चढ़ना है, चढ़ता जा प्राणी। ध्रुव नियम यही है ईश्वरीय-बढ़ना है, बढ़ता जा प्राणी।।
भूला मानव! पहिचान तनिक अपने को, अपना स्वावलम्ब, तू कब निरीह, एकाकी है, ईश्वर तब गुरु, पितु, बन्धु, अम्ब, ज्योर्तिमय कर निज आत्म-ज्योति, केवल इतना ही हैं विलम्ब,
उस प्रकृति पुरुष को पृष्ठ-पृष्ठ पढ़ना है, पढ़ता जा प्राणी। चढ़ना है, चढ़ता जा प्राणी, बढ़ना है, बढ़ता जा प्राणी।।
तू स्वयं ब्रह्ममय, सत्य! परम!! कण कण में जब उसकी सत्ता, सत्, चित्, आनन्द रूप जब है अवनीतल का पत्ता पत्ता, हाँ जागृत करना है तुझको निज सुप्त शक्ति को अलवत्ता,
भवसागर तुझे तारना है-तरना है, तरता जा प्राणी। चढ़ना है, चढ़ता जा प्राणी, बढ़ना है, बढ़ता जा प्राणी।।
सब तो तू ही, सब ही तेरे, फिर कौन यहाँ है बेगाना, फिर मेरा-तेरा कहाँ रहा-सब तेरा जाना-पहिचाना, तू छिन्न-भिन्न कर दे माया का गूढ़ घना ताना-बाना,
ओ! अमर! मुक्ति के अधिकारी!! कढ़ना है, कढ़ता जा प्राणी। चढ़ना है, चढ़ता जा प्राणी, बढ़ना है, बढ़ता जा प्राणी।।
दुख को अपना, कर पान हलाहल, बन जा नीलकंठ शंकर, तुझको किसका भय रे मानव! तू तेज-पुँज, तू प्रलबंकर, तू स्वामी है, स्वामी ही रह, तू गुरु-गौरव, तू कब किंकर,
तू कारण है, तू सृष्टा है, गढ़ना है, गढ़ता जा प्राणी। चढ़ना है, चढ़ता जा प्राणी, बढ़ना है, बढ़ता जा प्राणी।।
तू दिव्य, अलौकिक, आदि शक्ति, तेरी ‘ब्रह्माण्ड’ कहानी है, पर महावीर सम भूला निज बल, केवल याद दिलानी है, अध्यात्म-भाव के बीज-रूप! सुन ले, तू ही वरदानी है,
“प्रेमी” जग में जीवन-मृदंग मढ़ना है, मढ़ता जा प्राणी। चढ़ना है, चढ़ता जा प्राणी, बढ़ना है, बढ़ता जा प्राणी।।
----***---
*समाप्त*