जनता की मनोवृत्तियों से लाभ उठाइये।

January 1946

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(जन-समुदाय का मन कैसे कार्य करता है?)

यदि आप उच्चपदा सीन हैं, उपदेशक या वक्ता का कार्य करते हैं, किसी स्कूल में अध्यापक हैं, तो आपको जनता (Miasses) की मनोवृत्तियों से अवश्य परिचय प्राप्त करना चाहिए। आपको जनता के मन की कार्य प्रणाली, उनकी इच्छा, अभिलाषा, प्रभाव डालने के गुप्त उपाय उन्हें उत्तेजित करने की शास्त्रीय प्रणाली अवश्य जाननी चाहिए। राष्ट्रीय क्षेत्र में कार्य करने वाले नेताओं को जनता की अन्तश्चेतना की जानकारी प्राप्त करना अति आवश्यक है।

जनता की मनोवृत्तियाँ -

जनता में तथा एकत्रित जन समुदाय में विचार शक्ति दबी रहती है। कई विद्वानों का मत है कि जनता की विचार शक्ति कल्पना तथा भाव या विकार द्वारा आच्छादित होकर पंगु हो जाती है। जनता पर कुछ हियनोटिक प्रभाव इस प्रकार पड़ता है कि विचारशक्ति निर्बल हो जाती है, अन्य मानसिक शक्तियाँ जैसे- तर्क शक्ति, तुलना शक्ति, स्मरणशक्ति, उद्योग शक्ति, भी कुछ काल के लिए बलहीन हो जाती है। जनता की विचार प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है। उसमें किसी वस्तु का प्रत्यक्ष स्मरण एवं कल्पना इस प्रकार सम्मिलित रहता है कि उसे पृथक करना कठिन है। प्रत्येक विचार के तीन अंग हैं संविता अर्थात् निरीक्षण, निर्धारण एवं तर्कना। जनता की विचार धारा में तर्कना का अंश अत्यन्त न्यून होता है। किसी निर्धारण में सत्य या असत्य का कितना अंश है, कौन सी बात ठीक-ठीक कही गई है तथा कौन सी बिल्कुल निराधार है- यह निर्णय करना जनता की बुद्धि से कुछ समय के लिए दूर हो जाता है। वे सही तथा गलत में अंतर नहीं मालूम कर पाते। वक्ता जैसा संकेत करता है। उसे वे ठीक मानने लगते हैं तो अन्त तक सब कुछ ठीक ही मानते चले जाते हैं।

विचार की अस्थिरता -

कुछ समय के लिए श्रोताओं की विचार शक्ति अस्थिर हो जाती है या यों कहिए कि वह बिल्कुल मन्द सी पड़ जाती है। वह संवितों एवं निर्धारणों की तुलना नहीं कर पाती। संवितों (Ideas and concepts) की तुलना निरंतर होनी चाहिए। इनके परस्पर सम्बन्धों का निश्चय भी लगातार होना चाहिए। जो सम्बन्ध सत्य हों उनको स्थिर करना चाहिए। यही युद्ध विचार क्रिया है। किन्तु जनता इन सम्बन्धों की सत्यता पर शक शुबा नहीं करती। वह मेल बेमेल बातों में अन्तर नहीं निकाल पाती प्रत्युत कुछ का कुछ समझ लेती है। कभी-कभी तो ऐसा देखा गया है कि वो विरुद्ध निर्धारण तक जनता के मन में स्थित हो जाया करते हैं।

जनता की विवेक शून्यता-

नवीन निर्धारणों का पूर्व निर्धारणों के अनुकूल न होने से जनता की विवेक शून्यता- स्पष्ट हो जाती है। जनता के मन को एक निश्चित दिशा में कार्य करते-करते इतना अभ्यास हो जाता है कि वह उसी मार्ग पर चलने का आदी हो जाता है। नवीन दिशा ग्रहण करना तथा पुरानी लकीर को छोड़ना उसके लिए अत्यन्त कठिन हो जाता है। जो विचार जनता के पूर्व संचित विचारों, निर्धारणों से मेल नहीं खाते वे असत्य कहे जाते हैं। जनता सोचते समझते हुए भी विवेक शून्यता दिखाया करती है। यही कारण है कि वृद्ध हिन्दू जाति नवीन उदार विचारों को स्वीकार नहीं करती और हानि उठाने पर भी पुरानी लकीर के फकीर बनी हुई है।

जनता की भावनाएं भड़काइये-

जनता भाव प्रधान (Full of feeling) होती है। उससे क्षोभ (Emotion) तथा विकार सरलता से उत्तेजित किये जा सकते हैं। भावावेश में उत्तेजित होकर जनता कुछ का कुछ कर देती है। उसे यह विवेक ही नहीं होता है कि वह क्या कर रही है। फ्राँस की राज्य क्रान्ति में जनता ने भड़क कर जो रक्तपात किया था उसे प्रत्येक इतिहास का विद्यार्थी जानता है। भाव की भूख जनता भगवान श्रीराम के साथ किस प्रकार वनवास के लिए चली गई थी इससे भी प्रत्येक हिन्दू परिचित है।

