(श्री स्वामी विवेकानंद जी महाराज)
मैं आप लोगों को घोर नास्तिक देखना पसंद करूंगा। लेकिन कुसंस्कारों से भरे मूर्ख देखना न चाहूँगा। क्योंकि नास्तिकों में कुछ न कुछ तो जीवन होता है। उनके सुधार की तो आशा है क्योंकि वे मुर्दे नहीं होते। लेकिन अगर मस्तिष्क में कुसंस्कार घुस जाता है तो वह बिल्कुल बेकार हो जाता है, दिमाग बिल्कुल फिर जाता है। मृत्यु के कीड़े उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। तुम्हें इनका परित्याग करना होगा। मैं निर्भीक साहसी लोगों को चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि लोगों में ताजा खून हो, स्नायुओं में तेजी हो, पेशियाँ लोहे की तरह सख्त हों। मस्तिष्क को बेकार और कमजोर बनाने वाले भावों की आवश्यकता नहीं है। इन्हें छोड़ दो। सब तरह के गुप्त भावों की ओर दृष्टि डालना छोड़ दो। धर्म में कोई गुप्त भाव नहीं। ऋद्धि-सिद्धियों की अलौकिकता के पीछे पड़ना कुसंस्कार और दुर्बलता के चिन्ह हैं। वे अवनति और मृत्यु के चिन्ह हैं। इसलिए उनसे सदा सावधान रहो। तेजस्वी बनो और खुद अपने पैरों पर खड़े हो। मैं संन्यासी हूँ और गत चौदह वर्षों से पैदल ही चारों तरफ घूमता फिरता हूँ। मैं आपसे सच-सच कहता हूँ कि इस तरह के गुप्त चमत्कार कहीं पर भी नहीं हैं। इन सब बुरे संस्कारों के पीछे कभी न दौड़ो। तुम्हारे और तुम्हारी संपूर्ण जाति के लिए इससे तो नास्तिक होना अच्छा है किंतु इस तरह कुसंस्कार पूर्ण होना अवनति और मृत्यु का कारण है।