नन्हें शिशुओं की प्रकृति का अध्ययन कीजिए।

January 1946

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(बाल-मनोविज्ञान की गुत्थियाँ)

बच्चों की समस्याएं-

मेरी नन्ही सी पुत्री, रश्मि अपने खिलौनों से खेलते-खेलते मेरे पास भागी-भागी आती है और कहती है- “बाबू जी, क्या लिख रहे हैं? हम भी लिखेंगे।” आप ही बताइए इस तीन वर्ष की बालिका को क्या समझाओ कि मैं अखण्ड-ज्योति के विशेषाँक के लिए कुछ लिख रहा हूँ। अनेक बार आ-आकर यह मुझसे विविध प्रश्न पूछती है। “ग्रामोफोन में कौन बोलता है? हमें कालेज क्यों नहीं ले चलते? हमारे लिए भी साइकिल मँगा दीजिए? बाबू जी हम छिपते हैं आप हमें ढूढ़िये।”- ऐसी अनेक समस्याएं इस बालिका के मन में हैं।

हम प्रायः बच्चे की विविध प्रश्नावली को सुन कर उखड़ उठते हैं और क्रोधित होकर मार-पीट कर देते हैं। बच्चों के मन में भावों की खींचा तानी उधेड़ बुन को समझ नहीं पाते। उनकी दुनिया में क्या क्या होता है, उनके दृष्टिकोण, गुत्थियों, सृजनात्मक प्रवृत्तियों, अभिरुचियों, आँतरिक प्रेरणाओं की ओर से हम न जाने क्यों नेत्र मूँद लेते हैं।

सभी की प्रवृत्तियाँ पृथक-पृथक हैं-

बच्चों की मूल भावनाएं तो लगभग समान हैं किंतु उन सब की रुचि एक ओर नहीं झुकती। उनमें कुछ का झुकाव किसी ओर तो कुछ का किसी दूसरी ओर होता है। एक शिशु प्रारम्भ से तसवीरें बनाने में आनन्द लेता है, दूसरा गाना गाता है, तीसरा पढ़ना लिखना नहीं छोड़ता, चौथा पेड़ पौधों में प्रवृत्त है। नन्हें बच्चों को विशेष प्रवृत्तियाँ पहचानने में प्रत्येक माता-पिता को बड़ा सतर्क रहना चाहिए। बच्चा जिस दिशा की ओर अधिक प्रवृत्त है वह उसकी विशिष्टता है। प्रकृति ने वह विशेष गुण शिशु को उपहार स्वरूप प्रदान किया है अतः उस मनोवृत्ति का किसी मनोवैज्ञानिक से अध्ययन करा कर उसे अपने स्वाभाविक गुणों के विकास में सहायता करना चाहिए।

किन्तु सभी शिशुओं की छुपी हुई प्रवृत्तियों के बीज एक से नहीं पनपते। किसी बालक में विकास अन्यों की अपेक्षा तेजी से होता है, किसी की प्रवृत्ति का विकास संतोषप्रद हो पाता है किसी का यौवन में होना प्रारम्भ होता है। यही कारण है कि युवावस्था में सबकी मानसिक प्रवृत्तियों में जन्मगत प्रभेद दीख पड़ता है। बच्चे की कौन सी विशिष्टता किस मर्यादा तक विकसित होगी, यह बात बच्चे के जन्मजात संस्कारों पर निर्भर है।

बच्चे की मनोवैज्ञानिक रीति से शिक्षा का प्रबंध अनिवार्य है। मनोविज्ञान इस बात पर जोर देता है कि बच्चे के स्वभावतः गुणों को उचित रीति से बढ़ने, फैलने, पूर्ण परिपक्व होने का अवसर प्रदान किया जाय। उसके सहज गुणों का विकास मार-पीट, सख्ती, अनुपयुक्त वातावरण, बुरी संगति- कहीं रुक न जाय। यदि बच्चे के चारों ओर एक तीव्र सहानुभूतिमय दृष्टि रखी जाए और प्यार से उसकी बुद्धि को समझ कर उसका विकास किया जाय तो जन्मगत दोष पनप नहीं सकते और उसकी महत्ता का पूर्ण प्रकाश हो सकता है।

