प्रेम धर्म की शिक्षा।

February 1948

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(श्री राजा महेन्द्र प्रताप)

प्रेम-धर्म तुम्हें धार्मिक कर्तव्यों को बताकर बुराइयों से रोकता है। वह यही शिक्षा देता है कि केवल एक मुझको ही सर्वत्र देख-समझकर और यह जानकर कि केवल एक परमात्मा ही सब कुछ है, तथा सर्वोच्च धार्मिक पारितोषिक प्राप्ति के प्रति सच्चा और विशुद्ध प्रेम रखकर ही तुम सर्वोच्च प्रसन्नता प्राप्त कर सकते हो। अनुचित अहंकार व इन्द्रियलोलुपता द्वारा लोग मान और धन-दौलत की महत्वाकाँक्षा तथा झूठे प्रेम में फंस जाते हैं, वे दुष्टता में निम्नश्रेणी की प्रसन्नता प्रकट करते हैं, मानव को अभिमान सिखाते हैं, लोगों को झूठ बोलने को प्रोत्साहित करते हैं, मानव को डाह और द्वेष करना बताते हैं, और जब कोई निराश होता है या उसकी इच्छा के मार्ग में कोई बाधा उपस्थित होती है तो यह केवल अहंत्व या इन्द्रिय-लोलुपता से ही होती है कि क्रोध या निराशा उत्पन्न होती है जिससे मनुष्य लड़ने, लूटने, बलवा करने, मारकाट करने आत्महत्या करने या ऐसे ही अन्य जुर्मों की ओर प्रवृत्त होता है और मान या धन-दौलत की महत्वाकाँक्षा ही धोखाधड़ी, चोरी, लूटपाट आदि बुराइयों की जड़ है।

प्रेम धर्म तुम को यह बतलाता हुआ कि तुम परमात्मा के अंश हो, यह समझाता है कि तुम्हारे लिये बुराई करना भारी गलती है और तुम ऐसा करने से परमात्मा के शत्रु हो, या उसे कष्ट पहुँचाते हो। यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम परम पावन पूर्ण परमात्मा को समझो-उसे ही विश्व का ध्रुव सत्य जानो। तुम्हें सबके प्रति प्रेम करना चाहिये। अपने स्वास्थ्य को ठीक रखकर और अपने दैनिक ज्ञान को उन्नत करते हुए तुम्हें सदैव मानवसमाज की सेवा में रत रहना चाहिए और फिर तुम्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि अकेले तुम कुछ नहीं हो, कारण कि केवल एक परमात्मा अकेला परमात्मा ही है। तुम्हारे प्रत्येक विचार और कार्य का मुझ पर प्रभाव पड़ता है और सदैव विश्वास करो कि व्यभिचार या परस्त्री गमन एक घोर पाप है और यह मत भूलो कि बीज केवल बच्चे पैदा करने के लिए है।

न्याय, सत्यता, दया, क्षमा आदि के अनुसार विचार और कर्म करो। सबके अधिकारों को समान मानो। दूसरों का लाभ देखकर प्रसन्न होओ। दूसरों की अनुचित हानि देखकर अपने मन में दुःख का अनुभव करो। दूसरों को अपना निजी भाई समझ कर उनमें विश्वास रखो और जो कुछ तुम वायदा करो, उसे अवश्य पूरा करो। सबके प्रति नम्र बनो। किसी को कष्ट में देखकर उसकी सहायता करो। सदैव सहिष्णु बनो। अपने कष्ट का अनुभव न करो। कुछ हद तक तुम्हें गाली-गलौज और क्रोध को सहना चाहिए। धर्म के अनुसार कार्य करते हुए निडर रहो और अपने मन को सदैव प्रसन्न रखो। धन को भगवान की धरोहर मानकर उसके कोठारी के रूप में उसे उचित ढंग से व्यय करो। धर्मार्थ दान अवश्य करो। किसी दशा में भी अधिक या कम व्यय न करो। तुमको धार्मिक सिद्धान्त और आदेशों का सदैव स्मरण रखना चाहिए। तुमको हरेक से और प्रत्येक वस्तु से सीख सीखनी चाहिये। तुमको अपने मन को एक विषय पर एकाग्र करने का अभ्यास करना चाहिये।

तुमको किसी भी काम को कभी अधूरा न छोड़कर उसे पूरा करना चाहिए। तुम्हें दूसरों को अपने ज्ञान और अनुभव से लाभान्वित करना चाहिए। नित्य प्रार्थना करो। समय का लेखा रखो। प्रेमपूर्ण आराधना करो। सदैव प्रेम का शब्द पढ़ना जारी रखो। प्रेम केन्द्र में जाते रहो। तीर्थयात्रा करो। पवित्र स्थानों को देखो और भ्रमण करो। अच्छे लोगों का संग करो अच्छे विषय पढ़ो और लिखो। अच्छे आदमियों और अच्छी चीजों का स्मरण करो। यदि किसी कारणवश तुमसे कभी कोई बुराई बन जाय, यदि कभी तुम से धर्म के विपरीत कोई कार्य हो जाय, तो तुम्हें तुरन्त उसके लिए क्षमा माँग लेनी चाहिये और वैसी बुराई भविष्य में न करने का संकल्प करना चाहिये। केवल एक अपनी आत्मा से नेक बनने की सहायता माँगो।

यदि तुम ऐसा करते रहोगे और सदैव यह विश्वास रखोगे कि मैं सर्वत्र हूँ, उजाले व अंधेरे में-भीतर व बाहर-सभी स्थानों पर मैं हूँ- मैं सदैव ही तुम्हारे मन की भावना को देखता रहता हूँ, जो कुछ भी किसी स्थान पर तुम करो-मैं उसे जानता हूँ। यदि इन बातों को स्मरण रखते हुए तुम धर्म की शिक्षाओं का पालन करते रहोगे, उस दशा में न तो तुम धर्म के अनुसार पापी ही हो सकोगे और न सामाजिक कानूनों के अनुसार कोई जुर्म ही कर सकोगे। तुम भविष्य में प्रसन्न रहोगे और मुझे भी प्रसन्न रखोगे।

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