दूसरों के मनोभावों को समझिए।

January 1946

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(व्यवहारिक मनोविज्ञान की समस्याएँ)

प्रत्येक व्यक्ति आदर्श है-

क्या तुम्हें विदित है कि एक भारी चोर, पक्का डाकू, अनुभवी कातिल भी अपने आप को नंद्य नहीं समझता? अपनी बुद्धि सभी को सर्वोत्कृष्ट लगती है। अपने किए हुए कार्य ही युक्ति संगत प्रतीत होते हैं। अपना दृष्टिकोण सब से अधिक श्रेयस्कर लगता है। एक कातिल कत्ल करने के पश्चात यह नहीं मानता कि उसने कोई बड़ा अपराध किया है। न चुराते समय चोर के मन में ही यह बात आती है कि वह कोई असुन्दर कार्य कर रहा है। कातिल की दृष्टि से कत्ल करना, चोर की नजर से चोरी करना युक्ति संगत है। हममें से प्रत्येक के कार्य हमारे निजी दृष्टिकोणों से सर्वोपरि हैं। दूसरे के काम में हम नुक्ताचीनी कर सकते हैं, सुन्दर-सुन्दर आदर्श दिखा सकते हैं। उत्तम पथ का निर्देश भी कर सकते हैं किन्तु हम यह मान लेते हैं कि हम स्वयं आदर्श हैं, जो कार्य करते हैं वह सब से उत्तम होता है, हमें छोड़ कर दूसरा उस कार्य को इतनी उत्कृष्टता, कलात्मकता एवं परिपूर्णता से नहीं कर सकता, जितनी उत्तमता से हमने किया है।

स्वत्व की स्वयंभू वृत्ति-

हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको आदर्श का नमूना मानता है। अपनी कमजोरियों, निर्बलताओं, क्षुद्रताओं में भी हम अपने आपको पूर्ण मानते हैं। हमें अपनी बुराइयाँ सुननी अप्रीतिकर लगती हैं। हम नहीं चाहते कि दूसरे उसका निर्देश करें या उसकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करें। हम नेत्र खोले रह कर भी निर्बलताओं की तरफ से आँखें नीची रखना चाहते हैं। अपनी सम्पत्ति, वस्त्र, घर, दृष्टिकोण, विचार, बुद्धि, श्रेष्ठता के लिए मनुष्य को स्वाभाविक पक्षपात है।

स्पर्धा एवं ईर्ष्या का प्रवेश-

स्वत्व की जो स्वयंभू वृत्ति (ढ्ढठ्ठह्यह्लद्बह्ष्ह्ल) है, वह मानव स्वभाव की असहाय अवस्था की देन है, जब जीवन सैकड़ों कठिनाइयों, खतरों, से भरा था। जो वस्तु अपनी है उसकी रक्षा के लिए मनुष्य कुछ भी उठा नहीं रखता। स्वत्व, ‘अहं’ की स्वयंभू वृत्ति सभ्यता के उन्नत युग में स्वत्व की होड़, प्रतियोगिता, दूसरे को नीचा दिखाना, स्वयं अपने दृष्टिकोण को ही सर्वोपरि साबित करना, के रूपों में प्रकट होकर सामाजिक वैषम्य का प्रधान कारण बन गई है। स्पर्धा एवं ईर्ष्या अहं वृत्ति में रुकावट आने से समाज में प्रविष्ट हुए हैं।

समाज में आज ईर्ष्या है तो इसीलिए कि हम एक दूसरे के दृष्टिकोणों को नहीं समझना चाहते और यदि समझते भी हैं तो उसके अनुसार कार्य नहीं करते। जो व्यक्ति दूसरे के मनोभावों के मार्ग में रुकावट डालता है, वही ईर्ष्या का कारण बनता है। समाज में फैले हुए अनेक झगड़ों, समस्याओं एवं प्रतियोगिताओं के अन्तर में एक दूसरे के मनोभावों का विभ्रम है। परदोष दर्शन में भी अपने स्वत्वों को दृढ़ बनाने, उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से (Indirectly) दूसरे से ऊँचा सिद्ध करने का प्रपंच है।

