नवजीवन का पथ प्रदर्शक मनोविज्ञान

January 1946

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

नवजीवन का पथ प्रदर्शक-

मनुष्य शरीर का अध्ययन करने के पश्चात् जिस महान् शक्तिशाली यंत्र पर हमारी दृष्टि केन्द्रित हो जाती है, वह है उसका अद्भुत मन। जिसके बल पर आज वह अन्य बलशाली जीवधारियों को पीछे धकेल कर समस्त भूमण्डल का अधिपति बन बैठा है। कदाचित् मानव मन से आश्चर्यजनक वस्तु संसार में दूसरी नहीं है। हमारी प्रत्येक अनुभूति, चिन्तन, मनन, निरीक्षण, क्रियाशीलता का मूल केन्द्र हमारा मन है। भय, साहस आनन्द, उद्वेग, विकार, संकल्प, संवेदन क्रोध, क्षोभ इत्यादि आन्तरिक भावनाओं का उदय भी हमारे मन से संयुक्त स्नायु तंतुओं, क्रियाओं, एवं प्रवृत्तियों द्वारा होता है। मनुष्य किन परिस्थितियों में क्या सोचता है? इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख कल्पना, संकल्प, ज्ञान किस प्रकार होते हैं? मानसिक वृत्तियों का मर्म, उनकी नियमबद्ध व्याख्या एवं कार्यशैली का शास्त्रीय अध्ययन मनोविज्ञान का विषय है।

मनोविज्ञान विज्ञान है, कला नहीं -

मनोविज्ञान का कार्य यह स्पष्ट करना नहीं है कि संवेदन, विचार, कल्पना आदि कैसे होने चाहिए किन्तु ये क्या हैं, कैसे उत्पन्न होते हैं, क्यों उत्पन्न होते हैं, और किन-किन नियमों के अनुसार उत्पन्न होते हैं, “कैसे होने चाहिए”- यह कला का विषय है। नियमबद्ध कार्य कला है नियमबद्ध व्याख्या विज्ञान, मनोविज्ञान आपको यह बतायेगा कि कल्पना क्या है? क्या, कैसे, कब उत्पन्न होती है? उसकी क्रिया प्रक्रियाएं क्या हैं? इसी प्रकार मनन (ढ्ढठ्ठह्लह्शह्यश्चद्गष्ह्लद्बशठ्ठ) निरीक्षण (ह्रड्ढह्यद्गह्क्ड्डह्लद्बशठ्ठ) परीक्षा (श्वफ्श्चद्गह्द्बद्वद्गठ्ठह्लह्य) स्मृति (रुद्गद्वशह्ब्) संवेदन, अवधान (्नह्लह्लद्गठ्ठह्लद्बशठ्ठ) चेतना, विकार (स्नद्गद्गद्यद्बठ्ठद्द) संकल्प (ख्द्बद्यद्य) प्रतिफल क्रियाएँ (क्रद्गद्धद्यद्गफ् ड्डष्ह्लद्बशठ्ठह्य) इत्यादि कैसे होती हैं? क्या है? किन मूल नियमों द्वारा संचालित होते हैं? इनका कार्य क्या है? -ये सब व्याख्याएं और उनका नियमबद्ध वर्णन मनोविज्ञान के विषय हैं। इन मानसिक वृत्तियों का प्रयोग कैसे होना उत्तम या श्रेष्ठकर (ह्रह्वह्लद्धह्ल ह्लश ड्ढद्ग) है? -यह सब प्रश्न कला के अंतर्गत हैं। मनोविज्ञान हमें आन्तरिक शक्तियों का ज्ञान, उनके विकसित करने के नियम, प्रभाव, मानसिक उलझनों का “क्या, क्यों, कैसे” स्पष्ट करता है।

