धार्मिक सिद्धान्तों पर विश्वास क्यों करें?

January 1946

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(मनोविज्ञान की दृष्टि से धर्म पर एक दृष्टि)

प्रत्येक छोटी सी वस्तु के पृष्ठ भाग में एक वृहत भंडार है। बूँद के पीछे समुद्र, बीज के पीछे पेड़, पैसे के पीछे टकसाल। यदि एक बूँद के पीछे एक महासागर लहरा रहा है, बीज में एक विशाल वृक्ष हिलोरें ले रहा है, पैसे के पीछे खनखनाती हुई टकसाल है तो क्या हमारे “ज्ञान” के पीछे कुछ नहीं? जो दिव्य ज्योति कभी-कभी अन्तःकरण में देदीप्यमान हो उठती है, क्या उसका सूर्य नहीं है? जो महान् प्रेरणाएँ हृदय में उदित होती हैं क्या उनका महान् भंडार कोई नहीं है? मनोजगत में जो अमृत का स्रोत प्रवाहित हो रहा है, क्या उसका अक्षय समुद्र कोई नहीं? पर, वास्तव में बात ऐसी नहीं है। ज्ञान की छोटी सी किरण के पीछे भी एक विशाल कल्पतरु असीम भंडार, अक्षय समुद्र है। ज्ञान लावारिस अनाथ नहीं है। बस, इसी को मैं ईश्वरीय ज्ञान कहता हूँ। प्रत्येक आत्मा एक नन्ही सी किरण है जो निरन्तर इस ज्ञान-सूर्य की ओर संकेत किया करती है।

आर्य संस्कृति का मूल आधार -

एक आत्मा ही सत्य है तथा जगत् में जो नाना प्रकार की विभिन्नता है, वह उस एक ही विशाल आत्मा के अनेक कल्पित नाम एवं रूपों का बनाव है, अतः सबकी एकता सच्ची तथा अनेकता झूठी है? मिथ्या है? यह हिन्दू धर्म की आधार शिला है। इसी के आधार पर जो देश काल, परिस्थिति के अनुसार समय-समय पर मनुष्यों के पृथक-पृथक व्यवहारों की व्यवस्थाएँ होती हैं, वह आर्य संस्कृति के कर्म काण्ड हैं। अनेकों में एक और एक में अनेक का सिद्धान्त आर्य संस्कृति का जीवात्मा है और इस मत के अनुसार कार्य में संलग्न होना उसका शरीर है। शरीर समय-समय पर बदलता रहता है किन्तु जीवात्मा एक बना रहता है।

जिन लोगों की बुद्धि का विकास अधिक होता है। वे ही उक्त ज्ञान की ऊँची चोटी पर चढ़ते हैं। हम देखते हैं कि प्रत्येक युग में, शान्ति के आकाँक्षी बुद्धिमान पुरुषों ने नाना प्रकार के मजहब चलाये। ये सब शान्ति प्राप्त करने और ईश्वरीय ज्योति को समझने के विविध रूप थे। अपने-अपने स्थान पर ये नाना प्रकार के मत, सम्प्रदाय पन्थ उपयुक्त थे और समयानुसार सभी की आवश्यकता भी थी। जिस देश में जिस जनता की जैसी योग्यता, मानसिक विकास, या बुद्धि हुई उसमें वैसे ही धर्म चल पड़े और बुद्धि के विकास के साथ-साथ अनेक व्यवस्थाएँ बनती गई किन्तु सबके भीतर “एक आत्मा ही सत्य है” की ही निरन्तर ध्वनि आती रही। ये व्यवस्थाएँ-विभिन्न मत बनते रहे। आदि काल से इस प्रकार उस ज्ञान सूर्य को समझने वाला मनुष्य मूर्ख नहीं था। उसे धर्म की छाया में चिर अभिलाषित शान्ति मिली, बुद्धि को एक आश्रय प्राप्त हुआ मन के पुर्जों में तेल लगा। मध्यकाल में तो इन धर्मों की संख्या काफी बढ़ गई किन्तु क्रमशः बुद्धि के विकास से मनुष्य फिर धर्म के प्राण ईश्वर की एकता पर केन्द्रित होने लगे। शिक्षा प्रचार से आजकल के व्यक्ति सम्प्रदायों के बंधन में नहीं बंधना चाहते। वे तो आर्य संस्कृति के सच्चे स्वरूप से ही परिचित होना चाहते हैं।

दर्शनशास्त्र नाना पंथ, मजहब, धर्म आदि झूठ नहीं है। उनमें एक महान संदेश छिपा है। यह संदेश सत्य शिव सुन्दर का संदेशवाहक है। ये सभी शास्त्र एकता के सिद्धान्त के पोषक हैं। मनोविज्ञान इसे वीर की पूजा (Hero-worship) के अंतर्गत लेता है। वह कहता है कि प्रारम्भिक काल से ही व्यक्ति एक अज्ञात शक्ति से भयभीत होते रहे उसकी पूजा पाठ में निरत रहे, बलिदान देते रहे और शान्ति प्राप्त करते रहे। धर्म इसी पूजा का प्रक्षालित स्वरूप है। श्री गीताजी भी इसी दर्शन का तिरस्कार नहीं करती क्योंकि जहाँ एकता का प्रतिपादन है, वहाँ कोई अलग नहीं रह जाता। चार्वाक, जैन, बौद्ध, मीमाँसा, न्याय, वैशेषिक, योग, साँख्य आदि सभी दर्शन मनुष्यों को अज्ञान की दलदल से निकाल कर एकता की ओर लाने में सहायक हैं।

अविचार की दलदल से निकलिए-

नास्तिकता जीवन का दिवाला निकाल देती है। नास्तिक उस अन्धे की तरह है जो बिना लकड़ी लिए संसार के चारों ओर भटक रहा हो और व्यर्थ में शान्ति का उपक्रम कर रहा हो। जिसका अन्तःकरण मल-विक्षेप और अन्धकार के आवरण से आच्छादित रहता है। वह कुतर्क के जंजाल में पड़ कर आवागमन के मोहक-चक्र में घूमता रहता है। नाना प्रकार के दुःख, विकार, और भ्रम उसे विक्षुब्ध किए रहते हैं। अन्ततः वह पाप योनि को प्राप्त होता है।

प्रियवर, अज्ञान निद्रा से चेत जाइये। आपके जीवन का चरम लक्ष्य अत्याधिक आनन्द की प्राप्ति है और अत्याधिक आनन्द का स्रोत केवल धर्म ही है। धर्म की शान्ति अक्षय शान्ति है। सच्चिदानन्द घन व सुदेव परमात्मा की छाया ही निरन्तर रहने वाली छाया है। धर्म के मार्ग का अनुसरण कीजिए इस लोक और पर लोग में कल्याण करने वाला महापुरुषों द्वारा दी हुई आत्मा-विद्या में निमज्जन कीजिए। परमात्मा के तत्व को यथार्थ रूप से जानने वाला पुरुष ही यथार्थ मानव है। आइये, हम यथार्थ मानव बनें।


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