एक रूपता नहीं-एकता।

February 1948

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(श्री स्वामी सत्यभक्त जी वर्धा)

मैं धर्म का अन्धश्रद्धालु नहीं हूँ पर विरोधी भी नहीं हूँ। निःसंदेह धर्म के नाम पर खून बहाया गया है, पर यह अन्तर न भूलना चाहिये कि धर्म के नाम पर खून बहाया गया है-धर्म के नाम पर खून नहीं बहाया गया। शैतान भी अपनी शैतानी के लिए खुदा के नाम की ओट ले लेता है, तो मनुष्य ने अपने दुस्वार्थों के लिए अगर धर्म की ओट ले ली तो इसमें धर्म क्या करे? जो नियम समाज के विकास और सुख-शान्ति के लिए जरूरी हैं उनका मन से, वचन से और शरीर से पालन करने का नाम धर्म है, इस धर्म का उस खून खराबी से कोई सम्बन्ध नहीं है-जो धर्म के नाम पर स्वार्थ या अहंकार-वश की जाती है।

कहा जा सकता है कि जब धर्म का ऐसा दुरुपयोग होता है तब धर्म को नष्ट ही क्यों न किया जाय ? मैं कहता हूँ कि भोजन के दुरुपयोग से जब बीमारियाँ पैदा होती हैं तब भोजन ही बन्द क्यों न कर दिया जाय? आजीवन अनशन करने से मौत भले ही आ जाय पर बीमारी से छुट्टी जरूर मिल जायगी। क्या आप बीमारी के डर से इस प्रकार मरना पसन्द करते हैं? यदि नहीं, तो दुरुपयोग के डर से धर्म को छोड़ना भी पसन्द नहीं किया जा सकता है।

मैं मानता हूँ कि धर्म भोजन से भी ज्यादा जरूरी चीज है। जो चीज जितनी पतली होती है उसकी जरूरत भी उतनी ही ज्यादा होती है। रोटी जरूरी है पर पानी रोटी से भी ज्यादा जरूरी है, पानी रोटी से पतला है। रोटी के बिना हम जितने दिन जिन्दा रह सकते हैं, पानी के बिना उतने दिन जिन्दा नहीं रह सकते। पर पानी से पतला है-हवा। पानी पिये बिना हम घंटों जिन्दा रह सकते हैं, पर हवा लिए बिना हम मिनटों भी जिन्दा नहीं रह सकते। धर्म हवा से भी पतला है, उसके बिना हम जरा भी जिन्दा नहीं रह सकते। प्रेम सहयोग आदि धर्म के ही रूप हैं, जो कि कीड़ों, मकोड़ों और पशु- पक्षियों में भी पाये जाते हैं, इसलिए धर्म व्यापक है, नित्य है और उसमें विकार आते हैं, जीवन भी विकृत और दुःखी हो जाता है, इसलिए हमें विकारों को नष्ट करना चाहिये, धर्म को नहीं।

एक बात और है जब तक मनुष्य के पास हृदय है तब तक धर्म किसी न किसी रूप में जिन्दा रहेगा ही। धर्म का भीतरी रूप तो रहता ही है पर बाहरी रूप भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ उस में परिवर्तन हो जाता है। ईसा की मूर्ति के सामने घुटने टेकने की जगह लेनिन की कब्र पर फूल चढ़ाना आ जाता है। प्रतीक बदल जाते हैं, वृत्ति नहीं बदलती। इसलिये धर्म को मारने की कोशिश व्यर्थ है, उसका दुरुपयोग ही रोकना चाहिए।

परन्तु धर्म की इस अमरता से उन लोगों को खुश होने की जरूरत नहीं है, जो धर्म के नाम पर रूढ़ियों के और साम्प्रदायिकता के गुलाम बने रहना चाहते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि धर्म रूढ़ियों का अजायबघर नहीं है, किंतु सत्य अहिंसा आदि नियमों का समूह है और धर्म संस्था एक समय की सामाजिक क्रान्ति है। तीर्थंकर, पैगम्बर, अवतार आदि अपने समय के क्रान्तिकारी महापुरुष हैं। कोई भी क्रान्ति स्थिर नहीं होती, न आगे की दूसरी क्रान्तियों का विरोध करती है। क्रान्ति की मित्रता रूढ़ियों से नहीं है। इसलिये धर्म की मित्रता रूढ़ियां से नहीं कही जा सकती।

इस प्रकार धर्म की बात कह कर मैं धर्म-विरोधी और धर्म के नाम पर रूढ़ि के पुजारी, दोनों के दिलों में कुछ न कुछ क्षोभ पैदा करूंगा। इसको दूर करने के लिए में इतना ही कहूँगा कि न तो आप प्राचीनता के पुजारी बनें न नवीनता के। आप जनकल्याण के पुजारी बनें। इसी दृष्टि से धर्मों का जिस रूप में जैसा उपयोग हो सके, निष्पक्ष होकर वैसा ही करें।

