स्वराज्य बनाम सुराज्य

October 1947

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(माननीय शिक्षा-मंत्री श्री सम्पूर्णानन्दजी)

हम आशा करते हैं कि भारत में वास्तविक सुराज होगा, भारतीय संस्कृति की जड़ उस विचारधारा से परिपुष्ट होती है जिसका उद्गम सिन्धु और सरस्वती के किनारे आज से सहस्रों वर्ष पहिले ऋषियों के तपोवनों में हुआ था। जब-जब भारत उस उपदेश माला की ओर से पराँगमुख हुआ है तभी उसका पतन हुआ है। भारतीय संस्कृति का एकमात्र मूल-धर्म है। धर्म का अर्थ मजहब नहीं है, अनीश्वरवादी साँख्य, बौद्ध और जैन मतावलंबी भी ईश्वरवादी नैयायिक के समान ही धर्म के उपासक हैं।

आज डर लगता है कि हम धर्म को कहीं भुला न दें। स्वराज की सेना के अधिकार सैनिक हिंदू थे। स्वभावतः आज उनमें विजयोल्लास है। यह बुरा नहीं है, परन्तु उल्लास की सार्थकता इसमें है कि हिंदू यह समझे कि स्वराज को सुराज बनाने का दायित्व उस पर है। वह इस गुरु भार को तभी उठा सकेगा जब अपने स्व में अपनी धर्म मूलक संस्कृति में स्थिर होगा। यदि वह अपने को भूला तो देश को ले डूबेगा।

हमारे पड़ोस में पाकिस्तान बना है। हम नहीं जानते वहाँ अल्पसंख्यकों के साथ कैसा बर्ताव होगा। अब तक का अनुभव अच्छा नहीं है। इसीलिए कुछ लोग यह सीख दे रहे हैं कि युक्त प्रान्त जैसे प्रदेशों में जहाँ हिन्दुओं का बहुमत है मुसलमानों को दबाया जाय पाकिस्तान के पापों का प्रतिशोध लिया जाय। लोगों की बुद्धि को विकृत करने में उनको थोड़ी सी सफलता भी हुई है।

यह भयानक अवस्था है, चिन्ता की बात है। जिस दिन हिंदू इस मार्ग पर चलेगा वह हिंदू न रह जायगा। मान लिया जाय कि पाकिस्तान में अन्याय और अत्याचार होता है पर उसका बदला वहाँ कैसे लिया जाय? सिंध में किसी हिंदु का घर जल गया तो क्या यहाँ किसी मुसलमान का घर जलाने से वह बन जायगा? यहाँ मुसलमान को मारने से वहाँ का मरा हिंदू कैसे जी जायगा? हिंदू को तो बताया गया है कि उसे ‘मातृवत् पर दारेषु’ व्यवहार करना चाहिये। परायी स्त्रियों को माँ, बहिन, बेटी समझा चाहिये प्रताप और शिवा ने विजय और पराजय में इस नीति को नहीं छोड़ा। अब क्या हिंदू बदले के भाव से मुसलमान स्त्रियों पर बलात्कार करेगा? किसी ने मन्दिर तोड़ा तो उसका दुःख हम सबको होगा परन्तु यहाँ की मस्जिद तोड़ने से पंजाब का भग्न शिवालय कैसे फिर खड़ा होगा? दूसरे लोगों को चाहे जो सिखाया गया हो परन्तु हम तो यह कहते आये हैं:-

रुचीणाँ वैचित्र्यादृजुकुटिल नाना पथजुषाम्।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

(जिस प्रकार सभी नदियां सीधे, टेढ़े मार्गों से घूम कर समुद्र में मिलती हैं, इसी प्रकार हे भगवान् अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-2 उपासना करते हुए भी सब मनुष्य तुमको ही प्राप्त होते हैं।)

चोर के साथ चोर, मूर्ख के साथ मूर्ख, शराबी के साथ शराबी, बनने से तो काम नहीं चलेगा। हम अपने को गिरा देंगे पर उसको न उठा सकेंगे।

हिंदुओं की संख्या हमारे यहाँ बहुत बड़ी है। वह सौ में छियासी है। युक्त प्रान्त के अल्पसंख्यक उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। बल में, विद्या में, बुद्धि में, शौर्य में, तप में, यहाँ का हिन्दू किसी दूसरे से पीछे नहीं हैं। इसी से यह प्रदेश प्राचीनकाल से आज तक संस्कृति में अग्रणी रहा है और परार्थ साधन तथा लोकहित के लिए आत्मबलि का मार्ग दिखाता रहा है। आज विजय की बेला में उसे बहकना न चाहिये। वीर और बलवान को क्षमा ही शोभा देती है। जो संख्या में हम से कम हैं, हमारे प्रान्त में बसे हैं, हमारे आश्रित हैं, उनको अभयदान देना ही हमारी महत्ता के अनुरूप है। यदि हमको अपने ऊपर निष्ठा है, अपनी परम्परा पर श्रद्धा है, तो हमको यह विश्वास भी होना ही चाहिये कि इस प्रदेश की संस्कृति और सभ्यता पर हमारी अमिट छाप होगी।

