योग का उद्देश्य

February 1948

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(श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल)

योग और विज्ञान में सबसे भारी अन्तर यह है कि योग का ध्येय अतीन्द्रिय बातों को जानना है और विज्ञान का ध्येय इन्द्रियग्राह्य वस्तुओं को जानना है। यह बात भी सत्य है कि अतीन्द्रिय विषयों को जान लेने से इन्द्रियग्राह्य विषयों को भी हम जान लेते हैं, एवं योगानुभूति की सहायता से इन्द्रियग्राह्य एवं इन्द्रियातीत दोनों विषयों को जान लेना सम्भव और सहज है। तथापि योग-दर्शन का प्रधान उद्देश्य आत्मदर्शन करना है, इस कारण योग के करिश्मे जनसाधारण के सन्मुख अनायास उपस्थित नहीं किये जा सकते। योगी का ध्यान पार्थिव वस्तुओं की ओर नहीं रहता। योगी पुरुष संसार के सामने आकर अपनी करामात दिखलाना नहीं चाहता। कारण, उसका ध्येय आत्मदर्शन करने के साधन का मार्ग एक विशिष्ट दार्शनिक मतवाद के साथ ओतप्रोत रूप से सम्बन्धित है। इन सब कारणों से योगी-जन लोकचक्षु के सामने आना पसंद नहीं करते। लेकिन यदि कोई व्यक्ति यथार्थ रूप में जिज्ञासु बनकर इन योगियों के पास जाता है तो योगीजन भी उसे यथार्थ मार्ग दिखलाना अपना परम कर्तव्य समझते हैं।

वैज्ञानिक विचार प्रणाली का मूल तत्व यह है कि बिना परीक्षा किये हम किसी बात को न स्वीकार कर सकते हैं और न अस्वीकार ही कर सकते हैं। बिना परीक्षा किये किसी बात को स्वीकार करना अथवा अस्वीकार अवैज्ञानिक मनोभाव का परिचय देना है। जो लोग योग की बातों पर आक्षेप करते हैं, उनको उचित है कि वे योग की बातों को लेकर परीक्षा करें। बिना परीक्षा किये अपेक्षा करना कूपमण्डूकता का परिचय देना है। स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के विद्वज्जनों के सम्मुख प्रतिस्पर्धा के साथ ललकार कर यह कहा था कि योग की बातों पर विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। ईश्वर को कोई माने या न माने, योग के सिद्धाँतों को कोई स्वीकार करे या न करे, विश्वास करने या न करने से कुछ विशेष आता जाता नहीं, योग का दावा है कि योग के मार्ग पर चलने से अपने आप सबको प्रतीत हो जायगा कि योग की बातें सत्य हैं अथवा निराधार। हमारे परम सौभाग्य से आज भी हमारे देश में ऐसे योगीपुरुष वर्तमान हैं जो योग में कही हुई बातों की सत्यता का प्रमाण दे सकते हैं।

योग-दर्शन का मूलतत्व यह है कि एकाग्र मनःशक्ति की सहायता से एवं यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि साधन और क्रियाओं से व्यक्ति अपनी क्रमोन्नति को असम्भावनीय रूप में आगे बढ़ा सकता है। मनुष्यों की इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्त करने का साधन हैं। हमारी इन्द्रियों की शक्ति सीमित है, इस कारण हमारा ज्ञान भी बहुत संकीर्ण एवं अपूर्ण है। वैज्ञानिक जगत् में यन्त्रों के आविष्कार से हम अपनी इन्द्रियों की शक्ति को अभावनीय रूप में बढ़ा लेते हैं। इस प्रकार मनुष्यों की यन्त्रों का व्यवहार करने की शक्ति खूब प्राप्त हो जाती है। एवं बाह्य प्रकृति पर हम बहुत प्रभुत्व करने लगते हैं। लेकिन मनुष्य इस प्रकार से अपनी प्रकृति पर विशेष प्रभुत्व नहीं कर पाता। योग-साधन से मनुष्य अपनी प्रकृति पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लेता है और बाह्य प्रकृति पर भी। योग-साधन की सहायता से मनुष्य अपनी इन्द्रियों की शक्ति को सर्वथा रूपांतरित कर लेता है। अपने व्यक्तित्व को रूपांतरित करके विश्व संसार को भी मनुष्य अनिर्वचनीय रूप में देख पाता है। योगसाधन के परिणामस्वरूप मनुष्य की जैविक क्रमोन्नति (Biological evolution) बहुत शीघ्र सम्पन्न होती है। साधारण प्राकृतिक नियमों के अनुसार भी जीवों की क्रमोन्नति हो रही है। इसका क्रम इतना धीमा है कि सहस्र वत्सरों में भी उन्नति का परिणाम पकड़ा नहीं जा सकता। लेकिन योगसाधन की सहायता से इस उन्नति के क्रम को हम इतना तीव्र कर सकते हैं कि शत-सहस्र वत्सरों का काम हम दस बीस साल में ही कर ले सकते हैं। इन बातों का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि योग के मार्ग को अवलम्बन करके कोई भी मनुष्य इन सब बातों की परीक्षा कर सकता है। योग की सहायता से कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति को रूपांतरित कर सकता है।