हमारा अद्भुत मन-उसका स्वभाव एवं आदतें-

मन का निवास स्थान मस्तिष्क है। मन संवेदनशील एवं विचारों का पुँज है। चेतना, संवेदन, उपलब्धि, स्मृति, कल्पना, विचार, भाव, संकल्प इत्यादि मन की मुख्य वृत्तियाँ हैं। जगत् स्वयं मन की एक कल्पना मात्र है। मन के साथ-साथ संसार की स्थिति है। जैसे हमारा मनोराज्य है, जैसे हम स्वयं हैं, वैसे ही जगत भी है। सब प्रकार के सुखों या दुःखों की सृष्टि भी हमारे मन के द्वारा ही होती है। मन स्वप्न की भाँति निरन्तर भ्रमजाल के ताने बाने प्रस्तुत किया करता है।

मन विचारों का वृहत् भंडार है। इन सब विचारों का स्रष्टा “अहं” का विचार है। मन स्वभाव से ही चंचल है। वह एक क्षण में संसार के एक सिरे से दूसरे सिरे पर चक्कर लगा देता है। वह इन्द्रियों को निरन्तर नाच नचाया करता है। वह स्थिर रहना नहीं चाहता प्रत्युत सदैव परिवर्तन, विभिन्नता, नई-नई उत्तेजनाएँ उसे प्रिय हैं। परस्पर दो विरोधी तत्वों का द्वन्द्व कराना, कभी इधर तो कभी उधर तेजी से दौड़ना उलटी बातों को भड़काना, प्रयोजन में फँसाना, कभी डराकर थर-थर कँपा देना तो कभी हँसा हँसा कर पेट में बल डाल देना उसकी विभिन्न क्रियाएँ हैं। उसका स्वभाव नित आनन्द, प्रसन्नता, मजेदारी की ओर उन्मुख होता है। वह बहिर्मुख होकर जरा जरा सी वस्तुओं के आकर्षण में फँस जाता है। और इन्द्रियों को अतृप्त, प्रदीप्त, उत्तेजित कर देता है। वह लड़ाई कराना जानता है किन्तु एक्य, समस्वरता, संतुलन शान्ति की बात भी नहीं सोचना चाहता।

मन ज्ञान तंतुओं में क्षोभ उत्पन्न कर चित्ररूपी सरोवर में तरंगें उत्पन्न कर डालता है, बलात्कार बाहरी जगत् के मिथ्या पदार्थों को सींचता है। वह स्वभावतः एकाँगी है पर अनुकरण करना खूब जानता है। कभी कभी वह हृदय को खूब जलाया करता है और हमें चिंता के अथाह सागर में धकेल देता है। एक समय में मन में एक ही विचार आता है। किन्तु वह तीव्र गति से घूमता है। ध्वनि मन को विविध कार्यों के लिए प्रेरित करती है। मन की चंचल वृत्ति और व्यग्र रहने की स्थिति हमारे शारीरिक बल का क्षय करती है। बुरी आदतों, बुरी वासनाओं, बुरी बातों के लिए अच्छी बातों की अपेक्षा मन में अधिक सुझाव रहता है।

मन का संचालक-

जहाँ तक इन्द्रियों का सम्बन्ध है, वहाँ तक मन मालिक का कार्य करता है, खूब तेजी, छीना झपटी दिखाता है किन्तु हमारे विवेक, बुद्धि, तर्क एवं आत्मा के सामने यह अकिंचन भृत्य की भाँति आज्ञाकारी है। विनम्र है और उनका दास है। आन्तरिक हलचलों को शान्त करने के लिए शुद्ध बुद्धि, तीव्र विवेक एवं अंतर्दर्शन की आवश्यकता होती है। आत्मा मन की प्रेरक सत्ता है। हम नित्य प्रति देखते हैं कि अनेक पुरुष शान्ति के लिए चिल्लाया करते हैं, अशान्त और अस्थिर रहते हैं, पुराने लकीर के फकीर बने रहते हैं। इसका प्रभाव कारण यही है कि वे शुद्ध बुद्धि को विकसित नहीं होने देते। तीव्र विवेक से मन की सात्विक अवस्था के द्वार खुलते है।

