(श्री दौलतराम कटरहा बी. ए.)
राजकुमार सिद्धार्थ प्रातःकाल उपवन में भ्रमण कर रहे थे। थोड़ी देर बाद उन्होंने एक हंस को जमीन पर छटपटा कर गिरते हुए देखा। आतुर होकर उन्होंने उसे उठाकर गले से लगा लिया। उस बेचारे का शरीर बाण लगने से रक्ताक्त हो रहा था। थोड़ी देर बाद उनके भाई देवदत्त के सेवक ने आकर उनसे कहा कि यह हंस कुमार देवदत्त ने गिराया है और वे उसे माँग रहे हैं। बुद्धदेव ने दयार्द्र भाव से हंस की ओर देखते हुए जो उत्तर दिया वह आचार्य शुक्ल की भाषा में इस प्रकार है।
मरत जो खग-अवसि पावत ताहि मारनहार।
जियत है तब वासु तापै नाहिं कछु अधिकार?
दियों मेरे बंधुने बस तासु गति को आर।
रही जो इन मृदुल पच्छन की उठावनिहार॥
सिद्धार्थ ने कहा कि कुछ भी क्यों न हो इस हंस को मैं कुमार देवदत्त को नहीं दे सकता। बात न्यायालय तक गई और कुमार सिद्धार्थ विजयी हुए। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।
संसार में प्रत्येक जीव को जीने का अधिकार है। उसके इस अधिकार की जो रक्षा करता है वही उस स्वामित्व का वास्तविक अधिकारी है।
एक बार डाकुओं से लड़कर दो वीरों ने एक स्त्री को बन्धन -मुक्त किया। उसमें से एक उस स्त्री को अपनी पत्नी बनाना चाहता था और दूसरा उसके प्रति मातृ-भाव रखते हुए जब तक उसकी इच्छा हो तक तक के लिए आश्रय देना चाहता था। बात दूसरे लोगों तक गई और तय हुआ कि पत्नी भाव की अपेक्षा मातृ-भाव रखने वाला ही श्रेष्ठ रक्षक है और वही उसका अधिकारी है। भोग्य-भावना की अपेक्षा पूज्य-भावना रखने वाला ही बड़ा होता है।
सम्पत्ति की ओर भी अनेकों व्यक्तियों का पत्नी जैसा ही रुख होता है अतएव यह उनके पास नहीं ठहरती। भोग्य-भावना के कारण वे पैसे की कद्र नहीं करते। वेतन मिला नहीं कि उसे यहाँ वहाँ उड़ाना शुरू कर दिया और परिणाम यह होता है कि उन्हें हमेशा पैसे की तकलीफ ही बनी रहती है। किन्तु जो व्यक्ति लक्ष्मी की माता के समान हिफाजत करते हैं लक्ष्मी उनके घर से नहीं उठती।
भारतवर्ष में अनेकों धर्मों के लोग रहते हैं। भारतवर्ष में रहने का अधिकार समान रूप से सबको हो सकता है किंतु सच्चा अधिकार उसी को है जो भारत को माता मानता है एवं भारतवर्ष को अपनी मातृ-भूमि मानता है।
भूमि उसकी होती है जो मातृभाव से उसकी रक्षा करते हुए माता को रक्त दान दे सकता है। जो भी भारत-भू को अपनी मातृ-भूमि, पितृ-भूमि और पुण्य-भूमि समझेगा वही उसका वास्तविक अधिकारी होगा। उसे अपना क्रीड़ा-स्थल समझने वाले का अधिकार तो पाशविक शक्ति पर ही निर्भर है उच्च मनोभावनाओं पर नहीं, अतः वह उसका सच्चा अधिकारी नहीं। अधिकारों के लिये लड़ना वृथा है। महात्मा ईसा ने अपने शिष्यों से कहा कि तुमसे में जो सबसे बड़ा बनना चाहे वह सबका सेवक बने। अधिकारों को प्राप्त करने का उपाय यही है कि पहिले सेवा करो। जिस वस्तु के बदले में कर्तव्य न करना पड़े उसकी प्राप्ति के लिए तो सभी मुँह फाड़ सकते हैं।
