कर्त्तव्य परायणता एक उच्च गौरव है।

November 1949

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(श्री. रत्नेश कुमारी नाराँजना, मैनपुरी )

कुछ लोग सोचते हैं तथा कहते भी हैं कि कर्त्तव्य पालन से क्या लाभ? स्व सुख की कामना त्याग कर यदि हम दूसरों को सुखी बनाने के लिए कष्ट भी उठाये और वे उस स्वार्थ त्याग का मूल्य न समझें तो सारा कष्ट सहन व्यर्थ ही तो गया।

मान लीजिये एक घर में चार लड़के हैं उनका पिता नहीं रहा सब से बड़े भाई ने जो बैंक में रुपये जमा थे और पिता के जीवन बीमा के जो रुपये मिले वे तीनों भाइयों की पढ़ाई में व बहिन की शादी में लगा दिये। अस्तु उसे उच्च शिक्षा तथा उच्च पद पाने की अपनी बचपन की ही परम प्रिय साध का बलिदान करना पड़ा जीवन निर्वाह के लिए उसने कोई मामूली सी नौकरी कर ली। तीनों भाइयों की शादी भी करके ही उच्च शिक्षा पाने के बाद उनमें से एक वकील दूसरा डॉक्टर और तीसरा प्रोफेसर हो गया अब कभी यदि वे सार्वजनिक स्थानों पर मिल जाते हैं या उनके घर पर ही कोई सम्माननीय अतिथि आ जाते हैं तो वे अपने बड़े भाई से अच्छी तरह बोलते तक नहीं हैं कि कहीं कोई इस सत्य को जान न जाये। उन्हें ये बात लज्जास्पद तथा अपमानजनक प्रतीत होती है। कहिये जो उस ने अपना सुनहला भविष्य नष्ट किया अपनी प्यारी अभिलाषा का बलिदान कर दिया उससे उसे क्या लाभ हुआ? कठिन परिश्रम किया मोटा लाया मोटा पहना स्वास्थ्य तक बिगड़ गया उसको इन सारे त्यागों का क्या बलिदान मिला?

अच्छा? लीजिये सुनिये उसको क्या-2 लाभ हुए। सर्वश्रेष्ठ लाभ ‘मनुष्यता’। ‘आदमी के लिए आसान नहीं इन्सान होना’ दूसरा लाभ ‘आत्म सन्तोष’ वह नहीं जानेगा कि आत्म-ग्लानि जनित अशान्ति कैसी होती है, आत्म धिक्कार। अपनी ही दृष्टि से आप ही गिरना कैसा होता है? और पश्चाताप की नरकाग्नि कैसी दारुण दुस्सह होती है। तीसरा लाभ “उच्च आदर्श रखना” उसने दूसरों के सामने अनुकरणीय उदाहरण रखा। चौथा लाभ “आत्म सम्मान” उसे किसी के भी सन्मुख लज्जित होकर के आँखें नीची नहीं करनी पड़ेंगी क्योंकि उसने कोई बुरा काम नहीं किया है।

यदि इसके विपरीत करता तो मान लीजिये वह उच्च शिक्षित उच्च पद पर प्रतिष्ठित तथा धन सम्पन्न होता पर जब-2 वह अपने भाइयों को अशिक्षित नीच काम करते दीन हीन वेश में देखता, उसकी अन्तरात्मा धिक्कार उठती कि ये उसकी घृणित स्वार्थ परता है। जिसने उसके सहोदरों का जीवन दुर्वह बना दिया। आत्मग्लानि की अशान्त-अग्नि में वह जलता रहता, सबके सन्मुख लज्जित सा रहता और सामने न सही तो पीछे लोग अवश्य ही उसके इस कुकृत्य के हेतु उसे बुरा बतलाते। जब उसने अपने संग भाइयों की भलाई नहीं सोची तो और कौन उसकी शुभकामनाओं पर विश्वास करेगा? ऐसे व्यक्ति का भला जीवन ही क्या जिसका अधिकतर मनुष्य विश्वास न करें और सद्भावनाएं जिसके प्रति न रखें।

अब प्रश्न ये उठता है कि वह वर्तमान दशा में भी कहाँ शान्ति या सन्तोष पा सका है? उसने धनी या पद प्रतिष्ठित बनने की जो अपनी अतृप्त कामना कुचल दी है, वह कब उसे चैन पाने देती है? वह इस अशान्ति से बहुत ही सरलतापूर्वक छुटकारा पा सकता है यदि वह उपरोक्त चारों लाभों का महत्व समझ जाये। वह महान और प्रशंसनीय तो बन ही गया है क्योंकि उसने मनुष्यता नहीं खोई है जो कि जीवन की सर्वश्रेष्ठ कमाई है, जिसे बहुत कम मनुष्य ही पाते हैं। बस कमी इतनी ही रही कि प्रतिदान की कामना उसने हृदय में बसा रखी उसे त्यागते ही उसकी सारी अशान्ति छूमन्तर हो जायेगी और वह अकथनीय आनन्द से भर उठेगा, वह गर्व कर सकेगा कि वह उच्च शिक्षित नहीं, उच्च पदस्थ नहीं, पर वह उनसे भी श्रेष्ठ-एक सच्चा मनुष्य अवश्य है।


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