जो वक्ता हाथ पटक-पटक कर या आवाज ऊँची नीची कर जनता को उत्तेजित कर लेता है। उसके वश में जनता आ जाती है तथा उसी के आदेशानुसार कार्य करने लगती है। भक्ति भाव से पूरित होकर जनता झूमने लगेगी, प्रत्येक व्यक्ति गा उठेगा। ताली पीटने लगेगा और उनके मुखों से प्रेम भाव प्रकट होने लगेगा। क्रोध से मत्त होकर जनता हथियार निकाल लेगी और दांतों से कच्चा चबा डालने को प्रस्तुत हो जायेगी। दुःख से अभिभूत होकर जनता रो उठेगी। पत्थर का हृदय भी जनता में मिल कर अपने को न संभाल सकेगा। हास्य में विभोर होकर वे प्रत्येक उचित अनुचित बात पर हँसेगा। मजाक बनावेंगे, पागलों की तरह क्रियाएँ करने लगेंगे। होली के दिनों में मजाक बनाती हुई जनता के सामने कैसा ही साफ सुथरे वस्त्र वाला व्यक्ति क्यों न आ जाय अवश्य मजाक का शिकार बन जायगा।

जनता अपने क्षोभ या भावना की उत्तेजना के अनुसार कार्य करती है अतः चतुर व्यक्ति को जनता की भावनाएँ प्रदीप्त करने का उपक्रम करना चाहिए। मनुष्यों का हृदय एक विचित्र सरोवर है और भाव या विकार उसकी अद्भुत लहरें हैं। वक्ता को यह मालूम करना चाहिए कि किस समय कौन सी लहर उठेगी। कभी कोई भावना उत्तेजित हो उठती तो कभी दूसरी। बीच-बीच में विभिन्न मनः स्थितियाँ बनती रहती हैं। सिद्धहस्त कार्य कर्त्ता जनता के क्षोभ-केन्द्रों पर बड़ा ध्यान रखते हैं।

कौन-कौन भावनाएँ अधिक उत्तेजित होती हैं?

यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर पर्याप्त प्रकाश पड़ चुका है। जनता पर ललित क्षोभों (सुन्दर चित्र, मनोहरी गाने, बाजे, उत्तेजक दृश्यों) का प्रभाव अत्यधिक पड़ता है। सौंदर्य सम्बन्धों क्षोभों के लिए जनता प्रस्तुत रहती है। ललित क्षोभ दो ओर से जनता पर प्रभाव डाल सकते हैं। ये दो इन्द्रियाँ हैं। चक्षु एवं कर्ण। बात यह है कि इन दो से तत्काल आनन्द प्राप्त होता है। ललित क्षोभों को हम बखूबी अन्य व्यक्यों के साथ भोग सकते हैं।

ललित क्षोभों के लिए यह जरूरी नहीं कि वे सदैव पवित्र ही हों। किन्तु अक्सर देखा गया है कि पवित्र सौंदर्य क्षोभों का प्रभाव अधिक पड़ता है। भक्ति भाव को हम ललित क्षोभों के अंतर्गत ले सकते हैं। भक्ति भाव उमड़ने से जनता के मन में आनन्द लहराने लगता है। देश प्रेम की भावनाएँ भी बड़ी तेजी से जनता में फैलती हैं और उन्हें उत्तेजित कर देती हैं। इसी प्रकार क्रोध, आवेश तथा प्रति क्षोभ की भावनाएँ भी अत्यधिक उमड़ सकती हैं। प्रतिरोध की भावनाएँ कभी-कभी जनता के रग रेशे तक में प्रवेश कर जाती हैं। जो ज्वालामुखी पर्वत की तरह अन्दर ही अन्दर सुलगा करती हैं और फिर एक दम प्रकट हो जाती हैं।

जनता की अनुकरण प्रियता-

जनता वैसा ही करती है जैसा एक व्यक्ति करना शुरू कर देता है। उदाहरणार्थ यदि जनता में से एक व्यक्ति पत्थर उठा कर फेंकने लगे, तो अन्य व्यक्ति भी उसी तरह पत्थर उठाकर फेंकने लगेंगे। जिन वचनों का एक उच्चारण करेगा। अन्य व्यक्ति बिना समझे बूझे वैसा ही दुहराते चले आवेंगे। जैसा उपदेशक करने को कहेगा, वैसा ही भोली जनता करती चली जायगी।

