जीवन संग्राम में विजय कैसे मिले?

November 1949

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(श्री रामखेलावनजी चौधरी बी. ए. लखनऊ)

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की बात है। सारे रोम में नेपोलियन की वीरता के गाने गाये जा रहे थे। उसके शत्रु उसका नाम सुनकर काँप उठते थे। किसी में इतना साहस न था कि उसके शौर्य-वारापार की थाह ले सके। आल्पस और पिरीनीज के दुर्लघ्य पर्वत उसका मार्ग अवरुद्ध न कर सके थे। दिग्विजयी वीर नेपोलियन से किसी ने पूछा-सम्राट! तुम्हारी विजय का रहस्य क्या है? सम्राट ने अत्यन्त स्वाभाविकता से उत्तर दिया-अभी तक इस सम्बन्ध में मैंने कुछ विचार नहीं किया। रण के मैदान में तो मुझे कभी याद तक नहीं आया कि विजय या पराजय का परिणाम होगा। युद्ध के समय मुझे केवल शत्रु पर कठिन से कठिन प्रहार करने की चिंता रहती और मैं वार पर वार किये जाता हूँ जब तक शत्रु की गर्दन कट कर गिर नहीं जाती। इसी रहस्य को कौरव और पाँडव राजकुमारों के बीच खड़े हुये द्रोणाचार्य ने भी समझ लिया था और केवल अर्जुन को चिड़िया की आँख बेधन करने की अनुमति दी। अन्य राजकुमारों की एकाग्रता इतनी क्षीण थी कि वे आकाश, धरती, वृक्ष, डाली सभी देख सकते थे। बेधना है चिड़िया का शिर और देखते हैं हजारों चीजें। यही सोच कर गुरु ने उनका तिरस्कार किया और अर्जुन को पूर्ण विश्वास के साथ बाण चलाने की आज्ञा दी। अर्जुन की तरह चिड़िया रूपी लक्ष्य की केवल आँख मात्र ही जिन्हें दिखाई देती है, जीवन संग्राम में उनकी विजय में कोई भी संदेह नहीं।

सम्पूर्ण एकाग्र मन से और अनन्य प्रेम के साथ अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनवरत लड़ते रहना विजय का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। अपने जीवन में सफलता पाने के लिये केवल एक ही काम करना उचित है। अपनी सारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को एक ओर यदि लगा दिया जाय तो कोई भी काम ऐसा नहीं रह जाता जो दुःसाध्य हो। जो लोग अपने जीवन में असफल हुये हैं यदि वे स्वयं उस पर विचार करें तो उन्हें स्पष्ट पता चल जायगा कि उन्होंने कितनी ही बार अपने जीवन के मार्ग को बदला है। इसी से वे असफल रहे हैं। कोई भी व्यक्ति एक साथ कलाकार, व्यवसायी अथवा सैनिक नहीं हो सकता। एक कार्य में दक्ष और पारंगत न होकर अनेक कामों में केवल थोड़ी जानकारी प्राप्त कर लेना एक अच्छी नीति नहीं कही जा सकती। उन्हीं व्यक्तियों को सफल कहा जा सकता है जिन्होंने एक विशेष मार्ग का अवलंबन प्राणपण से किया है। सर्वतोमुखी प्रतिभा के गुणगान चाहे जितने किये जाय किन्तु वह केवल आदर्श कल्पना है और वास्तविकता से कोसों दूर है। प्रसिद्धि, सफलता और जननायक बनने का सम्मान वही लोग पा सके हैं जिन्होंने तन मन से एक दिशा में प्रयत्न किया है। गाँधी के विश्वबंध होने और टैगोर के विश्वपूजित होने का कारण यही है कि एक ने राजनीति और दूसरे ने साहित्य को छोड़ कर इधर-उधर अन्य क्षेत्रों में प्रवेश करने की अनाधिकार चेष्टा कभी नहीं की। साधारण व्यक्ति और गाँधी में शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अन्तर केवल नगण्य है, फर्क है सिर्फ जीदारी, लगन और एकाग्रता का। जीवन संग्राम में विजय चाहने वाले योद्धाओं को याद रखना चाहिये कि- लुढ़कते हुए पत्थर पर कभी काई नहीं जमती।

लोग जीवन में अपने उद्देश्य और दृष्टिकोण क्यों बदलते हैं? सिर्फ इसलिए कि उन्हें सफलता के असली माने नहीं मालूम। सफलता का अर्थ आजकल यही लगाया जाता है कि खूब रुपया इकट्ठा हो, खूब चारों ओर नाम फैल रहा हो। सच्ची सफलता तभी समझी जाती है जब प्रसिद्धि और पैसा दोनों दो साल में इकट्ठा हो जाय। वास्तव में आज के भौतिक युग में सफलता और सुख जैसी मानसिक स्थितियों का मूल्याँकन अन्य सामग्रियों की भाँति ‘रुपये’ के मापदण्ड से किया है। सफलता की कीमत आत्मसंतोष चरित्र की सफलता जैसे गुणों के आधार पर नहीं आँकी जाती है। इसीलिए आप दो वर्ष तक कपड़े का व्यवसाय करके जब काफी रुपया और नाम नहीं पा सकते, तो सराफे की दुकान करके बैठ जाते हैं। आपका गलत दृष्टिकोण इसके लिए उत्तरदायी है। सफलता प्राप्त करने के लिए जो लोग अलाउद्दीन के चिराग जैसा चमत्कार, दिखाना या देखना चाहते हैं, वे बेहद मूर्ख हैं। यदि कोई व्यक्ति दो एक साल में बड़ी चमत्कारिक उन्नति कर भी डाले तो उसका पतन शीघ्र हो जायगा। इसका कारण यह है कि वह अपनी विजयों का संगठन नहीं कर पाता। व्यवसाय में नौकरी या कहीं भी चार छः साल यदि कोई तरक्की न हो तो कभी भी न घबराना चाहिए। जीवन के मोटे पोथे में चार छह साल केवल मामूली से पन्ने हैं। धीमी किंतु निश्चित गति से चल कर ही दौड़ की प्रतियोगिता में पहला नम्बर आता है विद्वानों ने ठीक कहा है-

