सहानुभूति

October 1947

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मानसिक रोग की अद्भुत चिकित्सा

(एक मनोवैज्ञानिक)

जो व्यक्ति जितना ही अधिक अपने आपको दूसरों के समक्ष खोलता है, दुराव नहीं रखता वह अपनी मानसिक जटिलता का अन्त करता है अर्थात् उसकी विचारधारा और कार्यक्रम स्पष्ट और स्वस्थ होता है। बुद्ध भगवान का कथन है कि ‘ढंके हुए को खोल दो, छिपे हुए को प्रसिद्ध कर दो, तो तुम अपने पापों से मुक्त हो जाओगे, क्योंकि छिपा ही पाप लगता है, उभरा हुआ पाप नहीं लगता।’ मनुष्य अपने कुचिंतन से अनेक प्रकार की मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न करता है जो जितना ही अधिक अपने आपको दूसरों से अलग रखने की चेष्टा करता है, उसके विचार उतने ही दूषित हो जाते हैं। मनुष्य के मन में अनेक प्रकार की भावनाएं उठती हैं। जब तक वह अपनी इन भावनाओं को अपने मित्रों के समक्ष प्रकाशित करता रहता है, तब तक वे मानसिक जटिलता और परेशानी का कारण नहीं बनती, किन्तु हम अपनी सभी भावनाओं को अपने मित्रों के समक्ष प्रकाशित नहीं कर सकते। क्योंकि वे इतनी घृणित होती हैं कि हमारा विश्वास होता है कि उन्हें जान कर भी हमारे मित्र हमसे घृणा करने लग जायेंगे। इसी तरह हम अपने अनेक दुष्कर्मों को प्रकाशित होने से रोकते रहते हैं। यह मनोवृत्ति यहाँ तक बढ़ जाती है कि हम उन्हें अपने समक्ष भी स्वीकार नहीं करना चाहते। ऐसी ही अवस्था में मानसिक जटिलता और मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती है। मानसिक रोग की अवस्था में मनुष्य के जटिल भाव अपने आप ही प्रकाशित होने लगते हैं चेतना इनका प्रकाशन नहीं रोक सकती। वह स्वयं निर्बल होकर टूक-टूक हो जाती है। आरोग्य लाभ के लिए जटिल भावों का इस प्रकार प्रकाशित होना आवश्यक भी है। वास्तव में हम जिसे रोग कहते हैं, वह वास्तविक रोग का बाह्यरूप मात्र है। वास्तविक रोग आँतरिक होता है। बाह्य रोग के द्वारा-वह आंतरिक रोग बाहर निकलता है। और इस तरह रोगी को आरोग्य लाभ कराने में लाभ पहुँचाता है। युग महाशय का कथन है कि किसी भी प्रकार का मानसिक रोग सदा नहीं ठहर सकता। बाह्य रोग के द्वारा जब भीतरी मानसिक विकार निकल जाता है तो व्यक्ति आरोग्य का अनुभव करता है।

मानसिक विकार के बाहर निकलने में सहानुभूति का भाव बहुत ही लाभकारी होता है रोगी उससे सहानुभूति रखने वाले व्यक्ति के समक्ष अपने मन के छिपे भाव प्रकाशित कर सकता है। जो व्यक्ति रोगी से घृणा करता है अथवा उससे तटस्थ रहता है उसके समक्ष रोगी अपने भाव कैसे प्रकाशित कर सकता है। पागल से घृणा करने वाले व्यक्ति को देखकर पागल का रोग और भी बढ़ जाता है। इसके प्रतिकूल सहानुभूति रखने वाले व्यक्ति के समक्ष पागल का पागलपन कम हो जाता है।

इस प्रसंग में डॉक्टर होमरलेन का प्रयोग उल्लेखनीय है। डॉक्टर होमरलेन ऐसे अनेक व्यक्ति शेलशाम के रोगियों को आरोग्य कर सके, जो डॉक्टर फ्रायड की विधि से चंगे न हो सके थे। इसका प्रधान कारण डॉक्टर होमरलेन का रोगियों के प्रति सहानुभूति का भाव था। जहाँ डॉक्टर फ्रायड के मौलिक स्वभाव को स्वार्थी और पाशविक मानते थे, डॉक्टर होमरलेन उसे दैविक मानते थे। इसलिए ही उन्हें रोगी के साथ सहानुभूति स्थापित करना आसान होता था। इस सहानुभूति के कारण रोगी खुलकर अपने मन की गाँठें और परेशानियाँ डॉक्टर होमरलेन के समक्ष खोल सकता था। रोगी के मन में अन्तर्द्वन्द्व होने के कारण ही रोग की उपस्थिति होती है। जब उस अंतर्द्वंद्व का अन्त हो जाता है तो रोग का भी अन्त हो जाता है। अन्तर्द्वन्द्व जब तक भीतर ही रहता है तब तक रोग के बाह्य लक्षण नहीं दिखायी देते, और जब वह बाहर आने लगता है तो मानसिक रोग की उपस्थिति होती है। अन्तर्द्वन्द्व का अन्त भीतरी और बाहरी मन में समरसता स्थापित होने से होता है, पर इसके लिए आवश्यक है कि रोगी की गुप्त भावनाएं उसकी चेतना के समक्ष आवें। उन भावनाओं के प्रति न उसकी चेतना सहानुभूति रखती है, न दूसरे लोगों की जब चिकित्सक रोगी की छिपी भावनाओं के प्रति सहानुभूति दर्शाता है तो वे धीरे-धीरे अपने आप बाहर आने लगती हैं। उनके बाहर आने पर उसके चेतन और अचेतन मन में एकता स्थापित होना सरल हो जाता है वास्तव में चिकित्सक के समक्ष अपने गुप्त भाव प्रकाशित करने और उसके द्वारा सहानुभूति से ही रोग का निवारण हो जाता है।