मैं यह बातें हिंदू के नाते हिंदुओं से कहता हूँ। इस भूभाग की स्वाधीनता को अक्षुण्ण रखना, यहाँ के स्वराज्य को सुराज बनाना, इस प्रदेश को सभी वर्गों, सम्प्रदायों, व्यक्तियों की सेवाओं से अधिकतम लाभ उठाने का अवसर देना, हिंदुओं की सद्बुद्धि पर निर्भर है। जहाँ तक दूसरे लोगों की बात है, मैं आशा करता हूँ कि वह भी सद्बुद्धि से काम लेंगे। भारतीय ईसाई से अधिक नहीं कहना है क्योंकि उसने भारतीय संस्कृति को नहीं छोड़ा हैं। हमारे मुसलमान भाइयों को गंभीरता से विचार करना चाहिये, चीन का मुसलमान चीनी रहता है, ईरान का मुसलमान ईरानी रहता है, यूरोपियन मुसलमान यूरोपियन रहता है, सैकड़ों वर्षों से जावा निवासी मुसलमान हो गये हैं परन्तु उनमें आज भी सुकर्ण, सुधर्म जैसे नाम मिलते हैं। इन देशों के मुसलमान अपना रहन-सहन नहीं बदलते, नाम नहीं बदलते, अपने पूर्वजों को नहीं भूलते। भारतीय मुसलमान का अब तक का ढंग दूसरा था। वह अपने हिंदू पड़ोसियों से इतना दूर जा पड़ा था कि अपने बाप-दादों को भी पराया मानता था। पारसी रुस्तम, नौशेरवाँ, कैखुसरो, जमशेद को अपना समझता था, अपने पूर्वज भीम, राम, कृष्ण, अर्जुन, युधिष्ठिर, अशोक, चन्द्रगुप्त से कोई संबंध न था। भारतीय व्यास, कणाद, गौतम की अपेक्षा यूनानी प्लेटो, अरस्तु, पाइथागोरस, को अपने अधिक समीप मानता था। यह बात अब बंद होनी-चाहिये। मुसलमान चाहे जिसकी, जिस भाषा में, जैसे उपासना करे, चाहे जिन स्थानों को तीर्थ माने, चाहे जिन महात्माओं को पूज्य माने पर, अब उसे भारतीय बनकर रहना होगा, भारतीय परम्परा उसकी परम्परा होगी, भारतीय रहन-सहन उसका रहन-सहन होगा, भारतीय संस्कृति उसकी संस्कृति होगी, तभी वह यहाँ समान नागरिकता का अधिकारी हो सकता है।

हमको बहुत सी पुरानी बातें भूलनी हैं। आज से पहिले किसने हमारा विरोध किया था, इसका रोना कब तक रोया जायगा। इन दरिद्र, दुर्बल, निरक्षर प्राणियों को फिर से मनुष्य बनाना साधारण काम नहीं है। इस बोझ को कोई एक दल नहीं उठा सकता। इस काम में हम सबकी आवश्यकता है, सब के लिए जगह है।

एक बात हमारे सामने होनी चाहिये। जैसा मैंने पहले कहा है, भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र-धर्म है। पृथ्वी पर जो संघर्ष मचा हुआ है उसका एक महाकारण यह है कि आज सब अपने अधिकारों पर ही दृष्टि रखते हैं। यह भूल जाता है कि अधिकार का दूसरा पहलू कर्त्तव्य है, जो एक का अधिकार है वह दूसरे का कर्त्तव्य है। यदि सब अपने कर्त्तव्यों पर ध्यान दें तो सबके अधिकार आप ही प्राप्त हो जायं। अधिकार का भूखा कहता हैं, ‘दूसरों से मुझे अमुक-अमुक बातें प्राप्त होनी चाहिये।’ कर्त्तव्य का उपासक कहता है, ‘दूसरों को मुझसे अमुक-2 बातें प्राप्त होनी चाहिए।’ पहला भाव कटुता, दूसरा सौहार्द्र फैलाता है। यदि हम यह समझ लें कि सबका सब पर ऋण है, सबका सबके कल्याण से संबंध हैं, मुझे अपना ऋण चुकाना ही है, तो सभी अनायास श्रेय के भागी हों। इसी का नाम धर्म है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के लिए इससे अच्छा कोई मार्ग नहीं हो सकता।

भारत का नागरिक हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या चाहे जो हो, उसको प्रत्येक काम धर्मबुद्धि से करना चाहिये। तभी भारत फिर अपने पूर्व गौरव को प्राप्त होगा और उसकी स्वाधीनता सार्थक होगी।


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