तरकारियाँ हमारी मित्र हैं।

October 1947

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(डॉक्टर युगलकिशोर चौधरी अग्रवाल)

दुर्भाग्य से हमारे देश के लोग अभी इस बात को भली-भाँति अनुभव नहीं कर रहे हैं कि आरोग्य प्राप्ति व दीर्घजीवन के लिए तरकारियों की कितनी अधिक आवश्यकता है और यह कि वे कैसी महत्वपूर्ण उपयोगी खुराक हैं- इसीलिए उनका उपयोग भी अधिक न होकर उन्हें एक साधारण खुराक समझा जाता है। अफसोस तो इस बात का है कि लोग उन्हें बहुत अधिक उबाल पकाकर पानी फेंक देते हैं, और फिर अनेक प्रकार के हानिकारक मसाले मिलाकर खाते हैं।

कच्ची हरी तरकारियों के पत्ते और डंठलों में अत्यन्त रोग नाशक तथा पोषक तत्व होते हैं और इस लिए उन्हें बतौर शाक के न खाया जाकर भोजन का एक प्रमुख भाग समझ कर खाना चाहिए। उनका सलाद बनाकर, रस निकालकर अथवा सुखा कर भी इच्छा उपयोग हो सकता है।

जिन लोगों के दाँत हैं, वे तो अच्छी तरह से गाजर, मूली, शलजम, सलाद, पत्ता गोभी, गाँठ गोभी, पालक, अथवा बथुआ घीया, टिंडे, परमल आदि तरकारियों को कच्ची खा सकते हैं और उनसे पूर्ण लाभ उठा सकते हैं किन्तु कारोबारी लोग, या वे जिनके दाँत कमजोर हैं, तरकारियों का रस चूस-चूस कर कच्चा पीकर पूरा फायदा उठा सकते हैं। ठोस तरकारियाँ तो भली-भाँति नहीं चबाई जा सकती किन्तु हरी सब्जियों का बचाया हुआ रस अत्यन्त हितकारी, गुणदायक, रोग नाशक तथा शक्ति व बल वर्द्धक सिद्ध होगा।

रक्त को शुद्ध लाल व विकार रहित रखने लिए लोहे (Iron) की बड़ी भारी आवश्यकता होती है इसलिए हमें काफी मात्रा में लोह युक्त तरकारियाँ खानी चाहिए।

प्राचीन गौरव प्राप्त करने के लिये

आओ, अपनी कमजोरियों पर कुल्हाड़ा चलावें।

हिन्दू जाति इतिहास में अपनी एक विशेषता रखती है। पुरातत्व विज्ञान की जो शोधें हुई हैं उनसे सिद्ध है कि मानव विकास के आरंभ काल में भारतवर्ष के निवासियों ने ही प्रगति के पथ पर तेजी से कदम उठाये थे। संसार की सब से प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद हैं। जब तक दुनिया के अन्य भागों में लिखना-पढ़ना तो दूर बोलने योग्य भाषा का भी प्रचलन न हुआ था, तब भारत में ऋग्वेद जैसा, ज्ञान भण्डार अवतीर्ण हो चुका था। अध्यात्म, धर्म, स्वास्थ्य, शिल्प, कला, संगीत, भाषा, काव्य, रसायन, कृषि, व्यापार, पशुपालन, अस्त्र, शस्त्र, युद्ध, शासन, भूगोल, खगोल आदि का ज्ञान इसी जाति ने आविष्कृत किया और उसे संसार भर में बाँटा। आज मनुष्य जाति के पास बहुत साधन हैं, उनकी सहायता से नित्य नये वैज्ञानिक आविष्कार करना उतना कठिन नहीं हैं जितना कि अति प्राचीन काल में जब कि साधनों का बिलकुल अभाव था छोटा-मोटा आविष्कार करना भी कठिन है। अमेरिका की विज्ञान परिषद् के अध्यक्ष प्रोफेसर हार्बल ने ठीक ही कहा है कि सृष्टि के आदि में जिसने अग्नि जलाने, उसे सुरक्षित रखने और उपयोग में लाने का आविष्कार किया उसका मस्तिष्क आज के परमाणु अन्वेषक वैज्ञानिकों की अपेक्षा अधिक सक्षम रहा होगा।

