जागृति गान

November 1949

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(श्री राजबहादुर ‘विकल’)

करना नव निर्माण तुम्हें अब, वीर जवानो, जागो!

आज न पागलपन लेकर हो शस्त्रों की झनकारें,

समय कह रहा अब न बहाना यहाँ रक्त की धारे,

महावीर, गौतम की फिर कण-2 में करुणा जागे,

पशुओं तक का रुदन देख नयनों में वरुणा जागे,

महा प्रलय के बिखरे कण दे रहे चुनौती तुमको-

जगो पाथके अविचल प्रण माँके अभिमानो! जागो!!

तुम ‘दधीचि’ हो कभी त्याग का अपने मोल न माँगो,

तुम्हीं अमर ‘प्रह्लाद’ घुसो लपटों में भय को त्यागो,

तुम विलास को त्यागो, वसुधा आज मुक्ति की प्यासी,

सुरा, सुन्दरी, स्वर्ण छोड़ कर हो योवन संन्यासी,

ऐसा हो संन्यास, देश में जीवन ज्योति जगा दे-

अखिल सृष्टि का काँपे तम, गौतम के प्राणों! जागो!!

मानव बनो, कह रहीं बापू के शोणित की धारें,

मानव बनो, कह रहीं प्राची की ऊँची दीवारें,

बापू के शोणित को लेकर, अब न रक्त फिर माँगो,

रो लो अपने दुष्कर्मों पर, हंसते हुए अभागो,

अपनी संस्कृति के आँगन में मत अंगार बखेरो-

विष करना है शान्त सभी अमृत संतानों! जागो!!

तुम अनन्त बन आज तोड़ दो सीमाओं का घेरा,

सामवेद के मंत्रों को ले आये नया सवेरा,

बोधि वृक्ष की छाया से फिर बहे ज्ञान की धारा,

अखिल विश्व के पथ भ्रान्तों को भारत हो ध्रुवतारा,

‘अरण्यक’ संवाद सुनाने लगे देश की भाषा-

अन्धकार का वक्ष चीर कर स्वर्ण विहानो! जागो!!

काशी जागे, मथुरा जागे, जाग पड़े उज्जैनी,

अलका के प्रसून फिर गूँथे वसुन्धरा की वेणी,

इन्द्रप्रस्थ, साकेत, जगें, जागे विधवा वैशाली,

तक्षशिला के खंडहर में हो मणियों से दीवाली,

बढ़ो चरणो, फिर अतीत की बिरुदावली सुनाने-

अखिल विश्व की करुणा ले मनु के अरमानों! जागो!!

*समाप्त*


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