मनुष्यों! ‘मनुष्य’ बनो।

February 1948

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(श्री भागीरथप्रसाद जी गुप्त बहेड़ी)

आज नरतन धारी तो असंख्य दिखते हैं पर नर मन धारी व्यक्तियों की भारी कमी हो गई है। इंसान के रूप में हैवान चारों ओर विचरण कर रहे हैं। सर्प से क्रोधी, बिच्छू से दुष्ट, भेड़िये से निर्दय, कुत्ते से जाति द्रोही, कौए से धूर्त, वक से ढोंगी, तोते से बेमुरब्बत, बन्दर से उठाई गीरे, शूकर से अभक्ष भक्षी व्यक्तियों का बाहुल्य है। परन्तु जिनके मन, वचन कर्म में मनुष्यता झलकती हो ऐसे मानव प्राणियों के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं।

मनुष्यता को सद्गुण घट जाने पर संसार में नाना प्रकार के पाप, कुविचार, कुकर्म बढ़ते हैं और उनके फल स्वरूप युद्ध, क्लेश, कलह, द्वेष एवं दुख दरिद्रों की अभिवृद्धि होती है। कोई आदमी चैन से नहीं बैठने पाता चिन्ता, आशंका, भय, अविश्वास और अशान्ति से वातावरण तिमिराच्छन्न हो जाता है। आये दिन नित नई समस्याएं उठती हैं, नित नये उत्पात खड़े होते हैं। राजनीतिज्ञ, शासक, नेता और कानून के पंडित उन गुत्थियों को कूटनीतिक आधार पर सुलझाना चाहते हैं। पर उनके प्रयत्न प्रायः असफल ही होते हैं। एक समस्या सुलझ नहीं पाती कि दूसरी दस नई उलझनें सामने आ खड़ी होती हैं।

लोकव्यापी अशान्ति को दूर करने के लिए हमें गहराई में उतरना होगा और देखना होगा कि हर क्षेत्र में भरी हुई इन कठिनाईयों और आपत्तियों का वास्तविक कारण क्या है। गंभीरता से विचार करने पर प्रतीत होता है कि अतीत काल की अपेक्षा आज का मनुष्य बुद्धि, चातुर्य, विज्ञान, शिक्षा, शिल्प, धन आदि से अधिक सम्पन्न है परन्तु मनुष्यता की मर्यादा-धर्म, कर्तव्य, विवेक, त्याग, संयम एवं सदाचार से वह बहुत पीछे हट गया है। यह पीछे हटना एक ऐसा पतन का गहन गर्त है। जिसमें गिरने की चोट असह्य पीड़ा दायक होती है। उस पीड़ा की तुलना में उन समृद्धियों का कोई मूल्य नहीं, जो आज के मानव प्राणी ने प्राप्त की है, जिन्हें वह प्रकृति पर विजय प्राप्त करना कहता है और गर्व से फूला नहीं समाता।

आज आर्थिक उन्नति के आधार पर भावी कार्यक्रम बन रहे हैं। उद्योगीकरण, व्यापार और उत्पादन मात्र से सुख शान्ति की स्थापना के स्वप्न देखे जा रहे हैं। परन्तु उस महान क्षति का पूरा करने की ओर हमारा ध्यान आकर्षित नहीं होता जो आर्थिक आवश्यकताओं से भी ऊपर हैं। मनुष्यता के गुणों से हीन प्राणी चाहे रावण से धनवान, शुक्राचार्य से विद्वान, हिरण्यकश्यपु से पराक्रमी, कंस से योद्धा, मारीच से मायावी, कालनेमि से कूटनीतिज्ञ, भस्मासुर से शक्तिशाली क्यों न हो जावें पर वे न अपने लिए, न दूसरों के लिए- किसी के लिए भी शान्ति का कारण न बन सकेंगे। यह समृद्धि अयोग्य लोगों के, कुपात्रों के हाथ में जितनी बढ़ेगी उतना ही क्लेश बढ़ेगा अशान्ति की कालिमा धनी होगी।

निश्चय ही धन बल और बुद्धिबल से हमारी सुविधाएं बढ़ती हैं और जीवन का सुसंचालन सुगम हो जाता है, पर केवल इतने मात्र से सुख शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। इन समृद्धियों साथ साथ, एवं इनसे भी पहले मनुष्यता के सद्गुणों का उन्नयन एवं अभिवर्धन होना चाहिए। शास्त्र की, मनुष्य जाति को पहली शिक्षा है- ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनुष्य बनो। धनवान, बलवान, विद्वान्, चाहे जो बनें परन्तु सबसे पहले हम मनुष्य बनें, इसी में संसार की स्थायी शान्ति का मर्म छिपा हुआ है।


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