हिन्दू जाति में अपनी एक दैवी विशेषता है जिसके कारण उसने सृष्टि के आरंभ से ही अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। अपने गुणों के कारण युगों तक उसने समस्त भूमण्डल पर एकछत्र चक्रवर्ती राज्य किया है। इस शासन के लिए उसे आज के साम्राज्य-वादियों की नीति अपनाने की व तो आवश्यकता थी न इच्छा। जो अतुलित ज्ञान भण्डार उसके पास था उसे वितरण करने के लिए यहाँ के नर रत्न सुदूर देशों को परमार्थ भावना से जाते थे। वे जहाँ जाते थे वहाँ की जनता उन्हें देवदूत के रूप में देखती थी और अपनी उन्नति, सुरक्षा, तथा सुख शान्ति के लिए सर्वोच्च सम्मान के साथ अपने यहाँ रख लेती थी। यही आर्य साम्राज्य था लूट-खसोट एवं शोषण जैसा कोई प्रश्न ही उनके सामने न होता था। लोकसेवा ही उस शासन की नींव होती थी। राम ने रावण का संहार किया पर सोने के लंका में से एक लोहे की कील भी वे अयोध्या न लाये। लंका की राज्य लक्ष्मी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा और उसे उन्होंने बदले हुए शासक विभीषण को ज्यों की त्यों सौंप दी। ऐसा परमार्थ एवं लोकहित से प्रेरित आर्य साम्राज्य समस्त भूमंडल तक फैला हुआ था।

भारतवर्ष को संसार के निवासी स्वर्ग कहते थे। इस स्वर्ग का शासक ‘इन्द्र’ कहलाता था। यहाँ के निवासी सुर या देवता कहलाते थे। तेतीस कोटि देवताओं का तात्पर्य यहाँ के निवासी तेतीस करोड़ देवोपम सभ्य, सुसंस्कृत, सर्वगुण-सम्पन्न मनुष्यों से है। यह देवता संसार भर में स्वर्गीय दूत की तरह सम्मानित होते थे, पूजे जाते थे। ऐरावत हाथी, कामधेनु गौयें, अमृत सी औषधियाँ, चित्त नन्दन वन उपवन, नृत्य संगीत, पारंगत अप्सराएं, गंधर्व, किन्नर, धनाधिप कुबेर, विद्या के भण्डार, सुरगुरु बृहस्पति, विज्ञानाचार्य शुक्र इसी लोक में थे। वज्र (बिजली) के अस्त्र-शस्त्र इन सुरों के ही पास थे। इस प्रकार एक समय यह भारतभूमि स्वर्ग भूमि कहलाती थी। उसका गौरव सर्वोपरि था।

इस गौरव का कारण थे आर्यों के जातीय गुण। अपनी विशेषताओं के कारण उनने सम्पन्नता प्राप्त की थी। जगद्गुरु और चक्रवर्ती शासक के रूप में उनने संसार की आत्मिक और भौतिक नेतृत्व करने का सम्मान प्राप्त किया और लक्ष्मी, सरस्वती तथा दुर्गा के वरद पुत्र कहलाए। धन, विद्या और पराक्रम में उनका साथी दूसरा न था। अपने इन गुणों के कारण इस देश का प्रत्येक निवासी स्वर्गीय सुखों को भोगता हुआ जीवन व्यतीत करता था। आज हमारी वह दशा नहीं रही, तो भी पुरातत्व विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, नृविज्ञान, एवं इतिहास के पंडित एक स्वर से यह बता रहे हैं कि सभ्यता का आदि स्त्रोत भारत से ही प्रवाहित हुआ। निखिल भूमंडल की प्रजा को आर्य जाति ने ही संस्कृति एवं सभ्यता का पाठ पढ़ाया, जीवनोपयोगी अनेकों विज्ञानों की शिक्षा देकर, उन्नति, समृद्धि और सुख शांति के पथ पर अग्रसर किया।

आज भी हमारे पूर्वजों के यश एवं गौरव की धवल ध्वजा फहरा रही है। जैसे नर रत्न इस वीर भूमि ने प्रसव किये, वैसे अन्यान्य नहीं दिखाई पड़ते। नाम गिनाने का अवसर नहीं, हमारे इतिहास का प्रत्येक पृष्ठ एक से बढ़कर एक, अनुपम नर रत्नों के गौरव से जगमगा रहा है। हमारी प्राचीन गौरव-गरिमा आज एक चुनौती के समान हमारे सामने खड़ी है।