अनुकरण शक्ति जनता के जीवन की एक बड़ी शक्ति है। हमारे नित्य प्रति के जीवन में भी इसका एक बड़ा भाग रहता है। हम बहुधा दूसरों के कार्यों का अनुकरण बिना, उपयोगिता पर विचार स्थिर किए किया ही करते हैं। वे ही कार्य हमें रोचक भी मालूम पड़ने लगते हैं। इसी प्रकार जनता में खड़ा हुआ एक विचारशील सज्जन भी कभी-कभी पाशविक वृत्तियों का शिकार हो जाता है। वह जैसी संगति में बैठता है, वैसा ही करता है। संगी साथियों की क्रिया प्रक्रियाएं वैसा ही प्रभाव, वैसा-वैसा ही संस्कार उस पर डालती हैं। जनता में या श्रोताओं में बैठ कर मनुष्य का चित्त सदा सावधान नहीं रह पाता। कभी-कभी हम जनता के आवेश को देख कर इतना चन्दा दे बैठते हैं कि बाद में पछताते हैं। जनता की अनुकरण प्रियता संगति का प्रभाव स्पष्ट करती है।

जनता की पूर्व निश्चित धारणाएं-

जनता पर प्रोपेगेन्डा का प्रभाव बहुत पड़ता है। जैसी बात सुनते हैं, वे उसी पर क्रमशः विश्वास करने लगते हैं। यही विश्वास कालान्तर में उनकी निश्चित धारणाएँ (Fixed Beliefs) हो जाती हैं। यदि उन्होंने एक बात पर पक्का विश्वास कर लिया तो उसको जनता के मनः प्रदेश से निकालना बड़ा कठिन है। जिस महात्मा पर जनता का विश्वास जग गया वह उन्हें खूब ठग सकता है। जिस देवी देवता जादू मंतर झाड़ फूँक की उपयोगिता के विषय में वे निश्चित धारणाएँ बना चुके वे वैसे ही रहेंगे चाहे आप उन्हें कितना ही हटाना चाहें।

जनता वस्तु के प्रयोजन पर विचार नहीं करती। वह जो दूसरे कहते हैं-चाहे वह सच हो या झूठ वही मान लेती है। निर्णय करने, चुनने या किसी प्रकार का विवेचन (Deliberation) करने की आदत जनता की नहीं है। जिस चीज को वे स्टैर्न्डड समझ गए, जिस कपड़े के ऊपर उनकी आस्था हो गई वही उत्तम है। निर्णय की पराधीनता जनता का स्वभाव है। वह दूसरों के निर्णयों आचार-विचारों और योग्यता से अपने संकल्प बनाती है। अपने निर्धारणों को परिवर्तित, संचालित या प्रोत्साहित या निरुत्साहित करने की योग्यता उसमें अति न्यून है।

जनता पर हिप्नोटिज्म -

जनता पर महान व्यक्यों के विद्युत प्रवाह का असाधारण प्रभाव पड़ा करता है। यह विद्युत प्रवाह उनकी निश्चित धारणाओं की ही एक प्रक्रिया है। यह वह स्थिति है, जिसमें जनता आत्म समर्पण कर देती है। कितनी ही बार देखा जाता है कि उपदेशक या वक्ता बोल कुछ नहीं रहा है किन्तु जनता फिर भी उसे सुनने को उतावली चली आती है हम इसे उन महान व्यक्तियों का आत्मतेज कह सकते हैं। मैली से मैली आत्माएँ भी तपोधन ब्राह्मणों के आत्म तेज से प्रवाहित होती हैं। इस आत्म तेज के बल बड़े-बड़े बली, उन्मत्त एवं धनाढ्य भी थर-थर काँप उठते हैं। मुख मंडल की इन सूक्ष्म तरंगों से जो व्यक्ति भी वक्ता के निकट आता है, उतनी देर के लिए उसके प्रभाव में रहता है। इसी तेज के प्रभाव से महर्षियों के आश्रम स्वर्ग धाम बनते थे।

दुनिया के जितने बड़े-बड़े वक्ता, सेनापति, नायक शासक हुए हैं वे सब इस आत्म-तेज से परिचित थे और इसी के असाधारण बल पर अपनी विशाल सेनाओं को काबू में रखते थे। सीजर, सिकंदर महान, शिवाजी, गोविन्दसिंह जी, नैपोलियन, फ्रेडरिक ये सब अपनी सेनाओं को इसी गुप्त हिप्नोटिज्म से काबू में रखते थे।

जनता की धर्म निष्ठा -

विशाल जन समुदाय को प्रभावित एवं उत्तेजित करने के लिए धर्म बड़ा बलवान उत्तेजक है। जिस देश की जनता अशिक्षित है वहाँ धर्म भावना से बड़ी उत्तेजक कोई भी शक्ति नहीं। भारत की जनता के विषय में तो यह अक्षरशः सही है। धर्मोपदेशक बृहत् संख्या में जनता को वश में कर लेते हैं। अशिक्षा से हमारी सुनिश्चित धारणाएँ और भी दृढ़ हो जाती हैं। अतः हम अपनी स्वयंभू वृत्तियों (Instincts) से अत्यधिक प्रभावित हुआ करते हैं। जनता की धर्म निष्ठा की नींव वीर की पूजा (Hero-worslip) की स्वयंभू वृत्ति पर स्थित है। अतः उसे उत्तेजित कर हम अशिक्षित जनता को वश में कर सकते हैं। किन्तु हमें जनता की धर्म भावना से स्वार्थ सिद्धि कदापि न करनी चाहिए।


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