योगी अरविन्द की अमृतवाणी

November 1949

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-जब हम भोगेच्छा से परे होंगे तभी आनन्द मिलेगा। पहले कामना ही सहायक थी, अब वही बाधक है।

-हम जब व्यक्तित्व से परे होंगे तभी वास्तविक व्यक्तित्व प्राप्त होगा। “अहं” पहले सहायक था, अब वही विघ्नकर्ता है।

-जब हम मानवता से परे होंगे तभी मानवीय बन सकेंगे। “पशु” पहले हमारा साथी था, अब वही बाधक है।

-बुद्धि को व्यवस्थित स्मृति में रूपांतरित कर समग्र आत्मा को ज्ञान ज्योतिस्वरूप बनाओ, यही तुम्हारा लक्ष्य है।

-प्रयत्न को आत्मबल के सहज और सम्राट के समान मुक्त प्रवाह में रूपांतरित करो। समस्त आत्माओं को शक्ति के स्वरूप में पहचानो, यही तुम्हारा लक्ष्य है।

-भोगेच्छा को सत्वयुक्त आनन्द की पराकाष्ठा में रूपांतर करो। आत्मा का आनन्दस्वरूप प्राप्त करना ही तुम्हारा लक्ष्य है।

-अपने छोटे से व्यक्तित्व को विराट् व्यक्तित्व में परिवर्तित करो। आत्मा को दिव्य बनाना ही तुम्हारा लक्ष्य है।

-पशु से मिटकर पशु के चालक बनो, गौचारक श्री कृष्ण का स्वरूप प्राप्त करो। गौ से मिटकर गोपाल बनो, यही तुम्हारा लक्ष्य है।

-मानव प्रगति को प्राप्त हो, ऐसी तुम्हारी इच्छा हो तो पुरातन क्षीण समय के सर्वमान्य रूप धारण करके बैठे हुए विचारों का शोधन करो। विचारों का इस प्रकार शोधन करने से सुषुप्ति को प्राप्त विचार शक्ति जागृत हो उठती है और नवीन सृजन करने लगती है। यदि शोधन न किया गया तो मानवी मन याँत्रिक पुनरुक्ति के चक्कर में ही भ्रमित रहता है और यह याँत्रिक गति ही मन का सत्य धर्म है, ऐसा भ्रमवश मान बैठता है।

-अपनी धरणी के आस-पास चक्कर लगाने की एक मात्र गति करने के लिए ही मानव का आत्मा नहीं सृजित हुआ है, अखण्ड-ज्योति के भंडार रूप सत्य के सूर्य की भी वह प्रदक्षिणा करता है।

-प्रथम अन्तर में अपनी आत्मा का मान जागृत करो, तत्पश्चात् विचार करो और तब कर्म में प्रवृत्त हो जाओ।

-सजीव विचार सृष्टि ही भविष्य की दुनिया है। सर्व सत्यकर्म विचार के मूर्त स्वरूप है। “समस्त ब्रह्माण्ड किस कारण अस्तित्व को प्राप्त हुआ है?” क्या तुम इसे जानते हो?-कारण यह है कि भगवान के दिव्य चैतन्य में एक विचारतरंग लीला करने लगी इसीलिए।

-जीवन के लिए विचार अपरिहार्य नहीं। फिर जीवन का आदि कारण कोई मानसिक विचार नहीं है। विचार तो जीवन को आविर्भूत करने का एक साधन मात्र है। “स्व विचारों में मैं जो देख सकता हूँ, उसी स्वरूप को मैं प्राप्त कर सकता हूँ। मन के विचार मुझे जिन अमुक-अमुक कार्यों का सम्पादन करने की सूचना देते हैं वे सब मैं कर सकता हूँ। विचार मुझे जो दर्शन कराते हैं, वह स्वरूप मैं धारण कर सकता हूँ। ऐसी अविचल शक्ति, समर्थता, श्रद्धा प्रत्येक मानव में होनी ही चाहिए क्योंकि उस के अन्दर में भगवान वास कर रहे हैं।

-अभी तक मानव ने जो कुछ प्राप्त किया है, उसी की पुनरावृत्ति करते रहना हमारा कर्त्तव्य नहीं। हमें तो केवल नवीन साक्षात्कार और मानव ने अभी तक स्वप्न में भी जिस की कल्पना नहीं की है, ऐसी प्रभुता प्राप्त करनी है।

-काल, आत्मा और सृष्टि यह तीनों हमारे क्षेत्र हैं। आशा, सर्जन, कल्पना, भावी दर्शन हमारे उत्साहक हैं। शक्ति, विचारणा और विश्वास हमारे सर्वसाधक शस्त्रास्त्र हैं।

-अभी हमारे लिए क्या-क्या प्राप्त करना शेष रहा है, जानते हो? देखो :-

-प्रथम तो प्रेम- क्योंकि अभी तक हमने केवल द्वेष और आत्मसंतोष की ही साधना की है।

-ज्ञान? क्योंकि अभी तक हम केवल स्खलन अवलोकन और विचारशक्ति को ही प्राप्त कर सके हैं।

-आनन्द? क्योंकि अभी तक हम केवल दुःख सुख तथा उदासीनता को ही प्राप्त कर सके हैं।

-शक्ति? क्योंकि अभी तक निर्बलता, प्रयत्न और विजय पराजय तक ही हम पहुँच सके हैं।

-जीवन? अर्थात् प्राण। अभी तक मानव केवल जन्म, मृत्यु और वृद्धि ही देख सका है।

-अद्वैत? क्योंकि अभी तक मानवजाति को युद्ध और स्वार्थ साधन करने की विद्या ही आती है।

-एक शब्द में कहें तो अभी हमें भगवान को प्राप्त करना है। हमें अपने को उसके दिव्य स्वरूप को प्रतिमा बनाकर आत्मा का पुनर्निर्माण करना है।


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