(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)
पिछले दिनों हम एक सार्वजनिक पाठशाला में गये। वहाँ हमने कक्षाओं की दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखे हुए देखे। कई विद्यार्थियों से उनके विषय में बातचीत की, तो ज्ञात हुआ कि उन वाक्यों का, उन आदर्शों का एक हल्का एवं ऊपरी प्रभाव तो बालकों पर जरूर पड़ा है, किन्तु वह उनके अंतर्गत तथा मानसिक संस्थान का अंग न बन सका। इसी प्रकार हम अनेक आदर्शवादी धर्मरत साधकों के जीवन में देखते हैं कि वे उत्तमोत्तम धर्म ग्रन्थ अपने पास रखते हैं, ऊँची किस्म की नारेबाजी लगाते हैं, किन्तु उनके चरित्र में उन धर्म ग्रन्थों का केवल एक हल्का तथा ऊपरी प्रभाव ही दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार के ऊपरी एवं जीवन से रहित ‘विचार पूजा’ उनमें आती हैं।
विचार-पूजी अन्य आदतों के समान ही एक आदत मात्र है। इसे बुरी आदतों में तो नहीं मान सकते किन्तु ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में कुछ अधिक उन्नति नहीं कर पाता। उसकी प्रवृत्ति तो उत्तम और दिव्य कार्यों की ओर है, वह चाहता है कि उन उपदेशों को जीवन में उतारे किन्तु अन्य बीजों के संग्रह की भाँति वह कुछ अच्छे ग्रन्थ, आदर्श वाक्य ही संग्रह कर पाता है। स्थायी रूप से उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता। वह नहीं समझ पाता कि संग्रह करने की वृत्ति पाना एक बात है, उन उच्चादर्शों को जीवन में उतार कर स्थायी लाभ करना दूसरी बात।
विचार-पूजा वाले व्यक्ति के मानसिक संस्थान का निरीक्षण कीजिए उसमें सद्प्रवृत्ति है किन्तु उन उद्देश्यों में प्रेरणा नहीं है। निष्ठा एवं आत्म विश्वास की भारी न्यूनता है। यह प्रशस्त पथ का अनुगामी तो बनना चाहता है किन्तु जीवन में उस आदर्श को पालने की साधना नहीं करना चाहता। वह केवल उन विचारों, आदर्शों को तोते की भाँति रट लेना चाहता है, आत्मविश्वास को उनसे सम्बन्धित नहीं करना चाहता। उसमें आत्म बल नहीं। यदि है, तो बहुत कम। जिसका निश्चय दृढ़ हो, वही आत्मबली है। उसका निश्चय संसार को डिगा सकता है। विचार-पूजक का निश्चय क्षीण होता है। उसमें इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि जिन्दगी पालन के लिए साधना कर सके।
बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन को थोड़े से सरल नियमानुसार बनाता है। वह बहुत समझ-बूझ के पश्चात् आदर्शों का निर्णय करता है। एक बार निर्णय करने के पश्चात-वह साधनों से डिगता नहीं, वाद-विवाद नहीं करता प्रत्युत साधना में प्रवृत्त होता है। ऐसे व्यक्ति के विचार, संकल्प एवं कार्य सामयिक होते हैं। उसे किसी बात में विरोध नहीं जान पड़ता। समृद्धि एवं ज्ञान का अक्षय भंडार वह अपनी शक्तियों में पा लेता है।
हम प्रायः देखते हैं कि अध्यापक, उपदेशक, लेखक, नेता, कार्यकर्त्ता, सार्वजनिक शिक्षा संस्थाओं के सर्वेसर्वा संस्थाओं के मूल में निहित विचारों का प्रचार न कर, मिथ्या भावनाओं के जाल में लोगों को फंसाते हैं। उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि जीवन में उतरे हुए आदर्श वाक्य ही प्रेरणा का काम दे सकेंगे अन्यथा वह मिथ्या प्रदर्शन मात्र होकर हास्यास्पद होगा।