आलोचना स्वत्व को ठेस पहुँचाती है-

दैनिक जीवन में आलोचना से जो भयंकर कृत्य होते हैं, उनसे प्रत्येक व्यक्ति थोड़ा बहुत परिचित है। माता-पिता अपने छोटे शिशुओं की आलोचना करते नहीं थकते। मालिक नौकर की शिकायत करते नहीं अघाता। अध्यापक विद्यार्थियों की टीका टिप्पणी करता है। दुकानदार ग्राहकों की मूर्खता के ढोल पीटता है। वक्ता सुनने वाले की नासमझी पर आठ-आठ आँसू रोता है। जज खूनी, कातिल, चोरों की अज्ञानता पर क्षोभ प्रकट करता है। हास्पिटल में मरीजों की दशा देखता हुआ डॉक्टर रोगियों की कम अक्ली का उपहास बनाता है। पागलखाने का रक्षक अनेक पागलों को देख-देख कर सोचता है- “काश ये व्यक्ति अपने दृष्टिकोणों में परिवर्तन कर पाते?” किन्तु हम यह नहीं सोचते कि छोटे-छोटे शिशु, नौकर, ग्राहक, श्रोतागण, खूनी, कातिल, रोगी, पागल कोई भी अपने आप को न मूर्ख समझता है और न इस बात को स्वीकार करने के लिए ही सहमत है, वह जैसा भी है, अपने आदर्शों से सर्वोत्तम है। उसके मनोराज्य में सबसे ऊँचे जीवन का जो चित्र वर्तमान है उसके अनुसार वह अपना आत्म निर्माण कर रहा है।

मनोभाव व्यक्तिगत हैं-

प्रत्येक का मनोभाव अंतरीय है। उसे आप देख नहीं सकते। वह व्यक्तिगत (क्कद्गह्ह्यशठ्ठड्डद्य) है। उसमें दूसरे का हिस्सा नहीं। भाव मन में (हृदय में नहीं जैसे कि हम समझा करते हैं) उत्पन्न होते हैं और भिन्न-भिन्न व्यक्ति में पृथक-पृथक होते हैं। एक ही वस्तु देख कर उसका प्रभाव भिन्न-भिन्न व्यक्तियों पर भिन्न पड़ सकता है। यदि हम सूर्यास्त का सुन्दर दृश्य देखें तो हमारे मनोभाव एक दूसरे दर्शक से भिन्न होंगे, एक कवि उसे कुछ और ही समझेगा। किसान, मजदूर उसे किसी और ही रंग में लेंगे। सुन्दर चित्र, मनोहर प्राकृतिक दृश्य, गाना इस सभी में कुछ के मनोभाव कुछ होंगे कुछ के दूसरे। एक हब्शी भी अपने विचित्र रंग रूप, पोशाक, आभूषणों को सर्वोत्कृष्ट समझता है। सभ्य समाज नित नया फैशन बदलता है। इनमें से प्रत्येक अपने आनन्द को, अपने आदर्श को, अपने दृष्टिकोण को सबसे ऊँचा समझता है और दूसरे को मूर्ख ठहरा कर अपने ‘अहं’ भाव को प्रकट करता है।

संसार मनोभावों का बना है -

“दुनिया बहुत बुरी है। जमाना बहुत खराब है, ईमानदारी का युग चला गया, चारों ओर बेईमानी छाई हुई है। सब लोग धोखेबाज हैं, धर्म धरती पर से उठ गया।” -ऐसी उक्तियाँ जो व्यक्ति पुनः पुनः उच्चारण करता है समझ लीजिए कि वह स्वयं धोखेबाज है, बेईमान है। उसके मनोभावों का ही यह प्रकाश है जो उसके संसार का निर्माण पल-पल में कर रहा है। उसके मनोभाव ही चारों ओर इकट्ठे हो गये हैं। जो आदमी यह कहा करता है कि “दुनिया में कुछ काम नहीं है बेकारी का बाजार गर्म है, उद्योग धन्धे उठ गए, अच्छे काम नहीं मिलते” समझ लीजिए कि इसकी अयोग्यता इसके चेहरे पर छाई है और जहाँ यह जाता है अपने मनोभावों के दर्पण में ही सब वस्तुएँ निहारा करता है।

क्रोधी व्यक्ति जहाँ जायगा, कोई न कोई लड़ने वाला उसे मिल ही जायेगा, घृणा करने वाले को कोई न कोई घृणित व्यक्ति मिल ही जायेगा। अन्यायी मनुष्य को सब लोग बड़े बेहूदे, असभ्य और दण्ड देने योग्य दिखाई पड़ते हैं।

वास्तव में होता यह है कि अपनी मनोभावनाओं (Feelings) को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है। और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा वह स्वयं है। जिसे दुनिया स्वार्थी, कपटी, गंदी, दुखमय, कलुषित, दुर्गुणी, असभ्य दिखाई पड़ती है समझ लीजिए कि इसके अन्तर में स्वयं दुर्गुणों, कमजोरियों, न्यूनताओं का बाहुल्य है।