जल विंदुनिपातेन क्रमशः पृर्यते घटः

स हेतुः सर्वविद्यानाँ धर्मस्यच, धनस्य च।

एक-एक बूँद करके घड़ा भरता है। इसी प्रकार धर्म, धन और विद्या थोड़ा-थोड़ा करके संचित की जाती सकती है।

शीघ्र सफलता की इच्छा से जो लोग नित नये व्यवसाय करके लक्खी सौदागर बन बैठते हैं उन्हें एक बात जरूर याद रखनी चाहिये। मान लीजिये आप ने दो तीन वर्ष तक कोई कारखाना चलाया और आपको प्रत्याशित लाभ नहीं मिला। इसलिए उसे छोड़ कर आप दूसरा व्यवसाय आरम्भ करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में इस बात पर ध्यान दीजिये कि यह ठीक है कि आपको धन नहीं प्राप्त हुआ पर आपको दूसरे प्रकार का लाभ अवश्य हुआ है। उस कारखाने के बल पर उससे सम्बन्धित कच्चा माल बेचने वालों, उत्पादित माल के खरीदारों, उपभोक्ताओं, मजदूरों और कारीगरों से आपका परिचय हो चुका है और इसके लिए ही आपके लाभ का मुख्य अंश खर्च हो गया है। साथ ही यही वे आधार हैं जिनके बल पर आप आगे चलकर लाखों रुपया कमा सकते हैं। यह लाभ ही ठोस लाभ है और आप मूर्खतावश उसे छोड़ कर दूसरे क्षेत्र में जाना चाहते हैं। जहाँ यह सारी कठिनाइयाँ एक बार फिर उठानी पड़ेंगी। अपने उद्देश्य को बदल देना अपनी पराजय मोल लेना है।

कभी-कभी ऐसे अवसर भी आ जाते हैं जब बार-बार प्रयत्न करने पर भी अच्छा फल नहीं होता। ऐसी दशा में उस काम में अरुचि और उसके प्रति विरक्ति पैदा हो जाती है। वास्तव में मनुष्य की शक्ति की परीक्षा का समय यही होता है। यदि ऐसे संकटों के मौके पर आपने अध्यवसाय से काम लिया तो आप कभी भी असफल न होंगे। सफलता प्राप्ति के लिए अध्यवसाय अचूक साधन है। असफल होने पर भी बार-बार प्रयत्न करते जाना ही अध्यवसाय है। यदि महान ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन को पढ़ा जाय तो स्पष्ट पता लग जायगा कि पहले प्रयत्न में किसी को भी सफलता नहीं मिली। हाँ असफलता से वे निराश नहीं हुए वरन् दूने उत्साह से अपनी लक्ष्य सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहे और अंत में वे सफल हुये।

विषम परिस्थितियों और विपत्तियों का अपना-अलग महत्व है। इन्हीं के कारण मनुष्य को अपनी भूलों और कमजोरियों का पता चलता है। कई बार असफल हुआ व्यक्ति जो सफलता प्राप्त करता है, वह स्थायी और संगठित रूप में न केवल उसके लिये वरन् उसके परिवार और समाज के लिए लाभदायक होता है। इसलिये दुर्दिन और विषम परिस्थितियों के बीच मनुष्य को घबराना नहीं चाहिये। उनके बीच रह कर आपका चरित्र चट्टान की तरह दृढ़ हो जायगा और असफल होने की कोई गुँजाइश न रहेगी। विपत्तियों का सामना करते-करते सबसे बड़ा लाभ वह होता है कि मनुष्य में अपने आप को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने की आदत पड़ जाती है। कैसा भी घोर संकट आ जाय वह फौरन ही उसके अनुकूल अपनी जीवन चर्या में परिवर्तन कर डालता है।

अपने जीवन के लक्ष्य को उचित या अनुचित किसी भी तरीके से प्राप्त कर लेना सफलता कभी नहीं कहला सकती। सच्ची विजय न्याय संगत और ईमानदारी पर आधारित होनी चाहिये। कोई हर्ज की बात नहीं यदि आप अपने आत्म सम्मान की रक्षा करते हुए मिलें नहीं खरीद सकते और एक साधारण श्रेणी के व्यक्ति बने रह जाते हैं। चोरी, मक्कारी और जालसाजी के बल पर प्राप्त शेर की खाल में सजे हुए रंगे सियारों की झूठी शान देख कर सच्चे वीर कभी भी धर्म पथ से च्युत नहीं होते। आजकल के जमाने में प्रायः सभी लोगों पर बड़े बन जाने की धुन बहुत जोरों में सवार है। रावण पंडित था, नीतिवान था और अजेय था, पर क्या वह सफल था? वह केवल असफल ऐश्वर्य का नमूना था। आप दिखाऊ सफलता प्राप्त करने के लिए अपनी नैतिकता को कभी न बेचें।


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