पर आज हमने उस नेतृत्व को गंवा दिया। उन अपनी जातीय विशेषताओं को खो बैठे जिनके कारण देव कहलाते थे, देवदूत की तरह सर्वत्र आदर पाते थे। इस संसार में ईश्वरीय विधान ऐसा ही है कि जो जिस वस्तु का पात्र है वह उसे मिलता है। पात्रता एक ऐसी अविचल कसौटी है जिस पर कसकर लोगों को वह वस्तुएं परमात्मा दिया करता है, जिसके वे अधिकारी हैं। रोगी को मोंठ का पानी पीते, पहलवानों को हलुआ रबड़ी खाते हुए हम नित्य देखते हैं। निर्बुद्धियों को धे की तरह लदते और बुद्धिमानों को शासन करते हुए देखा जाता है, सद्गुणियों के प्रशंसा और दुष्ट दुराचारियों की निंदा सुनाई पड़ती है, ‘चींटी को कन भर और हाथी को मन भर’ भोजन नित्य मिल जाता है। निर्बल पिसते और सबल मौज उड़ाते चारों ओर दीखते हैं। जिसके पास जितना शरीर बल, बुद्धि बल, जन बल, चातुर्य बल, आत्म बल है वह उसी अनुपात से सुसम्पन्न बनता है। आज भी योरोप अमेरिका के निवासी स्वस्थ, दीर्घजीवी, धनी, विद्वान एवं साधन सम्पन्न हैं, उनकी तुलना में हम भारत वासी अनेक दृष्टियों से पीछे हैं। अविद्या, अज्ञान, अस्वस्थता, गरीबी, बेकारी से हम लोग परेशान हैं। नानाविधि शोषण, उत्पीड़न, बन्धन, अपमान सहते-सहते तो हजार वर्ष होने को आये। आज स्वाधीनता मिल रही है तो उसका बोझ उठाने के लिए कंधों की बलिष्ठता और पचाने के लिए जठराग्नि उत्साहवर्धक जवाब नहीं दे रही है। नीतिकारों का वचन है कि वैभव को सुरक्षित रखने की क्षमता जिसमें नहीं है उसके पास लक्ष्मी का अधिक समय ठहरना कठिन है।

अपने प्राचीन गौरव को खोकर पिछले एक हजार वर्ष में मुट्ठी भर विदेशियों और विधर्मियों द्वारा नाना प्रकार से पददलित और पीड़ित होना पड़ा, इसका कारण इन आक्रमणकारियों की बलिष्ठता या परिस्थितियों की विलक्षणता नहीं वरन् हमारी भीतरी दुर्बलता थी जिसने अपने आकर्षण से अपने सिर पर आपदाओं की काली घटाएं घुमड़ाइ। यही कमजोरियाँ हैं- जो अल्पसंख्यक कहे जाने वालों से हमें जगह-जगह हमें पिटवाती हैं। अन्यथा यदि हमारा जातीय शरीर स्वस्थ रहा होता तो उसकी समर्थता समझते और आक्रमणकारी बनने की अपेक्षा कृपा पात्र बनने में अधिक लाभ देखते। पर आज दूसरी ही स्थिति है बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों को प्रसन्न करने के लिए सिर के बल चलना पड़ रहा है और धरती पर नाक रगड़नी पड़ रही है, फिर भी कुछ प्रयोजन सिद्ध होता नहीं दीखता। परिस्थिति संभलने में नहीं आती। इसमें दोष अल्पसंख्यकों का नहीं है, उन पर कोई आरोप लगाना भी व्यर्थ है, यह तो सृष्टि का अनादि नियम है। बेचारी मधु मक्खियों को मार कर उनका छत्ता लूटने का लोभ भला कौन त्याग सकता है? मधुमक्खियों के नाना विधि प्रस्ताव, भाषण, वक्तव्य, लेख, अपील, समझौते उनके प्राणों की, घर की मधु की रक्षा नहीं कर सकते। किसी एक मधु लोभी को मक्खियाँ किसी प्रकार मना भी लें तो इसकी क्या गारंटी है कि अन्य कोई मधु लोभी न आ धमकेगा?

