घृणा का संक्रामक दूषित प्रभाव

November 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

घृणा और प्रेम (Attraction & Repulsion) मानव मन के दो भिन्न अवस्थाएँ हैं। प्रेम दूसरों को आकर्षित करता है, तो घृणा विकर्षित करती है, वातावरण में कटुता, क्रोध, गंदगी फैलाती, मानसिक रोग उत्पन्न करती और आत्म-भाव में संकोच उत्पन्न करती है।

घृणा में विवेक

घृणा का भाव प्रायः सब मनुष्यों में एक सा नहीं होता। कुछ तो ऐसे सामान्य विषय हैं जिनमें घृणा करना ठीक है। वेश्यागमन, जुआ, मद्यपान, स्वार्थपरता, कायरता, आलस्य, लम्पटता, पाखंड, अनधिकारी चर्चा, मिथ्याभिमान आदि विषय ऐसे हैं जिनमें प्रायः सब मनुष्य घृणा करने के लिए विवश हैं। मतभेद वहाँ होता है, जहाँ एक व्यक्ति को एक बात से घृणा मालूम हो रही है पर दूसरे को नहीं। ऐसी अवस्था में यह मालूम करना कठिन हो जाता है कि किसका दृष्टिकोण ठीक है।

एक मेहतर आता है। उसके वस्त्र स्वच्छ और निर्मल हैं, सभ्य व्यक्तियों जैसी वेशभूषा है। वह साधारण पढ़ा लिखा भी है, पर आप फिर भी उसे घृणा करते हैं। उसके जन्म की भावना आप पर आरोपित हो जाती है और उसकी समस्त अच्छाइयों को ढ़क लेती है, यह बुरा है। इसी प्रकार अनेक व्यक्ति भिन्न-2 प्रकार के व्यक्तियों से घिन करते हैं। जानवरों को घृणा के भाव से देखते हैं। ग्रामीणों की अशिक्षा की वजह से तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है। सभ्य मनुष्य असभ्य, मूर्ख, पोंगापंथी, पुराने विचार रखने वालों को घृणा करते हैं। घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है। वह हमारे “अहं” को संकुचित करती है, संकीर्णता और कट्टरपन का परिचय देती है। घृणा के बदले में दूसरे से हमें घृणा ही मिलती है। किसी को अपने प्रति ईर्ष्या करते देख कर हम उससे घृणा प्रकट करेंगे। हमारी घृणा उसमें नई ईर्ष्या उत्पन्न कर उसकी ईर्ष्या बढ़ायेगी नहीं।

घृणा और रोग

मनोवैज्ञानिकों ने अनुसंधान करके मालूम किया है कि रोगी से घृणा करने से उसमें घृणा की प्रवृत्ति की वृद्धि होती है। मानसिक रोग और जटिल हो उठता है। जब रोगी इस भ्रम में पड़ जाता है कि उसके आस-पास वाले उससे घिन करते हैं, प्रेम नहीं करते, तो वह मन ही मन बड़ा दुःखी रहने लगता है। घृणा का उद्देश्य जिसके हृदय में यह उत्पन्न होता है, उसकी क्रियाओं को निर्धारित करना है। जिसके प्रति उत्पन्न होती है, उस पर किसी प्रकार का प्रभाव डालना नहीं। रोगी जब घृणा के भाव से हृदय को भर लेता है, तो उसका अन्तःकरण दूषित हो उठता है, मन अस्त-व्यस्त, विक्षुब्ध, परेशान सा बना रहता है। तबियत नहीं लगती। अन्दर ही अन्दर उसे जलाया करता है।

मनुष्य के भाव संक्रामक होते हैं। घृणा के भाव का एक बुरा वातावरण दंभी मनुष्य के इर्द-गिर्द रहता है। वह अपने मिथ्या अभिमान में दूसरे को कुछ नहीं समझता, वरन् उनका तिरस्कार करता है।

