प्रेम भाव बढ़ाइए।

February 1943

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पं.त्रिलोकनाथ शर्मा, भेभोरा

गत मास हमें खुश्की के रास्ते देशाहन करने का अवसर प्राप्त हुआ। हम तीन आदमी साथ थे, तीनों ही ब्राह्मण पर गोत्र और शाखाओं में अन्तर था। यात्रा में हम तीनों अलग अलग भोजन बनाते खाते जा रहे थे। एक दिन हमारे एक साली पं॰ बद्रीप्रसाद जी तिवारी रसोई तैयार करके थोड़ी देर के लिए कहीं बाहर गये और चौक की निगरानी के लिए मुझे बिठा गये। इतने में हमारे दूसरे साथी पं॰ माता बदल तिवारी को जल की आवश्यकता हुई, उन्होंने पास के चौके में से जल का पात्र उठा लिया। बद्रीप्रसाद जी वापिस आये और उन्होंने अपना जल पात्र चौके से बाहर देखा तो आग बबूला हो गये। हम दोनों को उन्होंने भरपेट अपशब्द कहे और तैयार रसोई को उठाकर चौके बाहर फेंक दिया। कलह बढ़ा। सब का भोजन पड़ा रहा। आपस की बोल चाल बन्द हो गई, तीसरे दिन तक किसी ने अन्न ग्रास न किया। चौका छू जाना कोई मामूली पाप थोड़े ही था। वैसे दोनों ब्राह्मण-तिवारी थे, पर गोत्रों में तो अन्तर था। एक गोत्र का ब्राह्मण दूसरे गोत्र के ब्राह्मण को जलपात्र छू जाने दे। हरे राम! यह तो सात पुस्त को नरक में ठेल देने वाला अधर्म था। लड़ाई होनी ही चाहिए थी।

तीसरे दिन किसी प्रकार कलह शान्त हुआ। अब हम लोगों में प्रतिदिन इस चौका चूल्हे की समस्या पर ही वार्तालाप होने लगा। शान्तचित्त से जितना जितना ‘चौका धर्म’ पर हम लोग विचार करते गये उतना ही उसका खोखलापन प्रतीत होता गया। विचार विनिमय ने भाई को भाई से दूर रखने वाली इस अविद्या और अज्ञान से भरी हुई कुप्रथा को छोड़ देने के लिए मजबूर कर दिया। अब हम लोग एक साथ भोजन बनाने खाने लगे। मनुष्य स्वभाव शास्त्र के ज्ञाता विद्वान जानते हैं कि सह भोजन से किस कदर आत्मीयता एवं प्रेम में वृद्धि होती है। हम लोगों का प्रेम बढ़ा और पं॰ माता बदल जी की सुशीला कन्या का विवाह पं॰ बद्री प्रसाद जी के पुत्र के साथ हो गया। अब हम लोगों में असाधारण प्रेम रहता है।

यदि निरर्थक कुप्रथाओं के खोखलेपन पर हम लोग विचार करके बुद्धि से काम लेते हुए प्रेम विस्तार का प्रयत्न करें तो निस्संदेह हमारे समाज में स्वर्गीय सुख शान्ति विराज सकती है।


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