आधुनिक मनोविज्ञान की द्रुत उन्नति के कारण आज वैज्ञानिकों को प्रतीत होने लगा है कि मनुष्यों में इतनी छिपी हुई शक्तियाँ हैं जिनके प्रयोग के बारे में हम अभी कुछ भी नहीं जानते। इतना अवश्य समझा जाने लगा है कि एकाग्र मन की शक्ति प्रबल है। वैज्ञानिक आविष्कार के मूल में भी एकाग्र मनःशक्ति ही काम देती है। सर्वोपरि इस बात में कोई सन्देह नहीं कि प्रकृति के रहस्य का उद्घाटन करने में एकाग्र मनःशक्ति को छोड़कर और कोई साधन नहीं है। योग का रहस्य भी मनःशक्ति को एकान्त रूप में एकाग्र करने की प्रक्रिया में निहित है। वैज्ञानिकगण भी मनःशक्ति को एकाग्र करते हैं लेकिन उस एकाग्र करने की प्रक्रिया को वे नहीं जानते। आइन्स्टाइन, प्लाँक इत्यादि बड़े-बड़े धुरन्धर वैज्ञानिकों ने इस बात को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है कि वैज्ञानिक खोज के मूल में एकाग्र मनःशक्ति ही फलवती है।

मनःशक्ति की खोज करने वाले विलक्षण पण्डितगण आज पाश्चात्य देश में भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि इन्द्रियों की सहायता न लेकर भी मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है। (देखिये ‘Extra sensory perceptions’, ‘New Frontiers of the Mind’, etc. by Dr. Rhine and ‘Mental Radio’ by pton Sinclair, Man the nkown’ by Dr. Alexis carrel,’ psychical Research’ by Barrett इत्यादि ग्रन्थ) ।

कुछ अनुभूतियाँ ऐसी भी होती हैं जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। बल्कि यह कहना और अधिक सत्य है कि किसी भी अनुभूति को भाषा की सहायता से व्यक्त नहीं किया जा सकता। गुड़ का आस्वादन करके हम दूसरे को नहीं समझा सकते कि गुड़ का स्वाद कैसा होता है। दूसरों को गुड़ चखा कर ही हम बता सकते हैं कि गुड़ का स्वाद कैसा है। मीठा, कडुआ इत्यादि शब्दों के भावों को हम तभी ग्रहण कर सकते हैं जब हम उन भावों को अपनी अनुभूति में लावें। जिस व्यक्ति ने जीवन में कभी किसी मीठी वस्तु का स्वाद न लिया हो उसे कोई कैसे समझावे कि मीठा क्या वस्तु है? जो व्यक्ति जन्म से अंधा है उसे कोई कैसे समझावे कि प्रकाश क्या वस्तु है? इसी प्रकार योगियों के अनुभूतिगम्य ज्ञान को दूसरों को बोधगम्य कैसे कराया जा सकता है, जब तक कि दूसरे भी उसी समाधि अवस्था में प्राप्त ज्ञान को अपनी अनुभूति में न लावें।


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