अभिलाषा का अभिशाप।

April 1940

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(श्रीमती सावित्री देवी तिवारी, जयपुर)

इस क्षण भंगुर विश्व को जब हम आवश्यकता से अधिक प्रेम करने लग जाते हैं तब हमारा मधुर जीवन दुखों के अग्नि कुण्ड में स्वाहा होने लगता है। नहीं, नहीं कहते हुए भी अपना पैर बराबर क्लेशों की कीचड़ में फंसा लेते हैं। क्या आपने सोचा कि इसका कारण क्या है? अनावश्यक अभिलाषा इसका कारण है। अभिलाषा से एकाँकी सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों का जीवन सदैव न बुझने वाली अग्नि में धायं-धायं जलता रहता है उनके मुख पर न तो मृदुल हास्य होता है और न प्रसन्नता अठखेलियाँ करती दिखाई देती हैं।

वह सत्य है कि मनुष्य का जीवन-मरण एक बलवती अभिलाषा के ही कारण होता है। उसके विभिन्न रूप, विभिन्न चरित्र अभिलाषाओं की छायाएं हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सचाई है कि हम संसार की किन्हीं वस्तुओं से पूर्णतः उदासीन नहीं हो सकते। अभिलाषा की इस अनिवार्य सत्ता के विरुद्ध कुछ कहने का मेरा आशय नहीं है। यहाँ मुझे इतना ही कहना है कि अनावश्यक अभिलाषाएं त्याज्य हैं।

शेखचिल्ली के से मनसूबे न बाँधकर यदि आवश्यक कर्त्तव्य कर्मों की इच्छा की जाय तो मानव जीवन बहुत सरल और सुखमय हो सकता है। आवश्यक इच्छाएं सात्विक होती हैं इसलिये उनमें आँधी का सा प्रबल वेग और भूकम्प का सा हाहाकार नहीं होता। चटोरी जीभ वाला कुत्ता पेट भरा होने पर भी हर भोजन पर ललचाई दृष्टि डालता है। ऐसे लोगों की जीवन सरिता टेड़े-मेड़े मार्गों पर टकराती रहती है उनका हृदय अतृप्त तृष्णा की तप्त लौ में जलता रहता है।

हम कितनी ही इच्छा करें, इसका परिणाम जीवन उद्देश्य की तराजू में तोला जाना चाहिये जीवन दैवत्व का प्रतिबिम्ब है। ईश्वर की इच्छा है कि मनुष्य प्रेम, सत्य, और उदारता का जीवन व्यतीत करे और पूर्णता को प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त और कोई उद्देश्य हो ही नहीं सकता। इन्द्रियों का सुखोपभोग वैसा है जैसा कुत्ता सूखी हड्डी चबाने पर अपने जबड़े से निकला हुआ रक्त पीकर प्रसन्न होता है। असल में इन्द्रियों के सुख सुख की भ्रमपूर्ण कल्पना मात्र हैं-अन्यथा सुखी दिखाई देने वाले सब लोग भीतर ही भीतर आन्तरिक उद्वेगों से क्यों जलते रहते? सभी दार्शनिक दृष्टियाँ बताती हैं कि मनुष्य का उद्देश्य पवित्रता और पूर्णता है। इसलिये हमारी इच्छाएं भी पवित्रता और पूर्णता का ही स्वप्न देखने वाली होनी चाहियें। इसके अतिरिक्त और जो अभिलाषाएं बच रहती हैं, वह आवश्यक हैं।

नौकर अपने जीवन निर्वाह के लिये वस्तुएं प्राप्त के लिये दत्त-चित्त होकर काम करता है। मधु मक्खियाँ शहद इकठ्ठा करने के लिये कठोर परिश्रम करती हैं। प्रकृति का प्रत्येक परमाणु अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये अविरत गति से चल रहा है तो क्या हमें अपने महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिये अभिलाषा का आश्रय न करना चाहिये?