मानसिक शक्तियों को बढ़ाने के उपाय-

मानसिक शक्तियों को पुष्ट एवं विकसित करने के हेतु उनका निरन्तर उपयोग करते रहना अनिवार्य है। उपयोगहीन वस्तु निर्बल होकर नष्ट भ्रष्ट हो जाती है। मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का विकास व संवर्धन 35 वर्ष की अवस्था तक होता है। तत्पश्चात् हमारा केवल अनुभव ज्ञान ही बढ़ता है।

मन की अति चंचलता, अस्थिरता एवं व्यग्रता ज्ञान तन्तुओं में क्षोभ उत्पन्न करती है और उद्वेग उत्पन्न होते हैं। मनुष्य थक कर चूर-चूर हो जाता है अतः मन को निष्क्रिय करने से, उसे विश्राम देने से, व्यापारों की दौड़ से रोकने पर उसके बल का रक्षण एवं संचय हो सकता है। मन को विश्राम देना एक ऐसी कला है जिससे प्रत्येक स्त्री पुरुष, धनवान निर्धन, अक्षय शान्ति लाभ प्राप्त कर सकता है। अक्रिय अवस्था, निःसंकल्प अवस्था मन की स्वस्थ अवस्था है। यह अवस्था मन की समस्त वृत्तियों का किसी एक केन्द्र पर एकाग्र करने से प्राप्त होती है। अंतःकरण के गहन प्रदेश में उतर कर प्रेरक सत्ता से सामंजस्य प्राप्त करने से साधक यह उच्च भूमिका स्वयं ही प्राप्त कर सकता है।

मन को बलवान बनाने के लिए मन के व्यापार को रोको। इन्द्रियों का निष्क्रिय करो। मस्तिष्क में कोई विचार न आने दो। उसे खाली (क्चद्यड्डठ्ठद्म) बनाओ। मन को व्यर्थ के बोझ (अर्थात् फिजूल की चिंताओं) से मत लादो। बाह्य वस्तुओं से हटाकर चैतन्यघन परमात्मा की ओर मोड़ों और ऐसा सोचो- “हृदय के मध्य बिंदु में केंद्रित चैतन्यघन परमात्मा की प्रेरक सत्ता से मैं अपना संबंध स्थापित कर रहा हूँ। मैं शुद्ध विचार सेवन, सबके साथ प्रेम, विकट दुःख में शाँति, शोक, दुःख, क्लेश में विकार रहित, रहता हूँ। मेरा अंतःकरण शाँत है।”

मनोजय की समस्या-

वही व्यक्ति सुखी है जिसके मन में व्यक्त एवं अन्यक्त (ncons cions) में पूर्ण संतुलन है क्योंकि व्यक्त तथा अव्यक्त मन के पूर्ण मतैक्य (Harmony) का नाम ही मोक्ष है। यह आनन्दवस्था तभी प्राप्त होती है जब मन पूर्णतः साधक के वश में हो। अतः जीवन का समस्त सुख मन की विजय में ही हो जाता है। जब अंतर्जगत का कोलाहल शाँत हो जाता है तो बाह्य जगत में भी जीत हो जाती है।

मन का प्रथम शत्रु उद्वेग है। जब दो भिन्न भावों में द्वन्द्व होता है और हम कर्तव्य निश्चय नहीं कर पाते तो उद्वेग की परिस्थिति उत्पन्न होती है। उद्वेग वासनाओं के प्रति राग उत्पन्न कराता है और उन वासनाओं की तृप्ति मनुष्य का बहिर्मुखी बना देती है।

मन का दूसरा शत्रु है आलस्य। आलसी मनुष्य राग द्वेष के वशीभूत रहता है। उसकी शक्तियाँ प्रायः निष्क्रिय बनी रही है। मन में इस दुर्गुण का प्रभुत्व होने से निराशा की वृद्धि होती है तथा सद्गुणों का क्षय होता है। उद्वेग और आलस्य में प्रायः हमारा मन ऐसी बातें कर बैठता है कि पूरी आयु पछताना पड़ता है। इनसे मन की शक्ति का क्षय होता है।