संसार एक अत्यन्त विशाल दर्पण है जिसमें हम नित्य प्रति के जीवन में अपनी भावनाओं की प्रतिकृति देखा करते हैं। जो व्यक्ति जैसा है उसके लिए इस सृष्टि में से वैसे ही तत्व आकर्षित होकर प्रकट हो जाते हैं। सत्य युगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरतता रहता है।

दूसरों के मनोभावों को बरतिए-

आप जिस स्थिति, जिस कार्य या जिस क्षेत्र में हों, अपने से काम पड़ने वाले व्यक्तियों के स्वभावों का अच्छी तरह अध्ययन कीजिए, उनके आदर्शों, दृष्टिकोणों, सम्बन्धों, भावों से परिचय प्राप्त कीजिए। उनके प्रत्येक कार्य को गहरी अंतर्दृष्टि से निहारिये और उनका मनोविश्लेषण कीजिए।

आप अपने से पूछिये- आखिर यह व्यक्ति चाहता क्या है? इसके दिमाग में वस्तुओं का आदर्श स्वरूप कैसा है? यह किस-किस चीज से नफरत करता है और किस किस को उत्तम मानता है? अपने नौकरों से यह कैसा काम लेना चाहता है? इसकी प्रिय वस्तुएँ (Hobbies) क्या हैं? इसके अन्तःकरण में सौंदर्य का क्या परिमाण (Standard) है?

आचार-क्षोभों (Moral emotions) का संबंध मनुष्य की नित्यप्रति की क्रियाओं से होता है और उन्हीं के सूक्ष्म अध्ययन से अच्छाई या बुराई का निर्धारण किया जा सकता है। आचार क्षोभ हमारे नित्यप्रति के कार्यों के न्यायाधीश हैं। उन्हीं के अवलोकन से हमें व्यक्तियों के स्वभावों का ज्ञान प्राप्त होता है। हमारी जाँच जितनी अच्छी होगी। उतने ही अंशों में हम समाज से हिलमिल कर निबाह कर सकेंगे।

आप किसी व्यक्ति से उसके आदर्शों के विषय में बातचीत कीजिए और उसके मनोभावों के प्रति सहानुभूति दिखाइये, उसके विचारों की श्रेष्ठता जताइये। बस, आप उसे अपने वश में कर सकेंगे। वह आपसे अपने विषय में बातें करते नहीं थकेगा।

यदि तुम किसी को नाराज कर अपना शत्रु बनाना चाहते हों तो उसके मनोभावों को कुचल दो, उसकी बातें काटो और अपनी ही अपनी हांको।

अतएव जब तुम समाज में दूसरे व्यक्तियों से वार्तालाप या व्यवहार करने निकलो तो यह स्मरण रक्खो कि तुम मिट्टी के पुतलों से बातें नहीं कर रहे हो प्रत्युत ऐसे मनुष्यों से व्यवहार कर रहे हो जिसमें भावों का प्रभुत्व है। भाव के उस जलाशय में तुम्हारी प्रत्येक बात अद्भुत लहरें उत्पन्न करती है। भिन्न-भिन्न क्षोभ उठ कर मन के समराँगण में युद्ध करते हैं। मध्य में ऐसी मनःस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनके कारण कार्यशैली कुछ और की और बन जाती है।

दूसरों के गर्व की रक्षा कीजिए-

स्मरण रखिए, प्रत्येक व्यक्ति अपने गर्व-चूर्ण पर लड़ने मरने को तैयार हो सकता है। गर्व (Pride) ऐसी ही प्रिय भावना है। हम प्राण देकर भी इसकी रक्षा करना चाहते हैं। दूसरे के सामने अपनी हेठी नहीं कराना चाहते। हमारी यही धारणा रहती है कि हमारा मस्तक ऊँचा रहे। कोई हमारी ओर उँगली न उठा सके। हमारी कमजोरियों या न्यूनताओं की चर्चा न करें।

उदाहरणार्थ, आपकी पत्नी आज स्वादिष्ट भोजन नहीं बना सकी। मिर्च ज्यादा पड़ गई है, दाल कच्ची है। रोटियाँ भी जल गई हैं। आप उससे यह न कहिए कि तुम्हें भोजन बनाना नहीं आता। तुम दाल रोटी तक बनाना नहीं सीख सकीं। इसके स्थान पर आप कहिए कि “आपके भोजन का स्टैर्न्डड उतना ऊँचा नहीं है जितना नित्य रहता है। तुम्हारे हाथ के भोजन के सामने हमें दूसरे के हाथ का अच्छा नहीं लगता। इस कला में तुम्हारे समान निपुण बहुत कम हैं।” इस प्रकार के वाक्यों से पत्नी के गर्व की रक्षा हो सकेगी और वह आपको प्रसन्न करने के लिए ऊँचे स्टैर्न्डड का भोजन तैयार किया करेगी।

