क्रोध करने की अपेक्षा विचार करना ठीक है।

November 1949

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(पं. शिवशंकरलाल त्रिपाठी, हस्वा फतेहपुर)

मनुष्य जीवन में दूसरों पर क्रुद्ध होने, उन्हें दंड देने एवं प्रतिशोध लेने के कितने ही अवसर आते रहते हैं। ऐसे अवसरों पर आवेश एवं उत्तेजना वश प्रायः ऐसी भूलें हो जाती हैं जो अपने लिए तथा दूसरे के लिए बड़ा दुखदायी सिद्ध होती हैं। तू तू-मैं मैं से लेकर हाथापाई, फौजदारी, मुकदमा और खूरेजी तक होती देखी गई हैं। ऐसी स्थिति उत्पन्न होती पाई गई है जिसके कारण चिरकाल तक द्वेष का विष फलता फूलता रहा और दोनों पक्ष अवसर पाते ही एक दूसरे के लिए दुखदायी बनने में अपना गौरव समझते रहे।

इच्छा के विपरीत कार्य, वचन एवं अवसर को देखकर हमें प्रायः क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध के आवेश में ऐसी दुर्घटनाएं घटित हो जाती है जैसी कि स्वस्थ मस्तिष्क एवं स्थिर चित्त होने पर कदापि न होतीं।

क्रोध का अवसर उपस्थित होते ही हमें विचार शक्ति को जागृत करना चाहिए और आवेश को वश में रखते हुए वस्तुस्थिति पर विचार करना चाहिए कि सामने उपस्थित परिस्थिति को बदलने के लिए क्या करना चाहिए। जो सर्वोत्तम उपाय समझ में आये वही करना चाहिए। कई बार एक सीमा तक नाराजगी प्रकट करना, झगड़ना, धमकी देना, आक्रमण करना भी कारगर होता है पर अधिकतर इस प्रकार के प्रयोग सफल नहीं होते। यदि कमजोर स्वभाव का, अशक्त एवं वास्तविक दोषी हुआ तो आपके क्रोध के कारण झिझक जायगा और अपनी गतिविधि बदल देना। पर यदि स्थिति इसके विपरीत हुई तो वह या तो आपके क्रोध का तुरन्त क्रोध में ही प्रत्युत्तर देगा और संघर्ष छिड़ जायेगा। अथवा वह उस समय तो चुप ही रहेगा पर किसी उपयुक्त अवसर पर नीचा दिखाने की घात लगाये रहेगा। यह क्रिया-प्रतिक्रिया का चक्र यदि चल पड़े तो द्वेष, दुर्भाव, प्रतिशोध, कलह, क्लेश, घात प्रतिघात की एक ऐसी शृंखला बन जाती है। जिसके कारण अशाँति का तूफान उठ खड़ा होता है। इसलिए ऐसी स्थिति उत्पन्न होने से पहले ही सचेत हो जाने की आवश्यकता है।

क्रोध उत्पन्न करने वाली परिस्थिति सामने आते ही सबसे पहले यह देखना चाहिए कि हम अनधिकार चेष्टा तो नहीं कर रहे हैं। यह आवश्यक नहीं कि दूसरों के विचार या कार्य हमारी रुचि के अनुकूल ही हों। जैसे हमें अपने स्वतंत्र विचार रखने और स्वतंत्र गतिविधि बनाये रखने का अधिकार है वैसा ही दूसरों को भी है। यदि कोई व्यक्ति हमारे स्वार्थों पर सीधा आक्रमण नहीं करता या किसी आततायीपन का परिचय नहीं देता तो उसकी प्रतिकूल रुचि से हमें एक सीमा तक ही नाराज होने का अधिकार है। इतने मात्र के लिए संघर्ष कर बैठने की आवश्यकता नहीं है। कई बार हमारी अपनी मान्यता गलत, भ्रान्त या उलटी होती है। ऐसी दशा में हमारा क्रोध व्यर्थ ही नहीं अनुचित और मूर्खतापूर्ण भी होता है।

दूसरे लोग भी कई बार अज्ञानता, भूल, भ्रम अस्वस्थता, आवेश, उल्टी जानकारी होने के कारण कुछ ऊटपटाँग कार्य कर बैठते हैं। उनकी नीयत बुरी नहीं होती। ऐसे अनजान लोगों की क्रियाएं भी ऐसी हो जाती हैं जो अपने लिए वैसी ही हानिकारक सिद्ध होती हैं जैसी कि शत्रुओं द्वारा की हुई कुचेष्टा। इस प्रकार के अवसरों पर हानि का विचार करके क्रोध को बढ़ाना उचित नहीं वरन् यह देखना चाहिए कि करने वाले की नीयत क्या थी। यदि अज्ञानवश कोई दुर्घटना घटित हुई है तो हानि की मात्रा का विचार न करते हुए उसे क्षमा ही कर देना चाहिए। सुप्रसिद्ध दार्शनिक सर आइजक-यूटन की चौकी पर बड़े महत्व पूर्ण कागजात फैले पड़े थे, उसी पर मोमबत्ती जल रही थी। पास में ही उनका कुत्ता सो रहा था। कुत्ता अचानक चौंक पड़ा जिससे मोमबत्ती गिरी और सारे कागज जल कर भस्म हो गये। इन कागजों में उनकी तीस वर्ष निरंतर जीवन की शोधें थीं। न्यूटन इतनी बड़ी क्षति के मारे सन्न रह गये। पर उन्होंने कुत्ते को पुचकारते हुए सिर्फ इतना ही कहा “प्रिय, तुम नहीं जानते कि तुमने क्या वज्रपात कर डाला।”

विपरीत एवं अप्रिय परिस्थितियों के निवारण के लिए क्रोध करने की अपेक्षा उन कारणों को ढूँढ़ना चाहिए जिनकी वजह से यह सब होता है और फिर उसके निवारण के लिए स्वस्थ चित्त से जुट जाना चाहिए। यह कार्य मधुर व्यवहार, क्षमा, उदारता और दूरदर्शिता से ही हो सकता है। यह सब बातें तभी हममें रह सकती हैं जब क्रोध के आवेश से बचते हुए स्थिर मति रहने का अभ्यास करें। क्रोध हमारी एक मस्तिष्कीय खुजली को मिटा सकता है, अहंकार का उग्र रूप प्रदर्शित कर सकता है पर उन कारणों को नहीं मिटा सकता जो हमारी अप्रसन्नता के कारण हैं। उन्हें दूर करना है तो सबसे पहले अपने दृष्टिकोण को इतना परिमार्जित करना होगा कि साधारण बातों पर दूसरों से टकराने की नौबत न आवे। साथ ही हम इतने विवेक शील बनें कि विघ्न के मूल कारण को समझ कर उसको आसानी से हटाया जा सके।


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