दाम्पत्य जीवन की सफलता का मनोविज्ञान

January 1946

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(विवाहित जीवन की मनोवृत्तियों का अध्ययन)

पुरुष का स्वभाव-

पुरुष का स्वभाव है कि जब तक अपनी प्रेमिका को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे पाने के लिए अत्यन्त इच्छुक रहता है, प्राणपण से चेष्टा करता है, प्रत्येक प्रकार से प्रेम प्रदर्शन करता है और स्त्री के अतिरिक्त अन्य कुछ भी चीज नहीं प्राप्त करना चाहता किन्तु एक बार मनचाही पत्नि पाने के पश्चात क्रमशः उसके मनः क्षेत्र में भारी परिवर्तन होता है। विवाह के तीन, चार मास पश्चात वह पत्नि की ओर से उदासीन सा होने लगता है। आधी उम्र आने पर अर्थात् 35, 40 वर्ष का होने पर उसे स्त्री में विशेष आकर्षण नहीं रह जाता वह उसे अपनी विचारों का केन्द्र नहीं मानता प्रत्युत अन्य साँसारिक कामों में प्राण पण से जुट जाता है। स्त्री उसके हृदय के एक कोने में पड़ी रहती है। अधिक आयु होने पर वह स्त्री से चिढ़ने लगता है। कितने ही उनसे डरने लगते है। दूसरे उनसे सर्वथा उदासीन होने लगते हैं। कुछेक स्त्री को देख भर सकते हैं, उनकी फरमाइश पूरी नहीं करना चाहते।

स्त्री की प्रकृति -

स्त्री का प्रेम प्रारम्भ में बिल्कुल नहीं रहता किन्तु विवाह के पश्चात या जान पहिचान होने के पश्चात धीरे-धीरे विकसित होता है। तीन मील लम्बे बूटों की रफ्तार से वह नहीं बढ़ती जरा-जरा सी आगे चलती है। जब वह एक बार प्रेमी प्राप्त कर लेती है तो स्वभावतः उसे छोड़ना नहीं चाहती है। उसमें ममता, अहं, करुणा, सहानुभूति की मात्रा अधिक है। विवाह के पश्चात उसकी यह आकाँक्षा रहती है कि पति के प्रति उसका प्रेम बढ़े। वह उसके बिल्कुल हाथ में रहे उसी से प्रेम करे, अन्य किसी को अपने प्रेम में कोई हिस्सा न दे। स्त्री हर प्रकार- आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक-से उसकी स्वामिनी बनने को लालायित रहती है।

स्त्री का हृदय प्रेम, करुणा, ममता, एवं सहानुभूति की रंगभूमि है। वह कोमलता एवं सहनशीलता की कल्पना है। क्षमा एवं त्याग की तपोभूमि है। वह भिन्न-भिन्न भावनाओं का एक आश्चर्य सम्मिश्रण है। वह चिर सुन्दर है, चिर कोमल है वह अपने प्रिय के लिए अपने सर्वस्व का त्याग कर सकती है और अपने मान-अपमान एवं निंदा स्तुति की भी चिंता नहीं करती। वह बड़े से बड़े अपराधी को भी क्षमा कर सकती है।

दो प्रतिकूल तत्वों का सम्मिश्रण-

उक्त दोनों प्रतिकूल तत्वों से ही संसार का निर्माण हुआ है। इसी प्रतिकूल में संसार का आनंद अन्तर्निहित है। बिना पुरुष के नारी अभाव का अनुभव करती है, बिना स्त्री के पुरुष अधूरा ही रहता है। दोनों की न्यूनताएँ दूसरे साथी में पूरी हो जाती हैं।

