(रचयिता- श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, टेड़ा, उन्नाव)
मेरे प्राणों के अमर राग॥
टकरा-टकरा जिनसे अविरल करती जीवन -धारा क्रन्दन
अभिलाषा आँसू बन बहती क्षत- विक्षत आशा -स्वर्ण सुमन
हों भस्म शिलाएं ये जग की धधका दे ऐसी विषम आग।
मेरे प्राणों के अमर राग॥
जाते ठुकराए पग-पग पर चिथड़ों में जिनकी ढंकी लाज।
गतिहीन, मूक, शोषित, पीड़ित कीड़ों से भी जो तुच्छ आज॥
इन जर्जर नर- कंकालों में बन स्वाभिमान की ज्योति जाग।
मेरे प्राणों के अमर राग॥
इठलाती शोषित -धारों पर दानवता करती अट्टहास।
प्रलयंकर अस्त्रों-शस्त्रों की नौका पर करती मधु-विलास॥
खिल उठे तुम्हारी लाली से मानवता का कुण्ठित सुहाग।
मेरे प्राणों के अमर राग॥
अविराम धधकती आग जहाँ फैले नन्दन वन का सुवास।
छलके वसुधा के कण कण में वह मधुर प्रेम का तरल हास॥
जल जाए जीवन का कल्मष हो सफल अहिंसा सत्य याग।
मेरे प्राणों के अमर राग॥