शास्त्र मंथन का नवनीत

October 1947

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सुहृद्भिराप्तैसकृद्विचारितं

स्वयं च बुद्ध्या प्रविचारितं पुनः

करोति कार्यं खलु पः स बुद्धिमान्

स एव सौख्यं बहुधा समश्नुते॥

मित्रों और बुद्धिमान पुरुषों से बार-बार सम्मति लेकर और स्वयं अपनी बुद्धि से विचार कर जो पुरुष काम करता है वह बुद्धिमान कहलाता है और सदा सुख पाता है।

षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।

निद्रा, तन्द्रा, भयं, क्रोध आलस्यं, दीर्घसूत्रता॥

नींद, तन्द्रा भय, क्रोध, आलस्य और देरी से काम करना, ये छः दोष ऐश्वर्य चाहने वाले पुरुषों को त्यागने योग्य हैं।

षडेव तु गुणाः पुँसा न हातव्याः कदाचन्।

सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः॥

पुरुषों को इन छः गुणों को कभी न छोड़ना चाहिये- सत्य, दान, आलस्यहीनता, दूसरों में दोष न देखना, क्षमा और धैर्य।

प्राप्यापदं म व्यथते कदाचित्

उद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः।

दुःखं च काले सहते महात्मा

धुरन्धरं तस्य विपद्विनश्येत॥

विपत्ति अपने पर कमी दुःखी न हो, बल्कि सावधान होकर उसके टालने का उद्योग करे। जो महात्मा समय पर दुःख सह लेता है वह संसार के भार को सहन कर सकता है, और उसकी विपत्ति भी नष्ट हो जाती है।

तावद्भयेन भेतव्यं यावद्भयमनागतम्।

आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशंकया॥

जब तक भय नहीं आवे तभी तक उससे डरना चाहिए, भय उपस्थित होने पर तो निश्शंक मन से उस पर प्रहार करना उचित है।

न यस्य चेष्टितं विद्यात् न कुलं न पराक्रमम्

न तस्य विश्वसेत् प्राज्ञों यदीच्छेच्छ्र यआत्मन्।

जिसकी चेष्टा, कुल और पराक्रम न मान्य हों, बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि यदि अपना कल्याण चाहे तो उसका कभी विश्वास न करें।

अत्यादरो भवेद्यत्र कार्य-कारण-वर्जितः।

तत्र शंका प्रकर्तव्या परिणामेऽसुखावहा॥

जहाँ बिना कारण अत्यन्त आदर हो, वहाँ परिणाम में दुःख होने की शंका करनी चाहिये। क्योंकि बिना मतलब कोई खुशामद नहीं करता।

असती भवति सलज्जा

क्षारं नीरं च निर्मलं भवति।

दम्भी भवति विवेकी

प्रियवक्ता भवति धूर्तजनः।

कुलटा स्त्री लज्जावन्ती बनती है, खारा पानी साफ और ठण्डा होता है, पाखंडी आदमी विवेकी बनता है और मधुर बोलने वाला प्रायः धूर्त्त होता है।

ये वै भेदनशीलास्तु सकामा निस्त्रया शठाः।

ये पाप इति विख्याताः संवासे परिगर्हिताः॥

जो भेद कराने वाले, मतलबी, निर्लज्ज, दुष्ट और पापी हैं, उनका साथ कभी न करना चाहिए।

देशाटनं राजसभा वेशनं शास्त्रचिंतनम्।

वैश्यादिसंगतिं विद्वन्मैत्रीं कुर्यादतन्द्रितः॥

देशान्तरों में भ्रमण, राजसभा में जाना, शास्त्रों का विचार करना, वैश्यों से संगति और विद्वान से मित्रता, ये बातें आलस्य छोड़ कर करनी चाहिए।

देशाँतरेषु बहुविधभाषावेषादि येन न ज्ञातम्।

भ्रमता धरणीपीठे तस्य फ लं जन्मानो र्व्यथम्।

जिसने देशान्तरों में जाकर अनेक प्रकार की भाषा और वेषादि का ज्ञान न प्राप्त किया, पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए उस मनुष्य का जन्म व्यर्थ है।


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