इस बात में दो मत नहीं हो सकते कि हमने अपने प्राचीन गौरव को अपनी निर्बलताओं के कारण खोया और एक लम्बे समय से वैसी ही यातनाएं भुगतते चले आ रहे हैं जैसी कि जर्जर शरीर, रोग ग्रस्त, शैया सेवी, असहाय, अभागों को भुगतनी पड़ती है। आज भी वह कमजोरी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। फलस्वरूप पराधीनता के बन्धन शिथिल होते ही- गृह-युद्ध की लपटें उठने लगी हैं। इसमें कितने ही फूल से कोमल बालक-बालिकायें, बहनें-बेटियाँ एवं निरपराध व्यक्ति जलभुन गये, लुट-मिट गये और न जाने अभी कितनी यातनाएं सहनी शेष हैं। यह हत्यारी कमजोरी सर्वभक्षी डायन की तरह हमारे पीछे मुंह फाड़ कर, दाँत निकाल कर विकराल रूप से दौड़ी आ रही है, भागने से, उसकी ओर से आंखें बन्द करने से, काम न चलेगा। यदि अपने प्राण बचाने हैं तो इससे लड़ना होगा, परास्त करना होगा अन्यथा निश्चित समझिए कल नहीं तो परसों वह हमारा नाम-निशान मिटाकर छोड़ेगी।

पिछले पचास वर्षों में राष्ट्रीय महासभा कांग्रेस ने राजनैतिक शक्ति संचार का प्रयत्न किया है। उस प्रयत्न से फलस्वरूप सर्वसाधारण में से हीनता और भय की भावना किसी कदर कम हुई हैं राजनैतिक क्षेत्र में कितने ही व्यक्तियों ने प्रशंसनीय त्याग भी किये हैं। इस थोड़ी सी शक्ति का ही यह परिणाम हुआ कि विदेशी शासकों को यह दीख गया कि जिस शिला के ऊपर हम बैठे थे वह डगमगा रही है। इसलिए उनने औंधे मुँह गिर पड़ने से पूर्ण ही अपना स्थान खाली कर देने की दूरदर्शिता से काम लिया है और शासन सत्ता हमारे हाथ में आ गई है परन्तु इस परिवर्तन से वह अन्दाज न लगा लेना चाहिये कि हमने उचित जातीय बल का प्राप्त कर लिया है, अभी उसमें भारी कमी है। उस कमी के कारण ही स्वर्ग से गिरा अमर फल आकाश में ही लटक गया वाली कहावत के अनुसार स्वाधीनता से प्राप्त होने वाले सुखों से हमें वंचित ही रहना पड़ रहा है। अब चेतना का युग आरंभ हो रहा है। अब चेतना का युग आरंभ हो रहा है, हमारे भाग्य ने करवट ली है इस संक्रान्ति बेला में आइए विचार करें कि-हम क्या थे? क्या से क्या हो गये? कितने दीर्घकाल तक अंधकार के गहरे गर्त में पड़े रहे? किन नगण्य शक्तियों के तुच्छ अंकुश से हमारा जातीय ऐरावत बन्दर की तरह नाचता रहा और आज भी हमारे पास अपार साधन होते हुए भी ऐसी हीन दशा का अनुभव करना पड़ रहा है? भूलों से शिक्षा ग्रहण करते हुए अज्ञान की निद्रा से उठना होगा और पुनः अपने उसी प्राचीन महान गौरव को प्राप्त करना होगा। यह सुनिश्चित है कि हिन्दू जाति में एक दैवी विशेषता है। संसार में इतिहास में अनेकों जातियों का उद्भव हुआ और वे नष्ट हो गई उनका कहीं अता-पता भी नहीं है, पर यह हिन्दू जाति ही है जिसने बड़े बुरे और भले समय देखे हैं पर अभी तक जीवित है। पराधीन और पददलित होते हुए भी उसकी कोख से गाँधी और जवाहर जैसे नर रत्न पैदा होते हैं। हम महान थे आज गिर गये हैं तो भी हमारा भविष्य महान है।-


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