दूसरे के गर्व को उत्तेजना देने से, बढ़ावा, तारीफ करने से, मिथ्या घमंड बढ़ता है और प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्न होता है। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति अपने गर्व की रक्षा करना चाहता है। दूसरों की नजरों में अपना अतिशयोक्ति पूर्ण स्वरूप देखने को लालायित रहता है।

यदि आप अध्यापक हैं तो-

विद्यार्थियों के गर्व की रक्षा कीजिए। सीधी साधी भाषा में उनकी त्रुटियाँ बतलाने के स्थान पर इस प्रकार घुमा फिरा कर आलोचना कीजिए कि उन्हें यह प्रतीत न हो कि आप उनकी मान हानि कर रहे हैं। एक मित्र की तरह कहना प्रारम्भ कीजिए। अपने शिष्यों के दिल को पकड़ लीजिए। उनकी गहराइयों में प्रवेश प्राप्त कीजिए। यदि आपने एक बार उनका विश्वास (Confidence) प्राप्त कर लिया, तो आप उन पर खूब अच्छी तरह राज्य कर सकते हैं। विश्वास तब मिलेगा जब आप उनके मिथ्या गर्व को फुलाते रहेंगे। उनके सामने उन्हीं का अतिरंजित स्वरूप प्रस्तुत कर सकेंगे।

यदि आप पत्नी हैं तो -

स्मरण रखिए कि स्त्री जितनी ही कोमल, सौम्य, मधुर हो वह पुरुष को उतनी ही प्रिय लगती है। जो स्त्री पति के मनोभावों की रक्षा करती है। किसी प्रकार उसकी पौरुष श्रेष्ठता के गर्व को फुला देती है उसका बढ़ा-चढ़ा रूप दिखाती है, अपने आप एक ऐसा दर्पण बन जाती है जिसमें पति अपने पुरुषोचित गुणों का पूर्ण विकास पाता है-वही स्त्री पुरुष को पसन्द आती है। पुरुष की यह इच्छा होती है कि उसकी पत्नी उसकी श्रेष्ठता जताये, साहसिक कार्यों की प्रशंसा करे, विफलताओं में सम्वेदना प्रकट करे, मिथ्या गर्व को उत्तेजित करती रहे, अपनी डींग न मारे। पति पत्नि को अपने से नीची ही देखना पसन्द करता है क्योंकि ऊँचा उठने पर उसकी पौरुष श्रेष्ठता, गर्व, अहंभाव को धब्बा लगता है।

यदि आप पति हैं तो -

यह याद रखिए कि पत्नि की कुशलता, सौंदर्य, गृह निपुणता, प्रेम की तारीफ करना, स्तुत्य वाक्यों का प्रयोग, बढ़ावा देना, चाटुकारिता खुशामद करना, बातें बनाना पति के लिए वैसा ही आवश्यक है जैसा जीवन के लिए श्वास। इससे पत्नि के गर्व की रक्षा होती है। वह अपनी श्रेष्ठता का प्रतिबिम्ब देखती है। अतः यदि तुम सफल नायक बनना चाहते हो तो यह स्मरण रखो कि बढ़ावा प्रशंसा और बातें बनाना स्त्री जीवन के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रोत्साहक एवं तीव्र उत्तेजक हैं। पत्नि की खूबियों की अतिश्योक्ति मय वर्णन करो, उसका आदर करो, उसके कार्यों पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करो और इन सब के लिए उसकी अकारण झूठी प्रशंसा भी करो।