पुरुष का निर्माण एक युद्ध करने वाले, दृढ़ी निडर, हृदयहीन सैनिक के समान किया गया है, उसमें जीवन निर्वाह के साधनों को एकत्रित करने का साहस किया गया है। दूसरी ओर, स्त्री में लावण्य एवं रूप की अनुरूप राशि प्रदान की गई है। यदि पुरुष उद्दण्ड है तो स्त्री कोमल, सहनशील। पुरुष शक्ति आक्रामक है तो, स्त्री शक्ति आत्मरक्षक। पुरुष उन्नतिशील होता है तो, स्त्री धैर्यवान। पुरुष अधिकार, शक्ति व दण्ड से शासन करता है। स्त्री अपने प्रेम से, आँसू से और मृदुलता से। यदि पुरुष शब्दों से विनय करता है तो स्त्री दृष्टि की विनम्रता से।

डा. बरनार्ड हौबैन्डर ने कहा है- “पुरुष वर्तमान में भविष्य को भूल जाता है, स्त्री भविष्य को सँभालने व अधिक सुखकर बनाने में सदैव प्रयत्नशील रहना चाहती है। स्त्री के मातृभाव के लिए पूर्ण त्याग व निस्वार्थ परिश्रम की आवश्यकता है। पुरुष अपने प्रेम को केन्द्रित कर सकता है, परन्तु स्त्री जब मातृत्व का भार ग्रहण कर लेती है तो उसकी प्रेम धारा सर्वतोमुखी होकर प्रवाहित होती है।

पुरुष अग्रगामी है किन्तु स्त्री मार्ग प्रदर्शक। पुरुष शीघ्रता में प्यार करता है, परन्तु स्त्री का प्रेम इतना प्रबल होता है वह अपने प्रेमी के दुर्गुण भी नहीं देखना चाहती। स्त्री वास्तविक असत्य बहुत कम बोलती है। वे अपने गुप्त भेद विशेषतः अपनी सम अवस्था वाली स्त्रियों के भेदों को छिपाने में बड़ी कुशल होती है। पुरुष प्रेम के प्रमाण नहीं चाहता, स्त्री का आत्म समर्पण ही उसके लिए यथेष्ट प्रमाण है पर स्त्री पुरुष के प्रेम पर हमेशा सोचा विचार करती है।

पुरुष के जीवन में प्रेम एक छोटा सा हिस्सा है। वह शीघ्रता में प्यार करता है, जैसे भागता सा है। किन्तु स्त्री पग-पग पर रुकती है, सोचती है तब अपना हृदय देती है। वह अपने प्रेमी के प्रेम का सबूत दिन में कई बार उसके मुख से, वाणी, एवं नेत्रों से चाहती है। उसका संसार मोहब्बत से सराबोर है। अन्य बातें उसमें गौण महत्व रखती हैं। स्त्री जीवन प्रेम पर ही अवलम्बित है। प्रेम की प्यासी स्त्री को ठुकरा कर भारी शत्रु खड़ा किया जा सकता है। पुरुष आखिर निश्चयी मजबूत एवं स्फूर्तिमान होता है। स्त्री अधिक सहनशील, प्रेमी, उदार। पुरुष चीर फाड़ करने वाला निर्दयी, सर्जन बन सकता है, तो सेवा शुश्रूषा करने के लिए कोमल हृदय स्त्री की आवश्यकता पड़ती है।

सफल दाम्पत्य जीवन का रहस्य-

दाम्पत्य जीवन का समस्त सुख केवल एक बात में है पति पत्नि एक दूसरे के मनोभावों को समझ लें। अपने साथी की इच्छाओं, आकांक्षाओं, मनोभावनाओं का विश्लेषण करें। एक दूसरे के दृष्टिकोणों को सहानुभूतिपूर्वक देखें, समझें और एक दूसरे के सन्मुख सदा सिर झुकाने के लिए तैयार रहें तो उनका जीवन स्वर्गीय प्रकाश से परिपूरित हो सकता है। एक दूसरे के मनोभावों के अनुसार चलने से उनके जीवन में प्रेम की सुखद निर्झरिणी शत-शत धाराओं में बह सकती है। स्मरण रखिए, जहाँ पुरुष दुर्बल है, वहाँ स्त्री की शक्ति प्रकट होती है। जहाँ पुरुष सर्वस्व प्राप्त कर सकता है और स्त्री सर्वस्व दान दे सकती है। स्त्री और पुरुष दोनों ही सृष्टि की महान शक्तियाँ है किन्तु पूर्ण होने के लिए दोनों का सहयोग (Compromise) चाहिए। पुरुष एवं स्त्री का पारस्परिक सम्मिलन आत्मा का सम्मिलन है।