डॉक्टर को रोगी का विश्वासपात्र बनने के लिए उससे केवल बड़े ही प्रेम का व्यवहार करना पड़ता है वरन् अपने आपको भी उसके समक्ष खोलना पड़ता है। उससे कई बार अपने अनुभव भी कहने पड़ते हैं जिससे कि रोगी को आत्मस्वीकृति करने में प्रोत्साहन मिले। यदि किसी व्यक्ति को कोई मानसिक रोग काम-सम्बन्धी दुराचार से उत्पन्न हुआ है तो स्वयं चिकित्सक को अपने दुराचार के एक दो उदाहरण देने पड़ते हैं, जिससे रोगी उसके साथ अपनी आत्मीयता स्थापित कर सके। रोगों का रोग मुक्त होने के लिए डॉक्टर के समक्ष अपने छिपे मनोभावों को प्रकाशित करना आवश्यक नहीं, उसका अपने ही समक्ष अपने भावों का प्रकाशन करना आवश्यक है। रोग के विनाश के लिए आत्मस्वीकृति और आत्मीयता स्थापित होना आवश्यक है। जब मनुष्य अपने भाग्य को ही घृणा की दृष्टि से देखता है, तो वह रोगी बनता है, क्योंकि वह अपने घृणित भावों को दबाता है और उनको स्वीकार नहीं करता, वह अपने दुष्ट कर्म भूलने की चेष्टा करता है। इस तरह उसके रूप की जटिलता बढ़ती है। जब मनुष्य अपने वांछनीय समझे जाने वाले भावों का दमन न करके उन्हें स्वीकार करता है और उनको भी स्वभाविक मान लेता है तो उसकी विक्षिप्तता नष्ट हो जाती है। जो डॉक्टर सभी प्रकार के भावों को स्वाभाविक समझता है वही रोगी के प्रति सहानुभूति का भाव प्रदर्शित कर सकता है। ऐसा ही व्यक्ति रोगी को आरोग्य लाभ कराने में सहायक हो सकता है।

यहाँ डॉक्टर होमरलेन के कुछ प्रयोग उल्लेखनीय हैं। एक बार डॉक्टर होमरलेन के समक्ष एक ऐसी महिला आयी जिसे पेट में घोर पीड़ा थी। यह महिला अपना निवास स्थान नहीं बतलाना चाहती थी। उसका पति स्वयं पेट के रोग का विशेषज्ञ था और उसने अपनी स्त्री की पूरी चिकित्सा की, पर उससे उसका रोग न हटा। इस महिला को यह सूझ आयी कि सम्भवतः मेरे रोग का कोई मानसिक कारण है, अतएव वह डॉक्टर होमरलेन के पास गयी और उसने अपना नाम बदल कर बतलाया और अपने आपको अविवाहित कहा। डॉक्टर होमरलेन ने कुछ दिनों तक इसकी चिकित्सा की, पर कुछ लाभ न हुआ। डॉक्टर होमरलेन के समक्ष यह महिला अपनी सभी बातें प्रकट नहीं करना चाहती थी, अतएव उन्हें रोग का कारण ढूँढ़ना कठिन हो गया। डॉक्टर होमरलेन ने सोचा कि सम्भवतः कोई गुप्त प्रेम उसके रोग का कारण है। इस गुप्त प्रेम को स्वीकार करने के लिए अनेक प्रकार से उन्होंने समाज में प्रचलित रूढ़ियों के दोष दर्शाने प्रारम्भ किए। इस प्रकार वे उसके नैतिक प्रतिबन्ध शिथिल करने की चेष्टा करने लगे। डॉक्टर होमरलेन की इस प्रकार की बातचीत सुनकर वह महिला एकाएक उठकर वहाँ से चली गयी। पीछे उसने फोन-द्वारा सूचित किया कि वह कोई व्यभिचारिणी स्त्री नहीं, वरन् विवाहित स्त्री है और अपना निवास स्थान ठीक-ठीक न बताने का कारण भी उसने डॉक्टर को बता दिया।