शिशु का काल्पनिक जगत-

मानव इस विविध-विघ्न बाधा संकुल जगत के घमंडों से त्रस्त होकर निज इच्छा तृप्ति के लिए एक काल्पनिक जगत की सृष्टि किया करता है। स्वप्न भी हमारी छुपी हुई इच्छाओं की एक पूर्ति का मार्ग है। हमारे बच्चे भी 2 से 7 वर्ष की अवस्था तक अधिकतर काल्पनिक जगत में विचरण किया करते हैं। 8 वर्ष पश्चात बालक को स्वप्न जगत तथा इस कटु जगत में अंतर प्रतीत होने लगते हैं।

शैशवावस्था में किए गए अत्याचार इसी अवस्था में अपना विषैला प्रभाव दिखाना प्रारम्भ करते हैं। बच्चों के भय, भूत प्रेत, हव्वा इत्यादि के डर दिल में बैठ कर घोर मानसिक यंत्रणा पहुँचाता है, बच्चा भी कायर डरपोक एवं पिछड़ने वाला बन जाता है। कभी-कभी कामोत्तेजना का शिकार बन कर आत्मग्लानि का शिकार बनता है और पाप के विचारों से दबा रहता है।

सच पूछा जाय तो बचपन में ही जीवन निर्माण का कार्य होता है। अव्यक्त मन में जो अच्छे बुरे संस्कार बैठ जाते हैं वह जीवन पर्यन्त चलते हैं। अतः बच्चों के कोमल मन में केवल उत्तम, स्वास्थ्यप्रद, हिम्मत एवं बड़प्पन के विचार ही जमाइये। बच्चे ऐसे शाँत एवं आनन्द के वातावरण में रहे कि उत्तम संस्कार ही उन पर पड़ें। शिशु का काल्पनिक जगत महत्वाकाँक्षा से ओत-प्रोत बनना चाहिए। शिवाजी, प्रताप इत्यादि पर शैशवावस्था में ऐसा ही प्रभाव पड़ा था।

चिढ़ने वाला शिशु-

प्रायः हम सभी थोड़ा बहुत चिढ़ते हैं किन्तु कुछ बालकों में अन्यों की अपेक्षा चिढ़ने की प्रवृत्ति अधिक होती है। यह निर्बल इच्छा शक्ति एवं न्यून सामर्थ्य की द्योतक है। ऐसे शिशुओं का स्वभाव अत्यंत सुकोमल होता है तथा ‘अहं’ की भावना अत्यंत बढ़ जाती है। चिढ़ प्रायः बच्चे की किसी विशेष दुर्बलता की सूचक होती है। हम चिढ़ते तब ही हैं जब दूसरे हमारे ‘अहं’ वृत्ति पर आक्षेप करते हैं। चिढ़ने से हीनत्व की भावना शिशु में घर कर जाती है।

स्मरण रखिए, प्रत्येक बच्चा किसी विशेष क्षेत्र में अनुपम है इस क्षेत्र को खोज निकालने से चिढ़ दूर हो जाती है। बच्चे का मजबूत पहलू खोज निकालिए। उस क्षेत्र में वह सदैव विजयी होता है। ऐसे बच्चे को ऐसा अवसर दीजिए कि उसकी छिपी हुई शक्ति को निकलने का मौका मिले और वह अपने क्षेत्र में मजबूत बने।

मन्द बुद्धि बालकों की समस्याएं-

कितने ही शिशुओं का मानसिक एवं भावात्मक वातावरण इतना नीचा होता है कि वे अपनी शक्तियों को विकसित नहीं कर पाते। ऐसे बच्चे प्रायः शारीरिक विकास में भी पंगु रह जाते हैं। फिसड्डी बच्चों में शारीरिक रोग तो होते ही हैं किन्तु उसमें संगति का भी कम प्रभाव नहीं होता। जब बालक में मानसिक न्यूनता होती है तो उसकी बुद्धि मंद पड़ जाती है, तब शारीरिक दुर्बलता उसके पिछड़ने का एक सहायक कारण हो जाती है।

ऐसे मंदबुद्धि के बालकों को बड़ी सहानुभूति से पढ़ाने की आवश्यकता है। इनके लिए एक पृथक-पृथक कक्षा होनी चाहिए और प्रत्येक बालक पर पृथक-पृथक ध्यान देना चाहिए जिससे प्रत्येक क्षेत्र की न्यूनता पूर्ण हो जाए। सहानुभूति, जिम्मेदारी एवं प्रशंसा से हम कितने ही मंदबुद्धि बच्चों को पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं। इस तत्व का ध्यान रहे कि बच्चे की हिम्मत सदैव बढ़ती रहे, उसे निरंतर प्रोत्साहन, उत्साह, सहानुभूति मिलती रहे। स्कूल में घर जैसा वातावरण बन जाय।