मन की साधना करने वालों को सर्वप्रथम उक्त दो शत्रुओं के अतिरिक्त विलास, प्रमाद, निंदा, विषयभोग तथा व्यर्थ वार्त्तादि में अपने अमूल्य समय का नाश नहीं करना चाहिए। संसार के सम्पूर्ण पदार्थों में और कर्मों में ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग करने का अभ्यास करना चाहिए। चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट इत्यादि निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग, काम्य कर्मों का त्याग, तृष्णा का सर्वथा निराकरण करना चाहिए। मन की विजय अपने ही प्रयत्न से प्राप्त होती है। अतः अपने पदार्थों में दृढ़ इच्छा से प्रेरित होना चाहिए।

मन को लोक हितकारी, कर्मों तथा आत्म प्रतीति में लगाइए। मन की कल्पनाओं से उत्पन्न अनेकता के भावों से जो दुःख या बंधन प्रतीत होता है, उनको सबकी एकता के दृढ़ निश्चय से मिटाकर जगत में साम्य भाव से व्यवहार करना और सबके हित में रत रहना ही मोक्ष है। ज्यों-ज्यों मन में आत्मा की प्रतीति होती जाती है, त्यों-त्यों मन पर हमारा काबू बढ़ता जाता है।

मनोविज्ञान की दृष्टि से स्वर्ग नर्क क्या है?

मन अपनी कल्पना द्वारा रंग बिरंगी सृष्टियाँ नित निर्माण किया करता है। स्वर्ग एवं नरक भी मन के सूक्ष्म भाव हैं। जगत में किए गए कर्मों के पुरस्कार या ताड़ना- इन दो विरोधी भावों से मनोजगत में स्वर्ग एवं नर्क की रचना होती है। मन ही अपने कर्मानुसार स्वर्ग और नर्क की कल्पनाएं किया करता है।

प्रत्येक मनुष्य, जाति तथा देशों के स्वर्गों तथा नर्कों की कल्पनाएँ भी वहाँ के आदर्शों, अदूतों एवं सुखों के अनुसार पृथक-पृथक हैं। जिस प्रकार हमारा मन स्वप्नावस्था में तरह-तरह के चित्रों का निर्माण करता है, अव्यक्त की प्रसुप्त वासनाओं से रंजित होकर अनेक रहस्यमय लीलाएँ करता है, उसी तरह मन भी वासनामय सूक्ष्म शरीर से अपनी कल्पना के अनुसार स्वर्ग और नर्क का बनाव करके सुख या दुःख भोगता है।

जो व्यक्ति शुभ कामनाओं में निरत रह कर लोक कल्याण के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं उनका मन उन शुभ कर्मों के लिए कोई केन्द्र (Centre) ढूँढ़ लेता है यह केन्द्र ही स्वर्ग है। इसके विपरीत दूसरों को दुःखी करने वालों की अव्यक्त चेतनाएँ उन्हें अन्दर ही अन्दर अव्यक्त रुप से डराया करती हैं। ऐसे व्यक्तियों का मन भयंकर फलों की कल्पना में लगा रहता है और मलीन भावों के कारण मृत्यु पश्चात् दुःखदायी नर्कों की कल्पना करता है। वस्तुतः स्वर्ग और नर्क मन की उत्कृष्ट एवं निकृष्ट भूमिकाएँ हैं।

प्रेरणा का मूल केन्द्र-

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा (Inspiration) की परिभाषाएँ गढ़ने का प्रयत्न किया है। कुछ परिभाषाएँ देखिए-

“प्रेरणा ईश्वर ज्योति है जो सात्विक प्रकृति के महापुरुषों को अपना जीवन कार्य करने का आदेश तथा उत्साह देती है।”

