मृत्यु का भय छोड़ दीजिए।

November 1943

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(महात्मा गाँधी)

बालक मरें, चाहे जवान या बूढ़े मरें, हम इससे भयभीत क्यों हों? कोई पल ऐसा नहीं जाता जब इस जगत में कही किसी का जन्म और कही किसी की मृत्यु होती है। पैदा होने पर खुशियाँ मनाना और मौत से डरना बड़ी मूर्खता है, यह बात हमें अवश्य सदैव अनुभव करनी चाहिए। जो लोग आत्मवादी हैं, - और हममें कौन हिन्दू, मुसलमान या पारसी ऐसा होगा जो आत्मा के अस्तित्व को न मानता होगा? - वे जानते हैं कि आत्मा कभी मरती नहीं। यही नहीं, बल्कि जीवित और मृत समस्त प्राणी एक ही हैं, उनके गुण भी एक ही हैं। इस दशा में, जबकि जगत में उत्पत्ति और लय पल पल-पर होता ही रहता है, हम क्यों खुशियाँ मनावें? और किस लिए शोक करें? सारे देश को यदि हम अपना परिवार मानें- देश में जहाँ कहीं किसी का जन्म हुआ हो, उसे अपने यहाँ ही हुआ मानें- तो कितने जन्मोत्सव मनाइयेगा? देश में जहाँ-जहाँ मौतें हों उन सबके लिए यदि हम रोते रहें तो हमारी आँखों के आँसू कभी बन्द ही न हों। यह सोचकर हमें मृत्यु का भय छोड़ देना चाहिए।

अन्य देशों की अपेक्षा प्रत्येक भारतवासी अधिक ज्ञानी, अधिक आत्मवादी होने का दावा रखता है, तिस पर भी मौत के सामने जितने दीन हम हो जाते हैं उतने और लोग शायद ही होते हों और उनमें भी मेरा खयाल है कि हिन्दू लोग जितने अधीर हो जाते हैं उतने भारत के दूसरे लोग नहीं। अपने यहाँ किसी का जन्म होते ही हमारे घरों में आनन्द मंगल उमड़ पड़ता है और जब कोई मर जाता है तब इतना रोना पीटना मचता है कि आस-पास के लोग भी हैरान हो जाते हैं। हमें इस अज्ञान जन्य हर्ष शोक को छोड़ ही देना चाहिए।


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