हरि-भजन

November 1943

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(सन्त कबीर)

कबीर कहता जात हूँ, सुनते हैं सब कोय।

राम कहे हो वै भला, नहिं तौ भला न होय॥

भगति भजन हरि नाव हैं, दूजा दुख अपार।

मनसा वाचा कर्मणा, कबीर सुमिरन सार॥

कबीर निर्भर राम जपि जब लगि दीवै बाति।

तेल घटा बाती बुझे, फिर सो वो दिन राति॥

कबीर सोता क्या करै, जागि न जपै मुरारि।

एक दिन सोना चैन से लम्बें पाँव पसारि॥

जिहिघट प्रीति न प्रेम रस, पुनि रसना नहि राम।

ते नर इस संसार में, उपजि खये बे काम॥

कबीर एक न जानियाँ, बहु जाना क्या होहि।

एकहि ते सब होत हैं, सब ते एक न होहि॥

सब सूँ बूझत मैं फिरौं, रहन कहत कोय।

प्रति न जोड़ी राम सूँ, रहन कहाँते होय॥

चलौ चलौ, सब कोई कहे, मोहि अंदेसा और।

साहब सूँ परचा नहीं, ये जाइहैं किस ठौर॥

कबीर कुल तौ से भला, जिहि उपजै हरिदास।

जिहि कुल दास न उपजै, सो कुल आक पलास॥

राम जपत दारिद भला, टूटी घर की छानि।

ऊंचे मंदिर जानदे, जहाँ न सारंग पानि॥

क्षीर रुप हरि नाम है, नीर आम व्यवहार।

हंस रुप कोई साध है, सत न जानन हार॥

कबीर हरि के नाम सूँ, प्रीति रहैं इकतार।

तौ मुख ते मोती झड़ैं, हीरा अन्त न पार॥

साई मेरा वाणियाँ, सहज करै व्यौपार।

बिन डंडी बिन पालड़े तोलै सब संसार॥

हिन्दू मूए राम कहि, मुसलमान खुदाइ।

कहें कबीर सो जीवता, दुहु में कभी न जाइ॥

काबा फिर काशी भया, राम भया रहीम।

मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥


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