वैद्य जी की समझ

February 1943

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(श्री स्वामी दरबारी लाल जी सत्य भक्त)

वैद्य जी अपने नगर के प्रसिद्ध वैद्य थे और थे धर्म धुरन्धर, वर्णाश्रम धर्म की पद पर दुहाई देने वाले, हर एक रूढ़ि के समर्थक।

एक दिन उनके एक मित्र आये। वे सुधारक थे। उससे उनकी झड़प हो गई। सुधारक जी ने बहुत कहा कि रिवाजों को, धर्म के बाहरी व्यवहारों की, हमें समय-2 पर बदलना पड़ता है। जो नया है, ताजा है, वह लिया जाता है, पुराना होने पर, सड़ जाने पर, निस्सार होने पर छोड़ दिया जाता है, इसमें विरोध क्या है?

वैद्य जी का पक्ष था कि जो अच्छा है वह सदा अच्छा है, वह कभी बुरा क्यों होगा? एक बार जो ग्रहण किया वह कभी अलग न करना चाहिए।

वैद्य जी की श्रद्धा इतनी अटल थी कि कोई भी युक्ति उनकी समझ में न आती थी।

इतने में एक बाई अपने बच्चे को लेकर आई। बाई की शिकायत थी, कि यह बच्चा परसों से टट्टी नहीं जा रहा है। वैद्य जी ने बच्चे से पूछा- क्यों रे, टट्टी क्यों नहीं जा रहा है?

कुछ देर तक बच्चा चुप रहा, फिर बोला- मैंने परसों मिठाई खाई थी।

वैद्य जी- अरे तो मिठाई खाने से क्या हुआ? क्या मिठाई खाने के बाद टट्टी जाना नहीं पड़ता?

बच्चे ने जरा सहमते हुए कहा- जी मिठाई बार-बार नहीं मिलती, इसलिए मैं चाहता हूँ पेट की मिठाई क्यों निकालूँ।

-”अरे मूर्ख क्या अभी तक मिठाई पेट में ही बनी रही? उसका तो जो जरूरी हिस्सा था वह शरीर में मिल गया, बाकी तो विष्ठा हो गया। अब मिठाई कहाँ रही?”

-जी, परसों तो वह मिठाई ही थी।

-अरे तो परसों परसों हैं, आज आज है, क्या कोई चीज सदा एक सी बनी रहती है? जा, यह दवा ले जा और टट्टी चला जाना?

यह कह कर वैद्य जी ने एक हल्का सा जुलाब दे दिया। मित्र ने कहा- वैद्य जी आप दूसरों को जुलाब देते हैं, खुद नहीं लेते?

वैद्य जी ने निष्प्रतिभ होकर कहा- बस भाई, अब मैं समझ गया। अब मैं भी जुलाब ले लेता हूँ।

-नई दुनिया


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