विद्या और ब्राह्मण

October 1947

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(श्री नरदेवजी शास्त्री, वेदतीर्थ)

विद्या ह वै ब्राह्मणमा जगाम गोपाल मा शेवधिष्टेऽहमस्मि। असूयकायनृजवेऽयताय न मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम्॥

विद्या ब्राह्मण के पास आई और कहने लगी ब्रह्मन्, मेरा निवेदन सुनो?

ब्राह्मण- क्या आज्ञा है, भगवती!

विद्या- मेरी रक्षा करो, मैं तुम्हारा कोष हूँ।

ब्राह्मण मैं तुम्हारी रक्षा अब किस प्रकार करूं? अब तक तुम्हारी रक्षा के लिए ही मेरे तन-मन-धन-प्राण व्यय हुए हैं। मेरे पूर्वज तुम्हारी रक्षा में ही अनन्त काल से संलग्न रहे हैं। कहो देवि। क्या कष्ट है? तुम्हारी रक्षा में क्या त्रुटि है?

विद्या-ब्रह्मन् आपसे यही प्रार्थना है कि आप निन्दक, कुटिल स्वभाव वाले, ब्रह्मचर्य-व्रत-शून्य शिष्यों को कभी न पढ़ाइए। यदि आप इस बात का ध्यान रखेंगे और अधिकारियों को भक्त-शक्त शिष्यों को ही मेरा दान करेंगे तो मैं अवश्य पराक्रम-शालिनी बनूँगी।

यमेव विद्याः शुचिमप्रमत्तं मेधाविनं ब्रह्मचर्य्योपपन्नम्। यस्तेन द्रुह्येत्कतमच्चनाह तस्मै मा ब्रूया निधिपाय ब्रह्मन्।

विद्या- जिसको आप जानें कि यह शुचि-शुद्ध है, मनसावाचा कर्मणा एक रूप है, अप्रमत्त-प्रमाद-रहित है, मेधावी है, ब्रह्मचारी है और किसी दशा में भी आपके साथ द्रोह-बुद्धि रखने वाला नहीं हैं, उसी को आप मेरा दान कीजिए। ब्रह्मन्, वही शिष्य सच्चा निधिष है, मेरी रक्षा करने वाला है। ब्रह्मन्, इस बात का यथेष्ट ध्यान रखिएगा।

विद्या शिष्यों के प्रति बोली-

य आतृणत्य वितथेन कर्णौ अदुःखं कुर्व्वन्, अमृतं सम्प्रयच्छन्। तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मैन द्रुह्येत् कतमच्चनाह॥

विद्या- हे शिष्यों, जो मधुर उपदेशों से, विद्या दान द्वारा सत्य के प्रकाश से अज्ञान के बन्धनों को काटता है, ज्ञान-रूपी अमृत देता है, उसी को तुम अपना माता-पिता समझो। उसके साथ किसी दशा में भी द्रोह न करो। द्रोह करोगे तो मैं (विद्याँ) निष्फल हूँगी।

अध्यापिताँ ये गुरु नाद्रियन्तो विप्रा वाचा मनसा कर्मणा वा। यथैव ते न गुरोर्भोजनीयाः तथैव तान् न भुनक्ति श्रुतं तत्॥

विद्या- जो बुद्धिमान शिष्य उपर्युक्त तत्व को न समझ कर मन-वचन-कर्म के द्वारा गुरुओं का आदर नहीं करते, वे जिस प्रकार गुरु द्वारा रक्षा नहीं किये जाते, उसी प्रकार उससे पढ़ा हुआ सुना हुआ भी सफल नहीं होता-शिष्य का अध्ययन निरर्थक हो जाता है। शिष्यों, इस तत्व को हृदय में धार लो, जिसके साथ तुम द्रोह बुद्धि रखोगे, उस गुरु का हृदय-कमल तुम्हारे पढ़ाने के लिए कैसे खिलेगा और तुम ही उससे क्या प्राप्त कर लोगे?

यह है विद्या, गुरु और शिष्य की बातचीत, जो अलंकार रूप में निरुक्त तथा मन्वादि धर्मशास्त्रों में वर्णित है। कैसा सुन्दर उपदेश है। गुरु-शिष्य भाव को स्थिर रखने का विद्या को तेजस्वी बना कर सुरक्षित रखने का कैसा सुन्दर उपाय है। प्राचीन समय में प्रत्येक गुरु-गृह साक्षात् गुरुकुल था। आचार्य पिता और गायत्री माता थी। आचार्य पूर्व रूप, अन्तेवासी उत्तर रूप और प्रवचन संधान था। इन्हीं गुरुकुलों में ब्रह्मचर्यपूर्वक साँगोपाँग वेदाध्यापन होता था, इसी से वर्णाश्रम-धर्म सुरक्षित थे।

प्राचीन तपोधन ऋषि-मुनि-ब्राह्मणों के तप से आर्य जाति जीवित है यह क्या थोड़ी बात है? ईश्वर की इच्छा है कि अपने पापों के भुगतान के पश्चात् यह जाति फिर उठे और इसके द्वारा केवल भारत का ही भला न हो बल्कि अखिल संसार मात्र का भला हो

-एवमस्तु।


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