निरुत्साह का मूल।

February 1948

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(श्री हरिभाऊ उपाध्याय)

उत्साह जीवन का धर्म है, अनुत्साह मृत्यु का प्रतीक है। उत्साहवान् मनुष्य ही सज्जन कहलाने योग्य है। उत्साहवान् मनुष्य आशावादी होता है, उसे सारा विश्व आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है। विजय, सफलता और कल्पना सदैव आँख में नाचा करते हैं। उत्साह से हृदय को अशक्ति ही अशक्ति दिखाई देती है।

उत्साहमय जीवन को देखने के लिए हमारी आँखों में उनके सुप्त बीजों की आवश्यकता है। यह सुस्ती बुरी है। जब हमारे हृदय में उत्साह होता है, आनन्द होता है, आशा होती है, तब हमें जनता भी उत्साह-आनन्द-आशामयी दिखाई देती है।

यदि हम तैयार हैं, तो दुनिया में मुश्किल कौन बात है? कोई बात कठिन और दुस्साध्य केवल उन्हीं लोगों के लिए होती है जो या तो खुद काम करना नहीं चाहते या दूसरों से करवाना चाहते हैं, या उसके लिए आवश्यक कष्ट और असुविधा सहने को तैयार नहीं होते। सच्ची लगन और व्याकुलता होने पर न तो सुस्ती ही पास आ सकती है न असुविधा। काम वास्तव में कठिन नहीं होता। हमारी कमजोरी और कम तैयारी उसे कठिन बना देती है। जो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से परमात्मपद तक प्राप्त कर लेता है, इसके लिए कौन बात मुश्किल है? जो बड़े हिंस्र, भयानक जन्तुओं को अपना सेवक बना लेता है, उसका क्या अपनी गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ लेना कठिन है? छोटी सी परीक्षा में जो हिचकते हैं, उनके लिए कठिन परीक्षा पास होने की, बड़ी बड़ी बातें करने की आदत क्या स्वयं अपने आप को और दूसरों को धोखा देना नहीं है?

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