धर्म-संस्थाओं का मुख्य काम आदमी के दिल पर नीति और सदाचार के संस्कार डालना है। सभी धर्मों ने यही काम किया है। इसलिए मैं धर्मों में समानता देखता हूँ और धर्म-संस्थाओं की संख्या में घबराता नहीं हूँ। बहुत से स्कूल होने से या अनेक विश्वविद्यालय होने से जैसे शिक्षा में बाधा नहीं पड़ती, किन्तु कुछ लाभ ही होता है, उसी प्रकार बहुत सी धर्म-संस्थाएं होने से सच्चे धर्म में बाधा नहीं पड़ती।

पर शर्त इतनी है कि धर्म को धर्म समझिये, अहंकार का सहारा नहीं। मेरा धर्म बड़ा तुम्हारा धर्म छोटा, इस उक्ति में धर्म प्रेम नहीं है-अहंकार है। अगर कोई प्यासा इस बात पर वाद विवाद करे कि तुम्हारे गाँव का तालाब तो दो कोस का ही है जब कि मेरे गाँव का तालाब चार कोस का है, इसलिए तुम्हारे तालाब से मेरा काम कैसे चलेगा? तब मैं कहूँगा-पागल, यह तो बता कि तेरे हाथ की घड़ा कितने कोस का है? दो कोस के तालाब से तुझे अपने घड़े भर पानी मिल सकता है कि नहीं?

मनुष्य जितना कंगाल है उससे ज्यादा दम्भी है, इसीलिए अहंकार की पूजा के लिये वह धर्म का सहारा लेता है। हर एक आदमी धन का अहंकार नहीं कर सकता, दुनिया में एक से एक बढ़कर धनी पड़े हैं और धन का क्या ठिकाना-आज है कल नहीं है, तब उसके सहारे अहंकार कैसे खड़ा किया जा सकता है। बल और रूप की भी यही दशा है। दो दिन बुखार आ जाय सारा बल निकल जाय, गाल पिचक जाय, बुढ़ापा भी बल और रूप का दिवाला निकाल देता है, फिर बल और रूप भी एक से एक बढ़कर हैं। अधिकार आदि की भी यही दशा है। मनुष्य ठहरा अहंकार का पुतला, उसे कुछ न कुछ चाहिए अवश्य, जिसके सहारे वह अहंकार कर सके। इसके लिये धर्म उसे सबसे अच्छा मालूम हुआ। इस आत्म-वंचक मनुष्य ने सोचा-धर्म का अहंकार सबसे अच्छा, इससे बड़प्पन की लालसा भी पूरी हो गई और ईश्वर या अल्लाह भी खुश हो गया, परलोक सुधर गया और स्वर्ग या जन्नत के लिए सीट भी रिजर्व हो गई।

बेचारे ने यह न सोचा कि अहंकार, चाहे वह धन का हो या धर्म का, मनुष्य का पतन ही करेगा। वह उसी तरह हमारे जीवन को जलायेगा, जिस प्रकार दुनिया का कोई भी अहंकार जला सकता है। चन्दन के ठंडा होने पर भी चन्दन की आग ठंडी नहीं होती, धर्म ठंडा होने पर भी धर्म का अहंकार ठंडा नहीं होता। अहंकार हमें जलता है, उसमें धर्म का अहंकार तो सबसे बुरा है यह तो पानी में लगी आग है। कलकत्ते में आग लगे तो बुरा होगा, पर यदि गंगा में आग लगे तो यह उससे भी ज्यादा बुरा होगा, क्योंकि कलकत्ते की आग गंगा से बुझाई जा सकती है पर गंगा की आग किससे बुझाई जायगी ?

दुनिया के पाप को हम धर्म से साफ करते हैं, पर धर्म में ही अगर पाप घुस जाय, तो हम किससे साफ करें ? इसलिए मैं कहता हूँ कि धर्म का अहंकार सब से बुरा है। यह अहंकार निकल जाय, तो दुनिया में कितनी ही धर्म-संस्थाएं क्यों न रहें, उनसे हमारा कोई नुकसान नहीं है, बल्कि फायदा ही है।

सारी दुनिया में अगर एक ही मजहब हो जाय, तो भी उससे लाभ न होगा, अहंकार या स्वार्थ थोड़ा-सा नुक्स निकालकर खून की नदियाँ बहाने लगेगा। यूरोप में एक ही ईसाई धर्म के मानने वाले क्या चर्चों के भेद से खून की नदियाँ नहीं बहाते रहे ? एक मजहब बनाने की कोशिश व्यर्थ है। जरूरत है सद्भाव की। हमें एकरूपता (niformity) नहीं चाहिये, एकता (nity) चाहिये।

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