स्त्री कल्पलता है। जब पुरुष अकिंचन हो जाता है तो स्त्री की छत्र छाया में रह कर वह पुनः शान्ति प्राप्त कर सकता है।

विवाह के प्रारम्भ में आप खूब देख भाल कर पत्नि चुन सकते हैं। खूब टीका टिप्पणी कर सकते हैं। किन्तु विवाह के पश्चात एक दूसरे के दुर्गुणों को आँख मीच कर टाल देने में ही लाभ है। आपस की आलोचना, डराने, धमकाने, मारने-पीटने से गृह कलह बढ़ती है क्यों कि हमारे “अहं” भाव को भारी धक्का पहुँचता है।

पति को वश में करने के उपाय -

जो पत्नि अपने पति का स्थायी प्रेम चाहती है उसे अपने पति के स्वभाव, प्रकृति, विचार, मनोभाव, संवेदनाओं का गहन अध्ययन करना चाहिए। पुरुष पर शासन करने के लिए यह मालूम करना चाहिए कि वह पत्नि से क्या-क्या आशाएँ रखता है? उसे किस काम में पत्नि की सहायता चाहिए। वह उसे किस रूप में- सहायक, मित्र, प्रेमिका, गृहणी, सेविका-देखना अधिक पसन्द करता है? किन-किन गुणों कलाओं को चाहता है? साथ ही पत्नि को यह भी मालूम करना चाहिए कि पति में कौन दुर्गुण हैं? क्या-क्या कमजोरियाँ उसके स्वभाव जन्म हैं? क्या-क्या दूसरों की कुसंगति से लग गई हैं?

पुरुष बल पराक्रम का पुतला है और किसी न किसी पर शासन करने में आनन्द लेता है अतः उसे अपने ऊपर शासन करने देकर पत्नि उसके “अहं” को उत्तेजित कर सकती है। पत्नि उसकी प्रेमिका होती है अतः वह उस पर पूरा अधिकार रखना चाहता है। अतः उसे अनुशासन का अवसर दीजिए। विवाहित जीवन में छोटी-छोटी बातों पर खड़े होने वाले कोई मतभेद, गलतफहमियों, झगड़ो से सतर्क रहिए। यदि कोई मतभेद आये भी तो अपने साथी के दृष्टिकोण को सहानुभूतिपूर्वक समझिये।

पति अपनी पत्नि के मुख से ऐसे वचन सुनने को लालायित रहता है जिनसे उसकी श्रद्धा और अगाध विश्वास प्रकट हो। अतः ऐसे वचन कहने में कंजूसी न करो। अपने स्वाभाविक गुणों की वृद्धि करो। कोमलता, सौस्थता, मधुरता, सौंदर्य बढ़ाओ। पुरुष इन गुणों से अधिक आकर्षित होता है क्योंकि ये उसमें नहीं हैं। स्त्री के लिए हँस मुखी और रसिक होना सुँदर होने से अधिक आवश्यक है। पुरुष स्त्री की रसिकता, हँसी, बाकी चितवन पर अधिक आकर्षित होता है। स्त्री का जीवन छोटे झगड़ों से बना है यदि वह उन्हें हँस कर न टाल सके तो पागलखानों या तपेदिक के अस्पतालों की ही शोभा बढ़ा सकती है। पति को दास वे ही बना सकती है। जो उसके दोषों या विशेषताओं पर चिढ़ने के स्थान पर हँसकर टाल देती है। स्त्री को विकट परिस्थितियों में भी प्राण देकर अपने सतीत्व की रक्षा करनी चाहिए। सतीत्व का मनोवैज्ञानिक प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से बहुत पड़ता है।