संसार में अभी तक बहुत से अधिकार जन्म-सिद्ध और समय-सिद्ध होते आ रहे हैं जन्म ही अभी तक अधिकारों का निर्णय करता रहा है किंतु सर हेनरी मैन जैसे उद्भट कानून शास्त्री ने वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध ही कर दिया है कि मानव समाज को अधिकारों का मनुष्य-मनुष्य के संबंधों का आधार क्रमशः पद (Status) से समझौता (contract) ही बनता जा रहा है। मालिक और नौकर के अधिकारों और कर्त्तव्यों का निर्णय अभी तक उनके पद से होता रहा है किंतु आज की बदली हुई परिस्थिति में उस निर्णय का आधार पारस्परिक समझौता ही है जिसमें मालिकों को, वह मालिक है इसलिए अधिकार नहीं मिलते बल्कि इसलिए मिलते हैं कि अधिकारों के बदले में वह उचित-मात्रा में सेवा भी करता है। आज के युग में तो देने पर ही कुछ मिल सकता है।
हमें जान लेना चाहिए कि संसार में एक वर्गहीन समाज का निर्णय होने जा रहा है। जिसमें पंडित, योद्धा, व्यापारी और परिचारक आदि आवश्यक प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता के ऊपर अपना वर्ग स्वयं ही निर्धारित करने की अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता रहेगी जिसमें अधिकारों की दृष्टि से स्त्री और पुरुष में कोई भेद न रहेगा और जन्म के बल पर कोई व्यक्ति अन्य से अधिक अधिकारों का उपभोग न कर सकेगा। सौभाग्य से हमारे देश की विधान सभा के अंतर्गत बुनियादी अधिकार समिति ने इन अधिकारों को स्वीकार कर लिया है। हमें अपने आपको इस अपरिहार्य स्थिति के अनुकूल स्वेच्छा पूर्वक ही ढाल लेने की दूरदर्शिता दिखानी चाहिए क्योंकि रो-पीटकर और लड़-झगड़कर अन्त में विवशता के कारण किसी अपरिहार्य स्थिति को अपनाने की अपेक्षा पहले से ही स्वेच्छा तथा प्रसन्नता पूर्वक उसे अपना लेने में अधिक सौंदर्य है।
हिंदुओं के सम्मिलित परिवारों में आज भी पद द्वारा ही अधिकार प्राप्त होते हैं। सास-बहू से सेवा कराने की अधिकारिणी है। वह चूंकि सास है इसी आधार पर वह बहू पर अपना अधिकार कायम रखना चाहती है और वह इस प्राचीनतम पद-पद्धति पर अधिकार प्राप्त करने की प्रथा को बनाए रखने के लिए अन्तिम लड़ाई लड़ रही है। किंतु वह तनिक उदारता और विवेक से काम ले तो सारा झगड़ा ही मिट जावे। सास यदि बहू की प्रेमपूर्वक रक्षा करे तो निस्संदेह उसे उस पर शासन करने का प्रदत्त अधिकार प्राप्त हो सकता है। रामचरित मानस उठाकर देखिये भगवती कौशल्या महारानी सीता पर कितना स्नेह रखती है। राम से वे कहती हैं कि सीता तुम्हारे साथ वन जाना चाहती है पर वह इतनी सुकुमार है तथा मैं उसे इतना प्यार करती हूँ कि उससे दीपक की बत्ती भी डालने के लिये नहीं कहती। सीता सुकोमल शैया से उठकर गोद और हिंडोला में ही स्थान पाती रही है उसने कठोर भूमि पर पैर नहीं रखा। यदि हमारी माताएं अपनी बहुओं से इस तरह प्रेम करने लगें तो वे अपने दीर्घकालीन अनुभव के बल पर अवश्य ही उसकी उचित सहायता और रक्षा कर सकेंगी और उन्हें पद के अनुरूप ही उचित अधिकार अपनी उन सेवाओं के बदले में प्राप्त होगा।
