तुम्हें भगवान पूछते फिरते हैं।

October 1947

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को ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यद नस्था विर्भार्त। भूभ्या असुरसृगात्माक्वस्वित्को विद्वाँ- समुपगात्प्रष्टुमेतत्।

ऋग् 1/164/4

(यत्) जिसको (अनस्था) अस्थिरहित अभौतिक (विभर्ति) धारण करता है, उस (प्रथमम्) आदि (जायमानम्) उत्पन्न होने वाले को (कः) कौन (ददर्श) देखता है? ये (असुः) प्राण तथा (असृक) रुधिर तो (भूभ्याः) भूमि से, प्रकृति से होते हैं। (आत्मा) आत्मा (क्वस्वित्) कहाँ है? (सतत्) इस तत्व को (प्रष्टुम्) पूछने के लिए (कः) कौन (विद्वाँसम्) विद्वान के (उपगात्) पास जाता है?

ढूँढ़ने में, खोज करने में, रहस्य पता लगाने में मानव बुद्धि बड़ी आतुर रहती है। प्रकृति के सूक्ष्म तत्वों की विज्ञान शालाओं में खोज हो रही हैं, परमाणु की सूक्ष्म गतिविधियों का, शक्तियों का पता लगाने के लिए भारी प्रयत्न हो रहे हैं। इन खोजों के परिणाम स्वरूप नित्य नये आश्चर्यजनक आविष्कार सामने आ रहे हैं। यह प्रयत्न हर दिशा में चल रहे हैं। आरोग्य शास्त्र की शोध हो रही हैं, शिल्प के भेद प्रभेदों को मालूम किया जा रहा है, आकाश स्थित ग्रह नक्षत्रों की गति विध का पता लगाया जा रहा है, पृथ्वी के गर्भ में छिपे हुए खनिज पदार्थों को ढूँढ़ा जा रहा है, समुद्र को छान छान कर उसके अन्दर छिपे हुए पदार्थों को तलाश किया जा रहा है। हिमि से अच्छादित ध्रुवों की, आकाश चुम्बी पर्वत शिखरों की शोध हो रही है। गणित, भूगोल, इतिहास, पुरातत्व, रसायन, मनोविज्ञान आदि विविध दिशाओं में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जा चुकी है और उससे आगे की जानकारी प्राप्त करने के लिए मनुष्य जाति बड़ी बेचैनी के साथ लगी हुई है।

विविध रहस्यों का पता लगाने के लिए मानव बुद्धि छटपटा रही है। अगणित स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय खुले हैं जिनमें लाखों अध्यापक पढ़ाते हैं और करोड़ों छात्र पढ़ते हैं। इन शिक्षा संस्थाओं में एक बड़ी जन संख्या पूछने और बताने के लिए एकत्रित होती है। छात्रों की जिज्ञासा का अध्यापक लोग समाधान करते हैं। प्रकृति के विविध विषयों पर चर्चाएं होती हैं। अशिक्षित, जानकारी से रहित बालक जानकार और विद्वान होकर निकलते हैं। इस आयोजन में समय, शक्ति और धन को प्रचुर मात्रा में लगाया जाता है।

नित्य करोड़ों की संख्या में छपने वाले अखबार जनता के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए निकलते हैं कि ‘आज संसार में क्या हो रहा है?’ पत्र पत्रिकाओं का, पुस्तक पुस्तिकाओं का भारी प्रकाशन, जन साधारण की जिज्ञासाओं का समाधान करने के लिए होता है, प्रवचनों द्वारा, व्याख्याओं द्वारा, सत्संगों द्वारा, वे जानकारियाँ प्रकट की जाती हैं, जिनको जानने की मनुष्य की इच्छा है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास एवं धर्मग्रन्थों को निर्माण भी इसी प्रयोजन के लिए हुआ है। “ हम जानना चाहते हैं,” इस इच्छा के कारण ही जानकारी के विविध साधनों का निर्माण हुआ और हो रहा है। आपसी वार्तालापों का प्रयोजन भी यही होता है। एक मनुष्य दूसरे की जानकारी बढ़ाने के लिए ही कुछ कहता है और कोई किसी की बात इसी दृष्टि से सुनाता है। बिना किसी कारण के कोई वार्तालाप या तो होता ही नहीं यदि होता है तो उसके लिए अरुचि एवं उपेक्षा व्यवहृत होती है।

