हमारी आजीविका

February 1948

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(श्री आदित्यप्रसादजी कटरहा दमोह)

लोकोक्ति प्रचलित है कि “जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन। जैसा पीओ पानी, वैसी बोले वानी”। इस लोकोक्ति में हिन्दू जाति का दीर्घकालिक अनुभव सन्निहित है। मेरी अपनी सम्मति में इसका यह भी अर्थ होता है कि जिस भावना को लेकर कोई धन उपार्जित किया जाता है, उस धन द्वारा प्राप्त अन्न में वे ही भावनाएं ओत प्रोत रहती हैं और उस अन्न को खाने वाले व्यक्ति पर उन भावनाओं का अनिवार्य प्रभाव पड़ता है। इस कारण अनेकों साधु सन्त इस बात के लिए विशेष सतर्क रहते हैं कि कहीं उनके खाने में झूठ, अन्याय, छल, धूर्तता और धोखेबाजी की कमाई का अन्न न आ जावे। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यवसाय आपकी दृष्टि से छोटा अथवा बड़ा नहीं होता बल्कि वह व्यवसाय जिस भावना से किया जाता है उस भावना की उत्कृष्टता अथवा निकृष्टता उस व्यक्ति के व्यवसाय को बड़ा या छोटा बनाती है।

हमारी कमाई का पैसा तो अन्य लोग यदा-कदा ही खाते हैं पर हम और हमारे आश्रित व्यक्ति नित्य-प्रति ही उसका उपभोग करते हैं अतएव यदि हमारा धन, झूठ, अन्याय, छल या धूर्तता द्वारा उपार्जित हो तो हमारा वह धन हमें अधिकाधिक अन्याय, झूठ और धूर्तता में प्रवृत्त करावेगा और हमारे जीवन को दुखी बना डालेगा। अतएव हमें प्रयत्न करना चाहिए कि हमारी आजीविका शुद्ध हो और वह जन-हित की भावना से ओत-प्रोत हो।

कविश्रेष्ठ गोल्डस्मिथ ‘ऊजड़ ग्राम’ नामक काव्य में एक ग्रामीण लुहार की आजीविका का वर्णन करते हुए लिखता है कि “उसका माल ईमानदारी के पसीने से आद्र है और वह जो कुछ बन पड़ता है कमाता है। वह संसार के सामने मस्तक ऊंचा उठाकर देखता है-क्योंकि वह किसी का कर्जदार नहीं है”। जिस कमाई के द्वारा हम संसार के सामने मुख ऊंचा उठा करके चल सकें, जिसके कारण हमें दुनिया के किसी आदमी के सामने आँखें नीची न करनी पड़ें वही ईमानदारी की कमाई है अर्थात् यदि हमें किसी की आँख बचाकर कोई कमाई करनी पड़े, यदि हमें उसकी कमाई में किसी भेद को छुपाने के लिए दूसरों से दुराव करना पड़े तो हमारी कमाई ईमानदारी की कमाई नहीं।

एक बार अरब के प्रसिद्ध दानवीर हातिमताई ने अपने नगर के समस्त नगरवासियों को निमंत्रित किया और शाम को वह अकेला ही नगर के बाहर घूमने को चला गया। हातिमताई ने वहाँ एक नौजवान लकड़हारे को सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिए हुए आते देखकर उससे पूछा कि वह हातिमताई के इतने अच्छे भोज में सम्मिलित क्यों नहीं हुआ? उस गरीब नौजवान ने जवाब दिया कि- जो ईमानदारी से उपार्जित एक पाई की भी रोटी खा सकता है उसे हातिमताई की भीख की जरूरत नहीं। ईमानदारी की कमाई हमें इस गरीब नौजवान की नाईं ही आत्मनिर्भर और आत्माभिमानी बनाती है। जिस कमाई के कारण हमें अपना आत्म सम्मान और आत्म गौरव खोना पड़े वह ईमानदारी की कमाई नहीं हो सकती।

महात्मा हेनरी डेविड थोरों का कथन है कि “परिश्रम से पवित्रता और बुद्धिमानी आती है और प्रमादालस्य से अज्ञान और इन्द्रिय लोलुपता, ईमानदारी की कमाई हमें परिश्रमी बनाती है वह हमारे हृदय को पवित्र और शुद्ध बनाती है जिसमें कि फिर हमारे अन्दर ज्ञान का आविर्भाव होता है। जो कमाई हममें अज्ञान, विलासिता और इन्द्रिय लोलुपता का प्रवर्धन करे वह ईमानदारी की कमाई नहीं हो सकती”।

जब तक द्रव्योपार्जन का हमारा दृष्टिकोण पवित्र नहीं होता अर्थात् जब तक व्यापार में केवल व्यक्तिगत लाभ का ही ध्यान रखा जाता है तब तक हम उस उपार्जित द्रव्य को शुद्ध आजीविका नहीं कह सकते। ऐसे व्यवसाय से हम अपने व्यक्तित्व को समाज के समष्टिगत जीवन में डुबा नहीं सकते। यदि हम सिनेमा का धन्धा करें और जनता के हित को ध्यान में न रखते हुए ऐसी फिल्में तैयार करें जो लोगों की वासनाओं को उत्तेजित करें तो इस दृष्टिकोण से किए गए सिनेमा के व्यवसाय की कमाई ईमानदारी की कमाई नहीं कही जा सकती। तम्बाकू, बीड़ी, चाय, वनस्पति घी, मदिरा आदि के व्यवसाय इस दृष्टिकोण से शुद्ध आजीविका वाले व्यवसाय नहीं होते। यदि हम जनता को संकटमय परिस्थिति में पाकर उसे अपनी वस्तु के अत्यधिक दाम देने को बाध्य करते हैं तो भी हम इस द्रव्य को ईमानदारी से नहीं पा रहे। हमारी द्रव्योपार्जन की यह प्रणाली हिंसात्मक है अतएव असत्य है और त्याज्य है।

द्रव्योपार्जन की जिस विधि में व्यक्तिगत लाभ के साथ साथ लोक-कल्याण का ध्यान रखा जाता है अथवा यों कहें कि जिसमें व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा लोक कल्याण को अधिक महत्व दिया जाता है वह आजीविका पवित्र होती है। वह मनुष्य को ऊंचा उठाती है और वह उसे आसक्त नहीं करती। इस दृष्टिकोण से मनुष्य अपनी क्षुद्र स्वार्थपरता को भूल जाता है और विश्व से अपनी अभिन्नता स्थापित करता है। वह लोक की आत्मा में अपनी आत्मा को डुबा देता है और इस तरह वह अपने आपको हाड़-माँस के किसी शरीर विशेष में सीमित नहीं करता। वह समाज के हित में अपना हित देखता है। वह प्रधान तथा लौकिक कल्याण की दृष्टि से काम करता है इसलिए सिद्धि-असिद्धि में लाभ हानि में प्रफुल्ल अथवा उद्विग्न नहीं होता। इस दृष्टिकोण से किया हुआ कर्म सहज ही निष्काम कर्म होता है, अतएव मोक्षदायक होता है।

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