यदि आप दुकानदार हैं तो-

अपने ग्राहकों के गर्वों की रक्षा कीजिए। “आपके लिए तो यह कपड़ा ठीक है, यह तो निम्न श्रेणी वालों के लिए है।” ऐसा कहने से ग्राहक का गर्व बढ़ता है और आवेश में आकर वह बढ़िया वस्तु खरीद लेता है। मुँह माँगे दाम दे जाता है। उसके मनोभावों को जानने की कोशिश कीजिए फिर उसी के अनुसार उसकी भावनाओं को उत्तेजना प्रदान कीजिए। अपने माल की इस प्रकार प्रशंसा कीजिए कि ग्राहक उसे समझ न सके। उसकी भावनाएँ यकायक चीज लेने को चंचल हो उठे और वस्तु खरीद लेने पर ही उसकी तसल्ली हो। यदि आप ग्राहक से लड़ने को प्रस्तुत हो जायेंगे या उसे छोटा समझ कर उसके गर्व को उत्तेजित नहीं करेंगे तो वह क्षुब्ध होकर चला जायेगा और शायद गालियाँ भी सुना जाय। दुकानदार को अति कोमल, विनम्र, सौम्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए। प्रत्येक पुरुष अपनी महत्ता चाहता है, गर्व की रक्षा के लिए तुला रहता है। अतः उसकी इन्द्रियों को, भावों को भड़काइये और बतलाइये कि बिना उस वस्तु के उसका कार्य नहीं चल सकता, न पूर्ण तुष्टि ही हो सकती है।

यदि आप उपदेशक या वक्ता हैं तो-

श्रोताओं की भावनाओं को उत्तेजित कीजिए। भाव समुद्र में तूफान ला दीजिए। सुनने वालों की विचारशक्ति को दबा कर भावनाओं को भड़काइये। सामयिक रुचिकर बातें नवीन ढंग से कहिए। उत्तेजक की अधिकता (Intensity) का प्रभाव विकारों (Feelings) पर बहुत पड़ता है। साधारण उत्तेजन से हमारे ज्ञान तन्तुओं को जो कार्य करना पड़ता है। प्रायः उसकी निर्बलता के कारण प्रभाव भी साधारण पड़ता है। दूसरे उत्तेजन के आकार का प्रभाव भी विकारों पर पड़ता है। उत्तेजन के परिवर्तन, दूसरे प्रकार की भावना के उद्वेक से हमारे विकार शीघ्र उत्तेजित हो उठते हैं। व्याख्यान देते समय श्रोताओं को हँसाइये, गंभीर बनाइये, कभी भाव से उन्मत्त कर दीजिए। श्रोता उसी की बातें पसन्द करते हैं जो उनके मिथ्या गर्व को फुला देता है। अपने आपको एक ऐसा दर्पण बनाइये जिसमें श्रोतागण अपना बढ़ा-चढ़ा रूप उसमें देख सकें।

यदि आप माता पिता हैं तो -

बालकों के गर्व को प्रेरणा दीजिए। पिता का बालक के संस्कार निर्माण में बड़ा गहन हाथ होता है। बालक के अज्ञान में संस्कार की ओर शक्ति देने वाली प्रेरणा चिंता ही उत्पन्न करता है। “पिता मेरे लिए आदर्श हो।” -बालक की यह कामना उसमें बड़ी प्रबल होती है। आचार निर्माण में एक बात जो माता पिता को दृष्टिगत रखनी चाहिए वह यह है कि आचरण करते समय या कोई आज्ञा देते समय बालक के गर्व को हानि न पहुँचे। आचार गतियाँ तभी स्वस्थ मन से होती हैं जब बालक के आत्म सम्मान को विकसित होने का प्रचुर अवसर दिया जाता है। बच्चों की मारकूट करना, कटु शब्द बोलना, उनका बार-बार अपमान करना मानसिक विश्वास में बड़ा अहितकर है।

घर में स्कूल होना चाहिए और स्कूल में घर- यह सिद्धान्त नव-शिक्षण का एक प्रमुख आधार है। बालक के मानसिक विकास में घर का बड़ा और प्रथम स्थान है। अतः हमें शिशु के साथ एक सभ्य पुरुष का सा व्यवहार करना चाहिए। गालियों द्वारा जो प्रेम व्यक्त होता है उसके मूल तक में घृणा, रोष, ऊब एवं प्रतिहिंसा है। बालक की अन्तरात्मा गालियाँ, डाँट, फटकार पसन्द नहीं करती। वह अन्दर ही अन्दर रुष्ट होकर प्रतिशोध सा लेना चाहती है।

बालक की जिज्ञासा को, उनकी मनोभावनाओं, हसरतों को मत कुचलिए। पग-पग पर बालक को मत पीटिये, बल्कि निर्भय एवं निश्चिन्त रहने दीजिए। माता पिता का सच्चा आनन्द बालक का पोषण कर, उसका उचित मानसिक विकास करके मिलना चाहिए उसे पददलित कर या दबा कर नहीं। बालक के दृष्टिकोण को समझिए और फिर बुद्धिमानी से उसमें परिवर्तन कीजिए, बर्बरता से नहीं।


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