चीन में आज भी सास को बहू पर बहुत से अधिकार प्राप्त हैं। वह चाहे तो बहू को आँगन में घंटों घुटनों के बल खड़ा रखे और चाहे तो उसकी जीभ में सुई तक चुभो दे। वहाँ पर पुत्र की स्थिति भी हिंदू-पुत्र की स्थिति से अच्छी नहीं हैं। कनफ्यूशियशिज्म के आधार पर बना हुआ वहाँ का समाज-संगठन समाज-परक है व्यक्ति-परक नहीं अतएव उसके खिलाफ आज सारा चीन बगावत करने जा रहा है। प्राचीन रोम में भी पिता को पुत्र के जीवन और संपत्ति पर पूर्ण अधिकार होता था यह सब इसलिए था कि उस समय समाज में पद को विशेष मान्यता प्राप्त थी।
राजा और प्रजा तथा पिता और पुत्र के अधिकारों और कर्तव्यों का निर्णय पहले पद के ही आधार पर होता था। किंतु आज पिता को पुत्र पर शासन करने का अधिकार तथाकथित समझौते पर ही निर्भर है क्योंकि पिता-पुत्र का पालन पोषण तथा रक्षा कर और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर समझौते की शर्तों को पूरा करता है। कर्त्तव्य के बल पर ही पिता को पुत्र पर अधिकार प्राप्त हैं। आज की परिस्थिति में तो दंड देने का भी अधिकार उसी को है जो प्रेम और सेवा करता होवे। राजा के दैवी अधिकारों का आज कोई मूल्य नहीं है। राजा यदि शासन करने का अधिकार प्राप्त करना चाहता है तो उसे राम के प्रजा-पालन का आदर्श ग्रहण करना पड़ेगा एवं प्रजा की रक्षा और उसके सूत्रों की वृद्धि करनी पड़ेगी। राज्य-कर्मचारी भी इसी सिद्धान्त के आधार पर पहिले हमारे सेवक हैं बाद में शासक। यदि वे केवल हमें दण्ड देना ही जानें, हमारा दमन ही करें, तो यह निश्चय ही अन्याय है।
आधुनिकी युग में स्त्री-पुरुष से समानाधिकार की माँग करती है। किन्तु समानाधिकार का अर्थ हर बात में पुरुष की बराबरी प्राप्त करना नहीं हो सकता। समानाधिकार का अर्थ होता है अपने कर्तव्य और सेवाओं के अनुरूप ही अधिकारों की प्राप्ति। इस दृष्टिकोण से भी देखते हुए हम समझते हैं कि स्त्री को आज पर्याप्त अधिकार प्राप्त नहीं हैं। हमें चाहिये कि हम पद द्वारा अधिकार प्राप्त करने की बर्बर-युग की प्रवृत्ति को भूलकर अपनी सेवा-सहायता के बल पर ही स्त्री से अधिकार लें। मनु के अनुसार पति को पत्नी पर वही अधिकार है जो कि पिता को पुत्री पर। अधिकारों के लिए पत्नी पुत्रीवत् है किंतु आज के जमाने में पुरुष जाति इस अधिकार की रक्षा तभी कर सकती है जबकि वह भी पत्नी के लिए पिता तुल्य होवे। भगवान राम को ही लीजिए। लक्ष्मण पर तो वे पुत्रवत् स्नेह रखते ही थे किंतु उसी भाव से वे भगवती सीता की रक्षा करते थे। भगवान राम, लक्ष्मण और सीता दोनों की उसी प्रकार रक्षा करते थे जिस प्रकार के पलक नेत्र के गोलकों की रक्षा करते हैं। वात्सल्य-भाव केवल सन्तान के प्रति ही हो सकता है अतएव राम का सीता के प्रति वात्सल्य-भाव अवश्य ही अद्भुत आदर्श एवं अनुकरणीय है।