कुण्डलिनी-शक्ति

October 1947

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(श्री गुलाब चन्द्र जैन)

साधारणतया प्रत्येक प्राणी में कुंडलिनी सुषुप्तावस्था में रहती है। यह सर्पाकार है तथा इसकी गति भी सर्प की ही तरह है। योगाभ्यासी के शरीर में यह चक्रवात गोल चलती तथा शक्ति वर्धन करती है। श्रीमती ब्लेवटस्की का कहना है कि इसकी चाल प्रकाश की अपेक्षा कहीं अधिक तेज है। प्रकाश 18,500 मील प्रति सेकेंड चलता है किन्तु कुण्डलिनी की गति 34,500 मील प्रति सेकेण्ड है। कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थिर होकर सोई रहती है। मूलाधार शरीर के 6 चक्राकार गतिमान शक्ति केन्द्रों में से एक है। वर्तमान शरीर-विज्ञान की दृष्टि से ये स्थान (Nervcs) नाड़ियों के समूह हैं। इनके नाम क्रमशः मूलाधार (Pelvice Plexus) स्वाधिष्ठान (Hypogastric Plexus) मणिपूर (Eqigastric Plexus) अनाहत (Cardiac Plexus) विशुद्ध (Carotid Plexus) तथा आज्ञा चक्र (Medulla Oblangata) हैं।

मूलाधार सुषुम्ना-दंड के निम्न भागों में स्थिर है। कुण्डलिनी इसी स्थान पर सोई रहती है। स्वाधिष्ठानचक्र प्लीहा के पास स्थित है। इसके पास ही मणिपूरक चक्र है जिसका स्थान नाभि है। मणिपूर के ऊपर हृदयस्थ अनाहत चक्र हैं। विशुद्ध चक्र, अनाहत चक्र के ऊपर पाया जाता है। इसका स्थान कण्ठ है। चुल्लिका ग्रंथियाँ (Thyroid glands) इसी से संबंधित है, विशुद्ध चक्र के ऊपर आज्ञा चक्र है। यह दोनों भौहों के बीच में कपाल में स्थित है। पीनल ग्लैंड (pineal glands) तथा पिट्यूटरी बॉडी (piluatory body) इससे संबंधित है।

कुण्डलिनी जाग्रत होकर मेरुदण्ड के मध्य में स्थित सुषुम्ना मार्ग से होकर इडा (सूर्यनाड़ी) पिंगला (चन्द्रनाड़ी) की सहायता से ऊपर की ओर प्रवाहित होकर इन षट्चक्रों को प्रज्ज्वलित एवं प्राणयुक्त करती हुई अन्त में सहस्रार में जाकर योगी को पूर्णावस्था की प्राप्ति करा देती है।

मेरुवंश में से होकर ऊपर जाते समय जिस-2 चक्र में से होकर यह गुजरती है उस-उस चक्र को यह जागरित करती तथा खोलती जाती है स्वाधिष्ठान चक्र के जागरित होने पर मनुष्य सूक्ष्मतर लोक में स्वच्छंद विहार करता है। मणिपूर की जागृति के साथ-साथ आत्मरक्षा की शक्ति उसमें अधिक हो जाती है। अनाहत चक्र के खुलते ही उसे अंतःदृष्टि प्राप्त होती है विशुद्ध चक्र का जाग्रत होना दिव्य श्रुति (ष्टद्यड्डह्द्बड्डह्वस्रद्बद्गठ्ठष्द्ग) का कारण है। आज्ञा चक्र के जाग्रत होते ही साधक को ‘दिव्यदृष्टि’ (ष्टद्यड्डह्द्बक्द्बह्यद्बशठ्ठ) प्राप्त हो जाती है। आज्ञाचक्र के ऊपर ब्रह्मरंध्र में सहस्रार चक्र है। सहस्रार चक्र का जाग्रत होना ही कुण्डलिनी साधक का चरम ध्येय है।

सहस्रार के जाग्रत होते ही शरीर और आत्मा अपनी स्वतंत्र स्थिति को प्राप्त होते हैं। आत्मा शरीर से बाहर निकल कर मन चाहे स्थान पर जाकर एवं लौट कर पुनः उसी देह में प्रवेश कर सकती है। योग क्रियाओं द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत कर षट्चक्र रूप द्वारों को खोलते हुए मस्तिष्क में स्थित सहस्रार चक्र में उसे ले जाना ही योग की सिद्धि व सफलता है।

कुण्डलिनी के जाग्रत होने के साथ वेग उत्पन्न होने वाला प्रथम शब्द है ‘नाद’। नाद के 3 भेद हैं- महानाद, नादान्त और निरोधिनी। नाद से प्रकाश होता है और प्रकाश का व्यक्त रूप महा बिन्दु है।

सम्पूर्ण चक्र कमल के आकार के माने गये हैं किन्तु इनकी पंखड़ियों की संख्या में अंतर है मूलाधार चक्र में चार दल स्वाधिष्ठान में 6, मणिपूरक में 10, अनाहत में 12, विशुद्धिचक्र में 16, आज्ञाचक्र में 20, सहस्रार में 1000 दल हैं।

ये चक्र पंचतत्त्वात्मक हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत तथा विशुद्ध चक्र क्रमशः पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा आकाश के निदर्शक हैं। सहस्रार को शून्य चक्र भी कहते हैं। अब हम उपरोक्त चक्रों का ध्यान करने के फल पर विचार करेंगे। आधार चक्र का ध्यान करने से मनुष्य वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्वविद्याओं का जानने वाला आनंदित, आरोग्य तथा काव्य-प्रबंध में चतुर होता है। स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने से अहंकारादि विकार नष्ट होते हैं। वह श्रेष्ठ योगी, निर्मोही तथा गद्य-पद्य का कुशल रचयिता होता है। मणिपूरक चक्र का ध्यान करने वाला जगत का संहार व पालन करने में समर्थ होता है। जिह्वा पर सरस्वती निवास करती है और वाक्य-रचना में वह चतुर हो जाता है। अनाहत चक्र का ध्यान का फल ईशत्वसिद्धि, योगीश्वरत्व, इन्द्रियजीतता तथा परकाया प्रवेश शक्ति आदि है। विशुद्धाख्य चक्र के ध्यान में लीन योगी ज्ञानवान, उत्तम वक्ता, शान्तचित्त, त्रिलोकदर्शी, सर्वहितकारी, आरोग्य, चिरंजीवी तथा तेजस्वी होता है। आज्ञाचक्र के ध्यान से वाक्य सिद्धि प्राप्त होती। सहस्रार का ध्यान करते ही योगी अमर-मुक्त, उत्पत्ति-पालन में समर्थ, आकाशगामी तथा समाधि युक्त होता है।

कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर देहस्य कफ पित्तादि दोष एवं त्याज्य पदार्थों को नष्ट कर डालती है। उसके ऊर्ध्व गमन करते ही देह के तमाम व्यापार बंद हो जाते हैं। हृदय तथा नाड़ी की गति भी बंद हो जाती है। कुण्डलिनी के सहस्रार में प्रवेश करते ही योगी मोक्ष प्राप्त करता है। चक्रों का प्रकाश कुण्डलिनी जागृति का द्योतक है।


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