मनोविज्ञान के कुछ विचित्र प्रश्न

January 1946

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(मनुष्य की इन्द्रियों की करतूतें)

मनुष्य तक पहुँचने की सड़कें-

बाह्य संसार का ज्ञान मन तक पहुँचाने के लिए हमारी इन्द्रियाँ सड़कों के समान हैं। हम स्वाद, घ्राण, श्रवण, दृष्टि, और स्पर्श इन पाँच सड़कों द्वारा मन मन्दिर में पदार्पण करते हैं। जिस व्यक्ति की कोई सड़क टूट-फूट जाती है, उसका मन संकीर्ण हो जाता है, ज्ञान न्यून हो जाता है, उसे अपने जीवन में कोई न कोई भारी कमी का बोध होता रहता है। अन्धे, बहरों की दशा पर विचार करें तो आपको विदित होगा कि इनका ज्ञान दूसरों के अपेक्षा कितना कम है। इन्द्रिय जनित ज्ञान के बिना इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, कल्पना इत्यादि किसी की सम्भावना नहीं है। यहाँ पाँच इन्द्रियों से सम्बन्धित मनोरंजक प्रश्नों पर विचार करेंगे।

प्रेम का जल भी मिश्री से अधिक मीठा है। क्यों?

जिसको हम साधारण भाषा में स्वाद कहते हैं वह केवल स्वाद ही नहीं होता वरन् अनेक तत्वों से बनी हुई मिश्रित संवेदना होती है। उसमें स्वाद के साथ-साथ गन्ध, दृष्टि, मनोभावनाओं, मनः स्थितियों का भी आश्चर्य मय सम्मिलन होता है। केवल स्वाद मात्र से बिना स्पर्श किये या देखे हुए हम बहुत थोड़े पदार्थों का नाम बता सकते हैं, प्रेम का बल आत्मभावना, अपनत्व के कारण ही इतना सुस्वाद बन जाता है। जब वह जल मुँह में जाता है तो हमें अपने प्रेमी का स्नेह, सौजन्य, दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, भाषण की मधुर स्मृतियाँ अनायास ही याद आ जाती हैं। प्रेम जल में यही मधुमयी सुधा है। किसी ने प्रेम को पीयूष कहा है। तो किसी ने हलाहल-

यह वह मिश्री की डली है, कि न इससे बात करे।

संखिया खा कर मरे, पर इश्क जवाँ पर न धरे॥

इस शैर में इश्क को सखिये से भी जहरीला बताया गया है। इसमें सिर्फ मनोभावनाओं का अन्तर है।

जुकाम में भोजन का स्वाद क्यों बदल जाता है?

जुकाम में नाक की शक्ति निर्बल पड़ जाती है। स्वाद का गंध से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। जुकाम के रोगी की गन्ध शक्ति निर्बल पड़ जाती है। जब उसे गन्ध नहीं आती, तो स्वाद में भी परिवर्तन हो जाता है। जल का स्वाद कुछ और हो जाता है और अत्यन्त सुस्वादु भोजनों में भी मजा नहीं आता। यही कारण है कि कुनैन नाक बन्द करके पीते हैं। टट्टी में नाक पर कपड़ा बाँध लेते हैं। स्वाद में गंध का अधिक भाग सम्मिलित है?

क्या स्वाद प्राकृतिक डॉक्टर है?

स्वाद पर नेत्र का प्रबल प्रभाव पड़ता है। तभी तो हल्दी इत्यादि के रंगों, चाँदी के वर्कों से भोजन को सजाते हैं। फलों के रंग देखिए उनसे उनका स्वाद प्रकट हो जाता है। बहुत से स्वाद में स्पर्श संवेदन भी सम्मिलित रहते हैं। कोमल सख्त व खुरदरे पदार्थों के स्वादों में अन्तर रहता है। जो पदार्थों के देखने, स्पर्श करने, में रोचक होते हैं, जिन्हें हमारा अन्तः मन स्वीकार करता है वे स्वास्थ्यप्रद तथा जो अस्वादिष्ट अरोचक वस्तुएँ होती हैं। वे हानिकारक सिद्ध होती हैं। मधु, फल, दूध, तरकारियाँ, खोपरा स्वादिष्ट होने के कारण स्वास्थ्यप्रद हैं। इसके विपरीत तीक्ष्ण मिर्च मसाले, मादक द्रव्य, चूरन, चटनी तथा अन्य बुरे स्वाद वाली चीजें स्वास्थ्य का ह्रास करती हैं। प्रकृति ने स्वाद उत्पन्न ही इसलिए किए हैं कि हम स्वादिष्ट वस्तुएँ खाएँ और बल, बुद्धि प्रतिमा की वृद्धि करें। खट्टा प्यास बुझाता है, नमकीन भड़काता, मीठा भूख कम करता तथा कडुआ शक्ति का क्षय करता है।

हमारी नासिका के दो द्वार क्यों हैं?

