सेवा-धर्म

October 1947

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(जार्ज सिडनी अरेण्डल)

सच्ची सेवा वही है जो भार (बोझे) को हल्का कर दे- यह नहीं कि उसे एकदम हटा ही दे।

तुम तभी औरों की पूरी सहायता कर सकोगे तब तुम उन्हें अपने अपने आदर्श का गठित हुआ समझकर स्वीकार करोगे।

मनुष्य में जो उत्तम गुण हैं उसी से वह दूसरे की सेवा सहायता करने में समर्थ है। सेवा की उतनी ही भाँतियाँ संसार में हैं जितने सहाय्यापेक्षी मनुष्य हैं।

सुरभित सुन्दर सुमनों का सौरभ लेकर सर्व साधारण को घ्राणामोद पहुँचाने वाली हवा को ग्रीष्मातप क्लान्त तृषार्त्त पथिक को सुखाश्रय देने वाले शीतल जलान्वित कूप को गोदी में लिए हुए सघन विशाल वटवृक्ष देव को- इन दोनों सेवा पथ के पथिकों को- आदर्श बना कर चलो।

विचारो- दिन को एक एक मुहूर्त सत्सेवा के लिए है। कारण यद्यपि प्रतिक्षण दया पूर्ण कार्य करने का अवसर नहीं प्राप्त हो सकता है तथापि दयार्द्र भाव बनाये रखने का शुभ अवसर हर घड़ी सामने रहता है।

मनुष्य जितना ही अपने (सुख के) विषय में कम विचार करेगा उतना ही वह अपनी उन्नति का सहायक हो सकेगा। सेवा का छोटा से छोटा कार्य भी- सेवी के समक्ष- विश्व सेवक भाव की उत्तरोत्तर वृद्धि के रूप में दिखाई देता है।

यदि कोई मनुष्य तुम्हारी सेवा उस रूप में अंगीकार नहीं करता है जिस रूप में तुम देना चाहते हो तो कोई दूसरी (नई रीति) राह निकालो। तुम्हारी मनोकामना तो यहीं रहनी चाहिए किसी प्रकार से सेव्य पात्र की उचित सेवा बन पड़े। उसके प्रति तुम्हें यह कदापि प्रकट न करना होगा कि किस प्रकार तेरे द्वारा उसकी सेवा की जायगी।

किसी की सेवा करने में लज्जित मत हो। चाहे वह तुम्हारा परिचित हो या अपरिचित। उसकी आवश्यकता (चाह-दरकार) तुम्हें उसका भाई बना देती है किन्तु तुम्हारी लज्जा एक प्रकार का मोहमय गर्व है जो उसकी आवश्यकता पड़ने पर एक सहायक से उसे वंचित कर डालती है।

आप मन में कभी ऐसी भावना न आने दो कि तुमने आज औरों की कुछ सहायता की है बल्कि यही सोचते रहो कि तुम और अधिक सहायता किसी को पहुँचा सकते हो या नहीं। साथ ही साथ यह भी ध्यान रखो कि इस प्रतारणामूलक संसार के कितने प्राणियों का कष्ट निवारण करने में तुमने सहायता पहुँचाई है। अर्थात् तुम्हारी सेवा द्वारा कितने दुःखी जीव सुख प्राप्त कर सकते हैं।

जो लोग सद्गुरु के सच्चे शिष्य हैं वे ही लोग (समाज के) नेता हो सकते हैं क्योंकि जो आज्ञा-पालन करना नहीं जानता वह कदापि दूसरे को अपनी आज्ञा का वशवर्ती नहीं बना सकता।

यदि किसी मनुष्य को तुम अपनी सलाह मानने को बाध्य करना चाहते हो तो पूर्व ही से तुम स्वयं उसके सदुपदेशों के अनुसार चलने लग लाओ।

निष्कलंक एवं अनवद्य कार्य तुम तभी सम्पादन कर सकते जब तुम अपनी प्रशंसा या कीर्ति का विचाराँकुर अपने मानस क्षेत्र से एकदम ध्वंस कर दोगे। संसार में अमर होना चाहो तो बिना किसी लाग लपेद या स्वार्थ के अपनी सेवा व्यय करते जाओ। यदि सज्जनों द्वारा अपने अच्छे कार्य और विचारों के बदले में तुम अपनी प्रशंसा चाहते हो तो दूसरों के अच्छे कार्य और विचारों पर अपनी हार्दिक हर्ष और प्रशंसा वादिनी सम्मति प्रकट किया करो। अपनी भलाई चाहते हो तो दूसरों की भलाई करने का दृढ़ व्रत धारण कर लो।


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