सुमन जी की एक सम्मति विशेष उल्लेखनीय है-”तुम अपने हृदय को सदा प्रेम के जल से छलकता रखो। प्रेम की इस पवित्र धारा में घर के आस-पास की सारी मलिनता, सारी बुराई वह जायगी और तुम सदा पवित्र एवं सुखी रहोगी।”

“यादवेन्दु” जी लिखते हैं-”पुरुष बड़ा हो जाने पर भी-विवाहित होने पर अपनी पत्नि से ऐसे ही आचरण की आशा करता है। यदि पति किसी बात से नाराज हो जाए, तो उन्हें वैसे ही प्रेमपूर्वक मनाना चाहिए, जैसे माँ अपने रूठे हुए बालक को मनाती है। पुरुष है भी तो विकसित बालक। पत्नि को देखभाल माँ की भाँति रखनी चाहिए। जब पुरुष को कोई कष्ट होता है, तो वह चाहे जैसा वीर, साहसी और पराक्रमी क्यों न हो, बार-बार माँ का स्मरण करता है। ऐसा वह क्यों करता है? पुरुष के संस्कार वास्तव में कुछ ऐसे बने हैं कि वह माँ के प्रेमपूर्ण प्रभावों को मिटा नहीं सकता। इस वय में भी वह उसी प्रेम को चाहता है। पुरुष चाहे जितना बड़ा क्यों न हो जाए, वह स्त्री के सामने तो शिशु ही है।”

प्रियतमा को जीतने के मनोवैज्ञानिक सूत्र-

हम में जो गुण नहीं हैं उनसे युक्त व्यक्तियों के प्रति हम स्वतः आकर्षित होते हैं। अतः प्रियतमा को जीतने के लिए अपने पुरुषोचित गुणों -बल, वीर्य, पराक्रम, साहस, अनुशासन- की अभिवृद्धि कीजिए। कोमल, पतले, दुबले, कमजोर, स्त्रैण पुरुष स्त्रियों को अच्छे नहीं लगते।

प्रेमी शीघ्र कोपी होना चाहिए जिससे प्रेमिका गुप्त रूप से उससे डरती रहे। उत्कृष्ट प्रेम को उड़ान उन्मत्तता, भय, शंका की आनन्दोन्मादकारी घाटियों में रहती है। उत्कृष्ट प्रेमी सदा निष्ठुर होता है। प्रेम में पुरुष शिकारी है स्त्री शिकार।

स्त्री जितना वीर पुरुष का प्यार करती है उतना धनियों या पंडितों को नहीं। स्त्री दास एवं दब्बू पुरुष को भी स्त्री पसंद नहीं करती।

अपने वस्त्रों और वेश पर सदा ध्यान रक्खो। स्त्री यदि अपने सौंदर्य की चिंता करती है, यदि तुम्हारी प्रसन्नता के लिए, उसकी अभिवृद्धि के लिए वह निरंतर चेष्टा करती है तो इसका यह अर्थ है कि वह सौंदर्य का मूल्य समझती है और तुम्हें भी आकर्षक, साफ सुथरा एक अभिनेता के रूप में देखना पसंद करती है।

स्त्रियों की खूबियों का बयान करो, उसका आदर करो, उसके उत्तम कार्यों पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करो और इस सबके लिए व्यर्थ की मिथ्या प्रशंसा भी करो। बार-बार उसे यह दर्शाओ कि तुम उसे बहुत प्रेम करते हो। यह समझ कर चुप न रह जाओ कि उससे एक बार तो कह ही दिया है। वह आपके मुख से अपने प्रति प्रेम बार-बार सुनना पसंद करती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118