अपराधी बच्चा—

अनेक छोटे-छोटे बालक हीन बुद्धि होने के कारण अपराध करते हैं। कुछ दूषित वातावरण के शिकार होते हैं, कुछ को भयंकर ताड़ना, सजाएं मिली हुई होती हैं अतः उनकी प्रेरणा निंद्य कामों की ओर हो जाती है। शरारती बच्चों में ये ही छिपी हुई अव्यक्त क्रियाएं प्रकट हुआ करती हैं। अपराधी बच्चों की अन्य शक्तियाँ प्रायः अत्यंत विकसित होती हैं जिनकी पर्याप्त वृद्धि द्वारा उनका यह स्वभाव दोष मूल से मिटाया जा सकता है।

बच्चों का वातावरण-

बच्चे का भी हमारी तरह एक व्यक्तित्व है। अतः जिस कुटुम्ब में बालक बड़ा होता है उसका प्रभाव उसके विकास पर अधिक पड़ता है। यदि बच्चे की मानसिक शक्तियों के विकास के लिए योग्य वातावरण का सृजन किया जाय तो बचपन से ही बालक की शक्तियाँ विकसित होनी प्रारम्भ हो जाय और अवस्था के साथ-साथ बढ़ती जावें। जिन-जिन मानसिक शक्तियों के अनुकूल संगति और परिस्थितियों में बच्चा रहता है, वे शक्तियाँ उसमें उत्पन्न होती तथा विकसित होती हुई दिखाई देती हैं। उनके मुख पर संतोष की छटा रहती है।

ढ़ीठ तथा जिद्दी बच्चे अधिक प्रेम के कारण हो जाते हैं। अतः प्रेम करते समय संयम, सीमा तथा उचित अनुचित का सदैव ध्यान रखना चाहिए। इसी प्रकार अधिक डाँटने फटकारने से भी बच्चे के “अहं” भाव पर भयंकर ठेस लगती है।

चौदह वर्ष के उपरान्त बालक-

चौदह वर्ष पश्चात् बालक युवा हो जाता है और यौवन की कुछ अस्पष्ट तरंगें उसके मनः प्रदेश में उद्वेलित होने लगती हैं। वह अपने आपको प्रकट करने के लिए शृंगार करता, गाता, बजाता, सिगरेट पीता फिरता है। वह अपने, आपके साथ साथी या मित्र जैसा व्यवहार चाहता है। उसकी दबी हुई इच्छाएं क्रमशः निकलनी शुरू होती हैं। इस अवस्था में जो मानसिक एवं शारीरिक परिवर्तन होते हैं, उनके अनुसार ही व्यवहार होना चाहिए।

ऐसा नव युवक सहानुभूति की आकाँक्षा करता है तथा जो कोई सहानुभूति प्रदर्शन करता है उसी का चिर दास हो जाता है। किन्हीं बच्चों में अतृप्त कामेच्छा उत्तेजित होकर भयंकर उत्पात मचाती है और वे निंद्य पथों में पड़ कर जीवन बिगाड़ लेते हैं। अतः माता-पिता को चढ़ती जवानी में सदैव सतर्क रहना चाहिए। काम वासना का जागरित होना स्वभाविक है। इसे दबाने के स्थान पर निकलने के नए अवसर देने चाहिए- चित्रकारी, संगीत, कविता, व्यायाम, आदर्श जीवन में प्रवेश करा सकते हैं। कितने ही युवा काम वासना के प्रकाशन को भयंकर पाप समझ कर आत्मग्लानि के शिकार रहा करते हैं। पाप की कल्पना से वे इतने चिंतित रहते हैं कि यह कारण हीनत्व की भावना ग्रंथि निर्माण कर देता है जो उन्हें सदैव कष्ट देती रहती है। माता-पिता को अपना उत्तरदायित्व समझ कर युवा से व्यवहार करना चाहिए।

बड़े सावधान रहें-

बच्चों से व्यवहार करने में बड़े सावधान रहिए। कोई भी गंदी बात यदि उनके सामने की जायेगी तो वे तुरन्त सीख लेंगे, वे तो अनुकरण करना जानते हैं। पास पड़ौस में यदि कुछ भी घृणित वातावरण है तो वे गालियाँ जरूर सीख जायेंगे। आपकी आदतों, व्यवहार, बातचीत का प्रभाव उन पर अत्यधिक पड़ता है। अतः उनसे व्यवहार करते समय बड़े सावधान रहिए! सावधान रहिए!!


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