यह सब बातें हमें बताती हैं कि मनुष्य को जानने की बड़ी आकाँक्षा है, जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त, सदैव यह जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रयत्न शील रहता है। कभी उससे अघाता नहीं, कभी उससे थकता नहीं। यह भूख ऐसी है जो कभी तृप्त ही नहीं होती। पूछने और जानने की रुचि कभी मन्द ही नहीं पड़ती।

इतना सब होते हुए भी एक सबसे बड़ी, सबसे आवश्यक समस्या की ओर हम ध्यान नहीं देते और उसके संबंध में पूछने का प्रयत्न नहीं करते। उसकी ओर वेद भगवान हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। ऋग्वेद का उपरोक्त मंत्र पूछता है कि उस आदि से उत्पन्न हुए, अस्थिरहित अभौतिक आत्मा को कौन देखता है? मनुष्यों! बताओ तो सही, तुममें से उसे कौन देखता है? विविध प्रकार के दृश्यों को, पदार्थों को तुम बड़ी रुचि पूर्वक देखते हो पर उस आत्मा को क्यों नहीं देखते? अपने आपको- अन्त में मुँह डालकर देखने का प्रयत्न क्यों नहीं करते? यदि कहो कि मैं अपने को देख तो रहा हूँ, यह शरीर मुझे दिखता तो है। तो यह उत्तर ठीक नहीं, क्योंकि यह प्राण वायु, रुधिर आदि का शरीर तो पृथ्वी आदि पंच तत्वों से बना हुआ है। तत्व अचेतन हैं उनमें चेतना शक्ति विचार, ज्ञान, जिज्ञासा, इच्छा शक्ति कहाँ से आई? यह शरीर आत्मा कहाँ है? जो इस शरीर से भिन्न है, वह कैसा है? कौन है? कहाँ है? इस तत्व को पूछने के लिए हममें से कौन- विद्वानों के पास जाता है? वेद भगवान इस मंत्र में उसको तलाश करते हैं जो आत्मा को पूछने विद्वानों के पास जाता है।

अपनी प्रिय वस्तु को सभी तलाश करते हैं। वेद भी अपने प्यारे की तलाश करते हैं। वे उसको ढूँढ़ते हैं जो आत्मा ज्ञान की चर्चा करने के लिए विद्वानों के पास जाते हैं क्योंकि ऐसे ही सच्चे जिज्ञासु वेद को पहचानते हैं, और प्राप्त करते हैं। जिसका जिस पर सच्चा प्रेम होता है, वह उसे प्राप्त होकर रहता है। भक्त भगवान को अपना आत्म समर्पण करता है, इसलिए भगवान भी भक्त को अपना आत्म समर्पण कर देते हैं। जो साँसारिक वस्तुओं की ही जानकारी में नहीं उलझा रहता, वरन् आत्मज्ञान के लिए विद्वान के पास जाता है, ऐसा जिज्ञासु वेद का वास्तविक भक्त है। सच्चा भक्त है। ऐसे भक्त को छाती से लगा लेने के लिए बाहु पसार कर वेद भगवान पुकारते हैं- वह कौन है? जो आदि में उत्पन्न हुए, अस्थिरहित, अभौतिक आत्मा को देखता है? वह कौन है? जो आत्मा तलाश करके विद्वान के पास जाता है? जो ऐसा हो वह आवे, उसकी मुझे तलाश है, उसे मैं छाती से लगाऊँगा। अपना सारा मर्म उसके अन्तस् में उड़ेल दूँगा। जो ऐसा जिज्ञासु हो, आगे बढ़कर आवे और भगवान के गले लग जाय।