“प्रेरणा मनुष्य के अन्तःस्थित अगाध सामर्थ्य को बाहर प्रकट करने की चेतावनी है। हमारे मनः प्रदेश में जो वास्तविक सामर्थ्य है, उसका बहुत थोड़ा हिस्सा बाह्य जीवन में प्रकट करते हैं। प्रेरणा हमारी आत्मा को देदीप्यमान कर मनुष्य को आगे धकेलती है।”

आधुनिक मनोवैज्ञानिक प्रेरणा को ईश्वरीय आवाज या निर्देश नहीं मानते। परमेश्वर किसी अजब तरीके से हमसे कोई विशेष कार्य करने का संकेत करता हो-सो बात नहीं है। आधुनिक मनोवेत्ताओं ने ऐसी अद्भुत प्रक्रियाओं का केन्द्र मनुष्य का अव्यक्त मन (nconscious mind) माना है। वे यह नहीं मान सकते कि प्रेरणा कोई नवीवन चिंगारी है जो हमारे भीतर की गुप्त अग्नि को प्रज्वलित करती है।

उनके अनुसार सब कुछ सामर्थ्य हमारे अव्यक्त प्रदेश में पहिले से ही प्रस्तुत थी। गुप्त रूप से समस्त शक्ति पहले से ही अन्तःस्थित थी। हम उससे अपरिचित रहे, अतः वह यों ही निश्चेष्ट पड़ी रही। वह अप्रकट रूप से प्रस्तुत थी, किन्तु उस पर मिट्ठी कीचड़ की पर्त जम जाने के कारण वह व्यक्त (Conscious) या चेतन मन के केन्द्र से बहुत दूर जा पड़ी थी। वह छुप कर अव्यक्त के किसी कोने में बैठ गई थी। उपयुक्त अवसर, उपयुक्त परिस्थिति या उपयुक्त वातावरण पाकर या किसी ठेस के संघर्ष से एकाएक वह गुप्त सामर्थ्य के रूप में प्रकट हो गई। उन आश्चर्यजनक सामर्थ्यों को देख कर मनुष्य ने समझा कि कोई नवीन अदृष्ट शक्ति शरीर में प्रवेश कर गई।

महान् कार्य का अद्भुत बीज पहले से ही वर्तमान था, किन्तु उसके इर्द-गिर्द ऐसी उर्वरा भूमि न थी कि वह अंकुरित, पल्लवित या फलित हो पाता। उसे अनेक तत्वों के सहयोग की आवश्यकता प्रतीत होती है जो उसे अंकुरित होने में सहायता प्रदान करें। इन तत्वों के अभाव में मनुष्य यह मान बैठते हैं कि उनमें ऊँचा उठने की क्षमता नहीं है। मन के अव्यक्त प्रदेश के बीज कब अंकुरित हो उठे, यह कोई नहीं कह सकता। अतः आधुनिक मनोवैज्ञानिक प्रेरणा को मन के अगाध सामर्थ्य की प्रतीति ही मानेगा।

मनुष्य किसी दैवी शक्ति से प्रेरित होकर महान् आश्चर्यजनक कार्य कर डालते हैं और उन्हें देख कर लोग चकित रह जाते हैं। आप मनोवैज्ञानिक से उन चमत्कारों का कारण पूछिए तो वह कहेगा-

“प्रेरणा कोई दैवी शक्ति नहीं। महान कहलाने वाले व्यक्तियों के अंतःकरण में पहले से ही गुप्त सामर्थ्य का भंडार निहित था। सामंत अद्भुत कृत्यों का भंडार अन्यक्त मन ही है। ये व्यक्ति प्रारम्भ में इस अक्षय भंडार से अपरिचित थे, भूले हुए थे। किसी ठेस से एकाएक मन के अव्यक्त प्रदेश से सामर्थ्य का यह स्रोत फूट पड़ा। यह कोई नई वस्तु नहीं। वह तो प्रारम्भ से ही अव्यक्त क्षेत्र में केन्द्रित था। उसे केवल एक ठेस (स्ह्लद्बद्वड्डद्यद्गह्य) की आवश्यकता थी।

