नेहामिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विंचते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
गीता 2। 40
अर्थ- इसके आरंभ का नाश नहीं होता और न उलटा फल निकलता है। इस धर्म का थोड़ा सा भी साधन महान भय से रक्षा करता है।
धर्म के मार्ग पर चलते हुए, आध्यात्मिक साधना आरंभ करते हुए लोग अक्सर ऐसा संदेह किया करते हैं कि यदि इस मार्ग पर पूरी तरह न चल सके, यदि साधन बीच में ही टूट गया तो देवता रुष्ट हो जायेंगे और उनके कोप से कहीं उलटा फल न उपस्थित हो जाए। यदि धर्म का कार्यक्रम आगे न चल सका तो कहीं उपहास का भाजन न बनना पड़े हानि या निन्दा सहन न करनी पड़े।
इस प्रकार के संकल्प-विकल्प उठाने वालों को गीता आश्वासन देती है कि इस प्रकार की कोई बात नहीं है। अच्छे कर्म का बुरा फल किसी प्रकार नहीं निकल सकता है। यदि थोड़ी या अधूरी धर्म साधना की गई है तो भी वह लाभदायक ही सिद्ध होगी। शुभ कर्मों में ऐसा आकर्षण है कि उन्हें एक बार थोड़ा सा करने पर फिर उनका चस्का लग जाता है और बार-बार श्रेष्ठ कर्म करने की इच्छा होती है। उनका ऐसा बीज रूप संस्कार जम जाता है जो अवसर पाते ही फिर उग आता है। ग्रीष्मऋतु में घास सूख जाती है, उसका दर्शन होना भी कठिन हो जाता है, परन्तु वर्षा होते ही उसकी सूखी हुई जड़ें जमीन के अंदर फिर हरी हो जाती हैं और घास का भूमि पर बड़ा भारी विस्तार दिखाई पड़ने लगता है। इसी प्रकार शुभ कर्म का बीज जम जाने पर उस आरंभ का फिर कभी नाश नहीं होता, अनायास छूट जाने और बुरी परिस्थिति में पड़ जाने से भले ही दुर्बुद्धियों का आधिपत्य हो जाए पर जब कभी भी अनुकूल अवसर मिलेगा, उस थोड़े से धर्म-संस्कार का बीज हरा हो जाएगा और फिर धर्म में प्रवृत्ति बढ़ जाएगी।
उलटा फल निकलने का कोई कारण नहीं। आप कुछ दिन दूध घी सेवन करें और फिर वह प्राप्त न हो तो ऐसा नहीं होगा कि सेवन किया हुआ दूध घी कोई नुकसान करे। थोड़े दिनों या थोड़ी मात्रा में पौष्टिक पदार्थ सेवन किये थे तो उसी अनुपात से थोड़ा लाभ प्राप्त होगा, पर होगा अवश्य, ऐसा नहीं हो सकता कि वह निरर्थक जाए या कोई हानि उपस्थित करे। किसी महात्मा के साथ सत्संग के थोड़े क्षण, तीर्थ-यात्रा में लगाया हुआ थोड़ा समय, किसी पुनीत कार्य में किया हुआ थोड़ा सा दान, सच्चे हृदय से की हुई ईश्वर की थोड़ी सी प्रार्थना, क्या कभी व्यर्थ जाती है? शुभ कर्मों को अधिक मात्रा में, अधिक समय, लगातार करते रहा जाए तो बहुत ही उत्तम है पर यदि वे थोड़ी मात्रा में ही, बीच-बीच में छूट जाएं तो भी अपना उत्तम फल अवश्य देंगे। पुण्य करते पाप बन जाने की अव्यवस्था ईश्वर के सुव्यवस्थित शासन में नहीं हो सकती।
गीता कहती है कि इस धर्म का थोड़ा सा भी आरंभ भय से रक्षा करता है। पापों का परिणाम दारुण दुख देने वाला, महान भय उत्पन्न करने वाला होता है। यदि धर्म-मार्ग में थोड़ा भी पदार्पण किया है तो उस ओर रुचि बढ़ेगी, और अधिक मात्रा में शुभ कर्मों का संपादन होने लगेगा। पुण्य फल के कारण मनुष्य सहज ही उस महान भय से छुटकारा पा सकता है, जो पापियों को असह्य वेदना के साथ घुट-घुट कर सहन करनी पड़ती है।
जैसे भी बन पड़े धर्म का अवसर आगे आ जाने पर उसे चूकना न चाहिए, इस प्रकार थोड़ा थोड़ा भी सत्कर्म करते रहा जाए तो एक दिन उसकी जड़ें बहुत मजबूत होकर जीवन को पूर्ण रूप से धर्ममय बना देंगी।