ऐ दुनिया वालो, तुम बहुत पूछते हो तरह-2 की बातें जानने के लिए विद्यालयों में, सभाओं में, गोष्ठियों में जाते हो, विविध प्रकार से पढ़ते और सुनते हो, पर यह सब होता भौतिक, नश्वर, बाह्य संसार के बारे में ही है। कभी अपने आपके बारे में आत्मा के बारे में न तो किसी दूसरे से पूछते हो न अपने आपसे विचार करते हो। यह बड़े खेद की बात है। काजी जी शहर के अंदेशों से दुबले हुए जा रहे हैं पर अपने घर की खबर ही नहीं। शरीर क्षय से घुल रहा है, उसकी चिन्ता न करके पोशाकों की डिजाइनें पसन्द करने की माथा पच्ची करना कौन बुद्धिमानी है। आवश्यक कार्य की उपेक्षा करके साधारण कामों में जो उलझा रहता है, उसे बाल बुद्धि वाला कहा जाता है। उपनिषद्कार को ऐसे ही बाल बुद्धि वालों की अधिकता देख कर बड़ी निराशा और आश्चर्य होता है। कठोपनिषद् कहती है-

“श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोपि वहवो यन्न विधुः। आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लव्धाऽऽश्चर्या ज्ञाता कुशलानु निष्टः॥”

इस आत्मतत्व को बहुत से तो सुनते ही नहीं, बहुत से इसे सुनते हैं पर समझते नहीं, बहुत से सुनते, समझते हैं पर उसे प्राप्त नहीं करते। उसे वस्तुतः कहने वाले, सुनने वाले और प्राप्त करने वाले कुशल, बुद्धिमान कोई विरले ही होते हैं।

अपनी भूखी-प्यासी भौडडडडडड को बाड़े में बन्द करके, आकाश में उड़ने वाली पतंगों को गिनने वाले मनचले बालकों की तरह लोग तरह-2 की जानकारी प्राप्त करने में, बातें पूछने में तन्मय हो रहे हैं। पर ऐसे कुशल, चतुर कोई विरले ही होते हैं जो विद्वान के पास यह पूछने जावें कि वह आत्मा कैसा है? उसे प्राप्त कैसे करे? जो ऐसे कुशल हैं वेद भगवान उन्हें ही ढूँढ़ते हैं। उन्हें ही पूछते हैं, उन्हीं का पता लगाते हैं।

आत्म ज्ञान, सर्वोपरि ज्ञान है। इसके द्वारा ही सुख शान्ति के दर्शन होते हैं, इसी के द्वारा जन्म मरण की फाँसी कटती है, इसी से, स्वर्ग एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसी से भगवान मिलते हैं। जीवन की पूर्णता, सफलता इस आत्म ज्ञान पर ही निर्भर है। इसलिए वृहदारण्यक उपनिषद् ने कहा है-

“आतमा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिव्यासितव्यो..........”

अरे! ओ!! इस आत्मा को देखो, इस आत्मा को सुनो, इस आत्मा का मनन करो, इसी का निदिध्यासन करो।

बाहरी ज्ञान कितना ही क्यों न इकट्ठा कर लिया जावे पर उससे आत्म कल्याण नहीं हो सकता, कानून, चिकित्सा, इंजीनीयरिंग, रसायन, भूगोल, गणित, भूगर्भ, साइंस, राजनीति, धर्म, साहित्य व्यापार आदि का कोई कितना ही बड़ा ज्ञाता, विद्वान, विशेषज्ञ क्यों न हो जाय, साँसारिक वैभवों से कुबेर और इन्द्र के समान सम्पन्न क्यों न हो जाय पर उसे शान्ति नहीं मिल सकती।

पाठको, सुनो, वेद भगवान पूछते हैं वह कौन है जो आत्म ज्ञान के लिए विद्वान के पास जाता है? ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हुए वे कब से पुकार पुकार कर पूछ रहे हैं। क्या तुम ऐसे सच्चे जिज्ञासु हो? यदि हो तो जाओ भगवान की छाती से लग जाओ, वे कब से बाहु पसार कर तुम्हें अपनी गोदी में लेने के लिए खड़े हैं।


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