मनुष्य की मृत्यु का प्रधान कारण-

मनोविज्ञान की दृष्टि से मनुष्य स्वयं अपने आप को मारता है, कारण उसे जन्म से ही अन्य व्यक्तियों को देखते-देखते मरने का भय (Fear) लगा रहता है। पूर्व स्मृति तथा संवेदन विकारों का प्रभाव शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग पर पड़ता है। विकारों (Feelings) के दो मूल स्रोत हैं, एक संवेदन, दूसरा विकार। कुछ विकार संवेदनों (Sensation) से उत्पन्न होते हैं। दूसरे प्रकार के भाव विचार से उत्पन्न होते हैं। इन्हें क्षोभ कहते हैं। क्षोभ मन में स्थाई रूप से अंकित होकर दुःख का कारण बनते हैं। मृत्यु के भय से जो प्रतिमाएं मनोजगत में उठती हैं, उनसे क्षोभ बढ़ता है। क्षोभ से दुःख, तथा दुःख से भय निरंतर बढ़ता है।

जब मनुष्य की आयु बढ़ती जाती है और वह खाने-पीने, मैथुन, विचार आदि में असंयम करने से अशक्त एवं दुःसाध्य रोगों से पीड़ित हो जाता है तो उसे मृत्यु की स्मृति बार-बार सताने लगती है। वह निरंतर दूषित कल्पना का शिकार बना रहता है और सोचता है कि अब मेरे दिन पूरे होने वाले हैं, बाल श्वेत हो गये, अंग अशक्त हो गए, दाँत गिर गए, नेत्रों से सूझता नहीं। रात दिन यही मृत्यु का भय उसे ग्रसित करने लगता है और एक दिन वह काल का ग्रास बनता है।

मनोवैज्ञानिक इसे मानसिक शक्ति का दुरुपयोग कहते हैं। प्रत्येक क्षोभ का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। भय से विचार शक्ति स्थिर हो जाती है और विपरीत दिशा में कार्य कर हमारी मृत्यु का कारण बनती है। मृत्यु रोकने का एक ही उपाय है और वह है स्वास्थ्य, सुख एवं शाँति में हमारा मनः विश्वास।

प्रार्थना के चमत्कार-

प्रार्थना एक प्रकार का आत्म संकेत है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह हमारा ध्यान चेतन मन की ओर से अचेतन मन (गुप्त मन) की ओर खींच कर मानसिक लीला के उस विशाल क्षेत्र की ओर जिसका हमारे चेतन मन में कभी भान भी नहीं होता, आश्चर्यजनक कार्य करता है। प्रार्थना के सूक्ष्म निर्देशों द्वारा जब हम शक्ति के उस मूल-स्रोत के निकट पहुँच जाते हैं जिसकी तीव्र धारा प्रत्येक जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन कर देती है।

अव्यक्त मन, प्रार्थना के कार्य का क्षेत्र है। इस शक्ति सागर का अन्वेषण बहुत ही श्रम पूर्ण तथा दुःसाध्य है। गुप्त मन ही हमारी स्मरण शक्ति सामर्थ्य तथा अनेक गुप्त शक्तियों का भंडार है। यहाँ पर जीवन में घटने वाली घटनाएं तथा वत अंकित होती रहती हैं। मनुष्य और कुछ नहीं, एक प्रकार से इन्हीं घटनाओं का समष्टि रूप है। हम सबका बाह्य स्वरूप तो केवल आवरण मात्र है, हमारा वास्तविक व्यक्तित्व तो अंतर में ही निवास करता है। गुप्त मन हमारी शक्तियों का महान केन्द्र है। इसकी कार्य प्रणाली अत्यंत जटिल है।

हमारे प्रत्येक कार्य पर प्रत्येक क्षण गुप्त मन का निरीक्षण रहता है, हमारी बुद्धि तो शारीरिक समस्याओं की जटिलता को देखकर चकराती रहती है। गुप्त मन के महत्व, शक्ति, कार्य प्रणाली, के सन्मुख चेतन मन की कोई गणना नहीं की जा सकती।

