुलाने वालों की अज्ञता को क्या कहा जाय? अनेकों का वैभव मुझ से बढ़ा-चढ़ा है यह जानते हुए भी मूर्ख लोग अपने आपको सबसे बड़ा समझते हैं। दूसरों पर रौब, धौंस, भय, आतंक जमाकर अपनी महत्ता प्रकट करने की ओछी नीति से न जाने कैसे उन्हें सन्तोष हो जाता है? सर्प, बिच्छू, व्याघ्र, चोर, लुटेरे, भूत, पिशाच आदि से लोग कुछ देर के लिए आतंकित तो रहते हैं, पर किसी का भी हृदय उनकी महत्ता स्वीकार नहीं करता। वरन् हर एक के मन में उनके प्रति घृणा, द्वेष, विरोध, शत्रुता की भावना रहती है, यह देखते हुए भी जो दर्प प्रकट करके अपना सिक्का जमाना चाहता है, अपना बड़प्पन प्रकट करना चाहता है उसे अज्ञानी के अलावा और क्या कहा जाय? कुछ लोग अपना ऐश्वर्य प्रकट करने के लिए फिजूलखर्ची का आश्रय लेते हैं। विवाह, शादी, पोशाक, सजावट, सवारी आदि में जहाँ थोड़ा धन खर्च करने से आसानी से काम चल सकता है वहाँ गर्वोन्मत्त लोग अन्धाधुन्ध पैसा फूँकते हैं। अपव्यय करना, धन का अनावश्यक कार्यों में खर्च करना, एक प्रकार से लक्ष्मी माता का अपमान है। माता के इस अपमान में भी जो लोग बड़प्पन समझते हैं उन्हें क्या कहें? वेद भगवान ने ऐसे लोगों के लिए “अप्रचेतसः” शब्द ठीक ही प्रयुक्त किया है। वस्तुतः वे मूढ़, मूर्ख, बेवकूफ ही हैं। अपने मन में वे भले ही अपने को बड़ा चतुर चालाक समझते रहें।

ऋत सेवी, सत्य परायण, श्रेय मार्ग में लगा हुआ व्यक्ति, वस्तुस्थिति को समझता है, तत्व का ज्ञान होने से उसे भली प्रकार विदित होता है कि क्या सत्य है, क्या असत्य है? क्या अविनाशी है, क्या नाशवान है? क्या कर्म है, क्या अकर्म है? क्या लाभ है, क्या हानि है? इस ज्ञान के कारण वह ऋत की सुनहरी गोद में आ बैठता है, अपना जीवनक्रम सात्विकता से परिपूर्ण बना कर यज्ञ मय जीवन व्यतीत करता है। सत्कर्म, सद्विचार, सद्भाव, सत्संग में तल्लीन रहता है, परमार्थ ही उसका स्वार्थ होता है। उच्च दृष्टिकोण द्वारा, सच्चाई और सेवा की सद्भावना के साथ किये हुए साधारण कार्य भी यज्ञ रूप हो जाते हैं। इस प्रकार वह ज्ञानी सदा यज्ञ करता रहता है और हर घड़ी आत्म शान्ति का मधुर रसास्वादन करता है और अन्त में जीवन लक्ष को प्राप्त कर लेता है।

इस प्रकार सुनिश्चित, सत्पथ पर चलने वाले लोग प्रायः भौतिक दृष्टि से बहुत बड़े अमीर नहीं बन पाते, विपुल सम्पत्ति के स्वामी वे नहीं हो पाते, अनियंत्रित विषय भोगों के साधन भी उनके पास नहीं होते, गर्व करने की भी उनकी स्थिति नहीं होती। ऐसी दशा में दुनियादार आदमी, उनका महत्व नहीं समझते बल्कि कई बार तो उन्हें असफल, अयोग्य, अभागा आदि शब्दों से व्यंग भी करते हैं। परन्तु चित्र का दूसरा पहलू भी है- जो बुद्धिमान हैं, मेधावान् हैं, ज्ञानी हैं तत्वदर्शी हैं वे अभिमुख होकर उनकी प्रशंसा करते हैं, धर्म का धन ही सच्चा धन है, सत् परायणतत्व की तृप्तिदायक भोग है, आत्म गौरव ही सच्चा गर्व है। इस प्रकार ज्ञानी लोग उस ऋत परायण को सच्चा धनी, सफल और चतुर समझते हैं और अभिमुख होकर हृदय से उसकी प्रशंसा करते हैं, प्रतिष्ठा करते हैं।

मायाबद्ध, अचेतस् अज्ञानी अलग रास्ते पर चलते हैं, उन्हें आत्मिक जगत् से कुछ प्रयोजन नहीं, भौतिक जगत में ही उलझते-सुलझते, हंसते-रोते व्यस्त रहते हैं। दूसरी ओर ऋत सेवी, आत्मकल्याण को प्रधानता देता है, शरीर को किराये का मकान समझ कर उसकी चौकसी और आवश्यकता पूर्ति के लिए साँसारिक कार्य करता है, सामाजिक उत्तरदायित्वों को, कर्त्तव्यों को निवाहता है, पर इसमें इतना लिप्त नहीं होता कि आत्म चेतना को भूल जाय तथा अनीति के मार्ग पर चलने लगे। इस प्रकार ज्ञानियों और अज्ञानियों के रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं। एक दूसरे का साथ छोड़ देते हैं।

ऋत मार्ग पर चलता हुआ ज्ञानी अन्त में परमात्मा तक पहुँच जाता है उसका लक्ष मिल जाता है परन्तु अज्ञानी, उल्टे मार्ग पर चलने वाला मूर्ख, विचित्र माया की मृगतृष्णा में भटकता हुआ किसी गहरे गर्त में जा गिरता है और डूब मरता है। पाप के पत्थर सिर पर लाद कर संसार सागर से पार नहीं हो पाता वरन् बीच में ही डूब करता है। एक तैरने का मार्ग है दूसरा डूबने का। ज्ञानी यज्ञ रूपी नौका पर सवार होकर पार होता है, और अज्ञानी पाप पाषाणों के बोझ से डूब मरता है। वेद भगवान, इस ध्रुव सत्य को, अटल तथ्य को, सर्व साधारण के लिए इस मंत्र द्वारा प्रकाशित करते हैं और सावधान करते हैं कि यदि सत् मार्ग छोड़ कर असत् मार्ग पर चले तो ऐ ज्ञानियों! मझधार में डूब मरोगे।


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