हम कौन सी हवा में साँस ले रहे हैं, वह शुद्ध है या दुर्गन्धित, उसमें कैसे-कैसे विषैले पदार्थों का सम्मिश्रण है। यह बताना और साथ ही साथ रक्त साफ करने के लिए बराबर पर्याप्त वायु पहुँचाना हमारी नासिका का कार्य है। यदि नाक का एक द्वार होता तथा वह जुकाम या और किसी कारण से कार्य न करता तो मृत्यु तक संभव थी। अब एक द्वार खराब होने पर, दूसरा फेफड़ों के लिए वायु पहुँचाया करता है। दूसरे को आराम करने का अवसर मिल जाता है।

क्या गंध मीठी हो सकती है?

गंध के लिए यह जरूरी है कि वह (Gas) गैस की तरह की हो। पुष्प, कपूर, कस्तूरी उड़ने वाली होने के कारण नाक के अन्दर लगी हुई गन्ध की कोठरी तक पहुँच जाय। गन्ध का बोध तो हमें तब ही हो सकता है जब गन्ध के परमाणु उस कोठरी तक पहुँच जाँय। मिठास कड़वापन या खटाई गन्ध के गुण नहीं हैं। ये तो स्वाद के विषय हैं। यह नाम तो विविध गन्धों के उस प्रभाव का है जो आदमी की विकार वृत्ति पर पड़ता है। एक ही गन्ध कई पुष्पों के विकार भावनाओं को भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रभाव दिखा सकती है। एक ही गन्ध एक को सुखदायक तो दूसरे को दुःख देने वाली सिद्ध हो सकती है।

श्रवण की विचित्रताएँ-

मनोजगत में नयनाभिराम चित्रों एवं सुरीली तालों की सामग्री पहुँचाने में हमारे कान का विशेष महत्व है। वायु में प्रत्येक शब्द कम्पन उत्पन्न करता है और ये लहरें हमारे कान के सूक्ष्म परदे पर प्रभाव डालती हैं। वहाँ से यह कम्पन छोटी-छोटी नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क में पहुँचते हैं।

सुरीले और कर्णकटु ध्वनियों का अन्तर हमारे मस्तिष्कों के अभ्यासों का अन्तर है। साधारणतः जो शब्द एक निश्चित उतार चढ़ाव से होते हैं। वे सुरीले तथा असमान्तर शब्द शोर मालूम होते हैं। मनुष्यों की अपेक्षा अन्य जानवरों की श्रवण शक्ति प्रबल होती है। हमारी श्रवण शक्ति में एक यह विचित्रता है कि यह इन्द्रिय अनेक भिन्न-भिन्न शब्दों को जो एक संग निकलते हैं और इस पर प्रभाव डालते हैं, यह सब ध्वनियों को भिन्न-भिन्न (Distinguish) समझती हैं। सबको एक साथ नहीं मिला डालती हैं।

मन की सामग्री जुटाने में दृष्टि का स्थान-

नेत्र प्रकाश तथा रंग को ग्रहण करते हैं और अन्य इन्द्रियों से संयुक्त होकर कार्य करते हैं। रंग बिरंगी मिठाइयों फलों इत्यादि को देख कर अनायास ही मुँह में पानी भर आता है। यह इन्द्रिय भी वायु कम्पनों से प्रभावित होती है। जब मस्तिष्क पर चोट लगती है। दृष्टि नाड़ी उत्तेजित होती है और उस उत्तेजना का प्रभाव मस्तिष्क तक पहुँचता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मन को ज्ञान से परिपूर्ण करने में नेत्रों का विशेष भाग है।

दृष्टि आँख मिचौनी खेलती है।

एक सीधी लड़की जल में टेड़ी मालूम होती है। रात्रि में मार्ग में पड़ी हुई रस्सी काला सर्प प्रतीत होती है। तेज धूप में दूर पर चमकीली रेत पानी से भरा हुआ तालाब मालूम होती है। अत्यन्त दूरी पर स्थित पर्वत श्रेणियाँ बिल्कुल निकट दिखती हैं। डरा हुआ व्यक्ति छाया को भूत समझता है। सिनेमा के पर्दे पर तसवीरें चलती फिरती मालूम होती हैं। सुन्दर पुरुष के साथ खड़ा हुआ कुरूप आदमी और भी बदसूरत मालूम होता है। चावल बेचने वाले ज्यादातर चावल काले कम्बल पर डाल कर उनकी खराबी को दबा देते हैं, यह सब नेत्रों का भ्रम है।

*समाप्त*


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