जिस प्रकार प्रत्येक चेतन वस्तु का अचेतन जगत में ही सर्वप्रथम सूत्र पात होता है, उसी प्रकार प्रत्येक चेतन भावना उस अचेतन क्षेत्र में प्रविष्ट होकर हमारे व्यक्तित्व की एक स्थायी वृत्ति होकर उसे प्रभावित करती है। प्रार्थना ऐसी ही एक चेतन भावना (आत्म-सूचना) है जो हमारे मानसिक संगठन कार्य में उचित भाग लेती है।

प्रार्थना में जब आप कहते हैं- “सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की मुझ पर महती कृपा है, उनकी दया दृष्टि मेरे कर्मों को उचित मार्ग पर लगाती है, कोई प्रतिकूल परिस्थिति मुझपर प्रभुत्व नहीं कर सकती। विषम परिस्थिति से उद्धार करने वाला मेरे भीतर विद्यमान है। अतः मैं विकट से विकट प्रतिकूलता से भी विचलित नहीं होता” -तो ये सब आत्मसंकेत हमारे अन्तर की अचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तथा वह सत्त्वस्थ होकर हमारे मानसिक जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है।

प्रार्थना एक प्रकार से स्वेच्छित आत्म संकेत है। यह संकेत ही हमारे अचेतन जगत में कार्य कर हमें ऊपर उठाकर कार्य शक्ति का नव भंडार खोल देता है। शरीर तथा मन के समस्त रोगों को दूर करने के लिए प्रार्थना की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है। वास्तव में प्रार्थना कोई नई शक्ति उत्पन्न नहीं करती प्रत्युत स्वयं हमारी सोती हुई निश्चेष्ट शक्तियों को उत्तेजित कर देती है। प्रार्थना का अचेतन वृत्ति पर ही प्रभाव पड़ता है और यही फल फूल कर प्रायः एकाएक प्रकट हो सबको चकित कर देती है।

मानव जीवन की प्रचंडतम शक्ति-

इस विषय में पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक फ्राइड के विचार बड़े विचित्र एवं क्रान्तिकारी हैं। आपने काम वासना (Sex impulse) को मानव जीवन की मूल शक्ति माना है। आपका विचार है कि संसार के प्रत्येक मानव में यह शक्ति प्रचंड रूप से कार्य कर रही है अन्तर केवल इतना ही है कि कुछ में इसका शोधित स्वरूप है तथा अन्य में असंयमित एवं उग्र स्वरूप। प्रत्येक प्रकार के आकर्षण में कामलिप्सा अन्तनिर्हित है। माता-पुत्र, पिता-पुत्री तक के आकर्षण में कामलिप्सा व्याप्त है। यही नहीं कि कामलिप्सा के लिए विषय लिंग (Opposite Sexes) आवश्यक हों, समलिंग व्यक्तियों तक में गुप्त रूप से कामलिप्सा आकर्षण का कारण बन जाती है। कामलिप्सा विहीन आकर्षण असंभव है।

फ्राइड महाशय ने ईश्वर भक्ति, देशभक्ति, पितृ भक्ति, वात्सल्य इत्यादि की मूल प्रवर्त्तक शक्ति काम वासना को ही मान लिया है। नाचने, गाने, वस्त्राभूषण से सुसज्जित होने, शृंगार करने, चित्र, सिनेमा, नाटक देखने, परिमार्जित कलाओं के अध्ययन, कविता, सौंदर्योंपासना इत्यादि में इसी तृप्ति को प्रधानता दी है। जुँग इत्यादि का मत है कि फ्राइड साहब ने काम शक्ति को आवश्यकता से अधिक महत्व प्रदान कर दिया है। हमारा “अहं” भाव मानव जीवन की वास्तविक प्रेरक शक्ति है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118