अब रोग का पता लगाना सरल हो गया। इस महिला को पेट का रोग एक रोगी की अवस्था देखकर भय से उत्पन्न हो गया था। महिला का विश्वास था कि उसका पति रोग का विशेषज्ञ है, अतएव उसे यह रोग हो ही नहीं सकता। किन्तु उसने एक स्त्री को इसी रोग से अपने ही घर मरते देखा और उसका पति उसे न बचा सका। यह स्थिति देखकर उसके मन में असाधारण भय उत्पन्न हो गया। यही उसके पेट के रोग का कारण था। वास्तव में यह पेट का रोग शारीरिक रोग तथा मानसिक रोग मात्र था।

जो व्यक्ति मानसिक रोग की किसी प्रकार की चिकित्सा नहीं जानता, वह भी अपने प्रेम व्यवहार से रोगी को स्वास्थ्य लाभ करने में सहायक हो सकता है। मानसिक रोगी की इच्छा होती है कि कोई उसकी व्यथा सुने, पर इसे सुनने के लिए कोई तैयार नहीं होता। अतएव उसका आन्तरिक कष्ट बढ़ता ही जाता है। यहाँ हमें ध्यान रखना आवश्यक है कि रोगी अपनी व्यथा के रूप में जो बातें कहता है वे वास्तविक नहीं है। वे वास्तविक स्थिति की संकेत मात्र हैं। अतएव कोई मनोवैज्ञानिक ही पागल व्यक्तियों की गप्प सुनने में रुचि ले सकता है। साधारण मनुष्य उसके विचारों को जैसा का तैसा मानकर उसके साथ किसी प्रकार भी न तो सहानुभूति प्रदर्शित कर सकते हैं और न उसकी कल्याण रुचि दर्शा सकते हैं। सम्भव है कि जो दयनीय अवस्था आज पागल की है, वैसी अवस्था हमारी ही हो जाय। जब हम अपने मन के विषय में कुछ भी नहीं जानते तो ऐसा होना असम्भव नहीं। पागलों के प्रति सहानुभूति का व्यवहार रखने से उनमें कैसा मौलिक परिवर्तन हो जाता है, उसका निम्नलिखित एक उदाहरण है।

एक बार मेरा एक मित्र किसी राजनीतिक अपराध में एक ऐसे जेल में कुछ दिन तक रखा गया, जहाँ पागल आदमी पहले-पहल लाकर रखे जाते थे। वह उन पागलों से स्वच्छन्दता से मिल सकता था, उसने देखा कि बहुत से पागलों में मौलिक सुधार उसके व्यवहार से हो जाता था। एक के पागलपन में तो इतना सुधार हो गया कि जेल के डॉक्टर ने यह प्रमाणित कर दिया कि वह पागल नहीं है। पर इसके कुछ ही समय बाद वह जेल के वार्डन के कठोर व्यवहार के कारण फिर जैसा का तैसा हो गया।

साधारण पागलखानों में भेजने से पागलों में कोई सुधार नहीं होता, अपितु उसकी हालत और खराब हो जाती है। इसका कारण वहाँ का असहानुभूति पूर्ण वातावरण है। पागलों में किसी प्रकार का सुधार करने के लिए जितने परिश्रम की आवश्यकता होती है उतना परिश्रम पागलखाने के अधिकारी नहीं कर सकते। साधारण व्यक्तियों के पागलपन के निवारण में तो सहानुभूति बड़ी ही लाभप्रद होती है। कहा जाता है कि जब हम अपना दुख अपने मित्र के समक्ष प्रकाशित कर देते हैं तो हमारा हृदय हलका हो जाता है। उसी प्रकार यदि हम अपने मन के गुप्त मनोभाव की अपने मित्र के समक्ष प्रकट कर दें तो अपने मानसिक विकारों से मुक्त हो जाएं। मानसिक व्यथा से पीड़ित व्यक्ति से सहानुभूति प्रदर्शित करने से उसकी व्यथा कम हो जाती है तब तक कोई व्यक्ति अपने आपको किसी दूसरे के समक्ष खोलता नहीं तब तक उसकी व्यथा कम नहीं होती। पर संसार में बिरला ही व्यक्ति दूसरों के दुखों का रोना सुनना चाहता है। उसके पास न इसके लिए समय है और न रुचि है। अतएव कोई बिरला ही मनुष्य दूसरे की मानसिक व्यथा कम करने में सहायक होता है।

-’संसार’ से


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