आजकल जाति, सम्प्रदाय, धर्म इसीलिए मिटाये जाते हैं क्योंकि वे समाज में घृणा और द्वेष का वातावरण उपस्थित कर देते हैं। इन भेदभावों को मिटाने के लिए कानून पास किये जा रहे हैं। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि इन कानूनों के बावजूद जातीयता, साम्प्रदायिकता धार्मिक घृणा और द्वेष की निरन्तर अभिवृद्धि हुई है। समता उत्पन्न नहीं हो सकती है। घृणा और द्वेष बढ़े हैं और रक्तपात, लूट-खसोट, मारपीट के कारण बने हैं। उच्च वर्ग वालों ने निम्न वर्ग वालों को अपनी घृणा का शिकार बनाया है। शिक्षितों ने अशिक्षितों को, पुरुष ने स्त्री को घृणा की दृष्टि से देखकर नीचे गिराया है।

यदि हम वास्तविक एकता और समता लाना चाहते हैं तो वह कानून बनाने से न होगा। हिंसा, घृणा, द्वेष की प्रवृत्तियाँ बढ़ती ही रहेंगी। ऊपर से एकता या समता लादना संभव नहीं। उसका जन्म तो मनुष्य के अन्तस्थल से ही होना चाहिए। जब तक पारस्परिक घृणा और द्वेष का बहिष्कार नहीं किया जायेगा, एकता संभव नहीं है।

घृणा से मुक्ति के उपाय

आत्मा के विकास के लिए घृणा को त्याग दीजिये। घृणा नाना प्रकार के द्वेष की जननी है। संसार के असंख्य बुद्धिहीन प्राणी-आपके प्रेम के, सहानुभूति और सौहार्द भाव के लिए तरस रहे हैं। उन्हें अपना प्रेम दीजिये। गन्दे से गन्दे और दीन हीन प्राणी की भी उपयोगिता है। उसे अपनी दया, सहानुभूति, प्रेम के कुछ कण दान दीजिए। तनिक से उत्साह से वे नए जीवन से भरे पूरे होकर उन्नत बनेंगे। जिस प्रेम के बल से आप सैकड़ों व्यक्तियों को नये जोश और प्रेरणा से भर सकते हैं, उसे त्याग कर घृणा करना कौन सी बुद्धिमानी है?

प्रत्येक वस्तु के गुण भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव विभिन्न हैं। प्रकृति का वैचित्र्य ही ऐसा है। भेद या विषयता दूर करने के लिए सबसे सरल उपाय यह है कि हम आपसी घृणा और द्वेष को भूल जायं। प्रत्येक मानव प्राणी को अपना सम्बन्धी और आत्म स्वरूप समझें। वैसा ही व्यवहार करें।

पागल और अर्द्धविक्षिप्त व्यक्तियों से घृणा कर आप उनके मानसिक रोगों की जटिलता और बढ़ा देंगे। विक्षिप्त व्यक्ति में हठ का भाव बढ़ा हुआ रहता है। यदि आप उस हठ के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करें तो रोगी को बहुत लाभ हो सकता है। घृणा से वह बढ़ जायेगा।

घृणा का विष है, जो मन को बेकार कर डालता है। मन की उर्वरा शक्ति को सजग करने के लिए प्रेम, सहानुभूति तथा शान्ति की आवश्यकता है। घृणा तो उसे बंजर बना डालती है।

मनोविकारों को उत्पन्न न होने देने की सामर्थ्य आप में है। अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के प्रताप से आप इस मनोविकार से मुक्ति पा सकते हैं।

घृणा के विषय में पं. रामचन्द्र शुक्ल ने सत्य ही कहा है- “सभ्यता या शिष्टता के व्यवहार में “घृणा” उदासीनता के नाम से छिपाई जाती है। दोनों में जो अन्तर है वह प्रत्यक्ष ही है। जिस बात से हमें घृणा है, हम चाहते या आकुल रहते हैं कि वह बात न हो, पर जिस बात से हम उदासीन हैं, उसके विषय में हमें परवाह नहीं रहती, वह चाहे हो, चाहे न हो। यदि कोई काम किसी के रुचि के विरुद्ध होता है तो वह कहता है, “उँह” हम से क्या मतलब, जो चाहे सो हो”। यह सरासर झूठ बोलता है।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118