हम पवित्रता और पूर्णता के लिये आवश्यक अभिलाषा करें तो यह अभिलाषा ही शान्ति, सन्तोष प्रेम और सौंदर्य के रूप में हमारे चेहरों पर खिल पड़ेगी और जीवन का उपाय सुरक्षित सुगन्ध से भर जायगा।

परन्तु साँसारिक, तुच्छ, स्वार्थपूर्ण इन्द्रियों के सुखोपभोग करने की अभिलाषाएं करें तो वही अशान्ति और क्लेश का रूप धारण करके अंधेरी रात के समान सामने आ खड़ी होंगी। ऐसी अभिलाषाएं मनुष्य जीवन के लिये अभिशाप ही हो सकती हैं।

स्वरयोग से रोग निवारण

(ले. श्री नारायणप्रसाद तिवारी ‘उज्ज्वल’ कान्हीबाड़ा)

मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म, ऑकल्ट साइन्स आदि सब इसी के अंतर्गत हैं तथा स्वर योग भी योग का एक अंग है। स्वास्थ्यनाशक रोगों का उपचार स्वरयोग द्वारा किया जा सकता है, औषधियों की अपेक्षा यदि कोई श्रद्धा और योग शक्ति से या ईश्वरीय शक्ति को अन्दर में उतारकर रोग से पूरी तरह छुटकारा पा सके तो इससे केवल द्रव्य ही की बचत नहीं किन्तु मनुष्य सुखपूर्वक पूर्णायु भोगने योग्य भी होता है। प्रकृति देवी के सहारे रहने वाले एक ग्रामवासी को कृत्रिम सभ्य कहलाने वाले शहर निवासी की अपेक्षा आप अधिक स्वस्थ तथा हृष्ट पुष्ट देखेंगे, वह अनपढ़ तथा अज्ञानी होते हुए, अव्यक्त रूप से प्रकृति का सहारा लेता है। इसी सिद्धान्त पर अब मैं सूक्ष्म रूप से उन उपायों का वर्णन करूंगा जो रोग निवारण के लिये ईश्वरीय शक्ति पर निर्भर हैं।

मानव शारीरिक शक्ति, प्राण शक्ति का एक रूप है और योग क्रिया बहुत कुछ प्राण शक्ति पर अवलंबित है। योग द्वारा रोग मोचन के अनेक रूप हैं जो भद्दे से भद्दे झाड़ फूँक से लेकर मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, स्प्रिचुआलिज्म जैसे प्रचलित परिष्कृत रूप तक हैं। प्रकृति दज वायु शक्ति और सूर्य रश्मि सबके लिये मुक्त है और प्रत्येक पुरुष उदारता से इनका सद् उपयोग कर लाभ प्राप्त कर सकता है।

चूहे मरने पर संक्रामक रोग प्लेग का भय होता है जब बदन में अंगड़ाइयां आती है, दर्द होता है तो बुखार की सूचना होती हैं, छीकें आरम्भ होते ही जुकाम का नोटिस मिलता है आदि ऐसे लक्षण विशेष भास होने पर रोग विशेष के आक्रमण की शंका हुआ करती है। शारीरिक रोग इस बात का चिन्ह हैं कि शरीर में कहीं कुछ अपूर्णता या दुर्बलता है अथवा भौतिक प्रकृति विरोधी शक्तियों के स्पर्श के लिये कहीं से खुली हुई है तो यह स्पष्ट है कि रोग बाहर से हमारे अन्दर आते हैं। जब ये आते हैं तभी यदि कोई इनके आने का अनुभव कर सके और इनके शरीर में प्रवेश करने के पहले ही इन्हें दूर फेंक देने की शक्ति और अभ्यास उसमें हो जाय तो ऐसा व्यक्ति रोग से मुक्त रह सकता है जब यह आक्रमण अंदर से उठता हुआ दिखाई देता है तो समझना यही चाहिये कि आया तो बाहर से है पर अब चेतना में प्रवेश करने के पहले पकड़ा नहीं जा सका, इस प्रकार रोग शरीर को आक्राँत कर लेता है। इस भौतिक शरीर में रोग घुसने के पहले ही इसे रोक दिया जा सकता है और यह क्रिया स्वर योग द्वारा सरलता तथा सफलतापूर्वक की जा सकती हैं, यहाँ यह शंका हो सकती है कि स्वर योग में ऐसी क्या खूबी हैं, समाधान यह है कि समस्त रोग शरीर में सूक्ष्म चेतना और सूक्ष्म शरीर के ज्ञान तन्तुमय या प्राण भौतिक कोष द्वारा प्रवेश करते हैं। जिसे भी सूक्ष्म शरीर का ज्ञान है अथवा सूक्ष्म चेतना से सचेतन है वह रोगों को रास्ते में ही अटका सकता है, हाँ यह सम्भव हो सकता है कि निद्रावस्था में अथवा अचेतन अवस्था में जब कि आप असावधान हैं कोई रोग आकस्मिक आक्रमण कर दे प्रायः शत्रु इसी प्रकार वार करते हैं, किंतु फिर भी आँतरिक साधन द्वारा प्रथम आत्मरक्षा के लिये शत्रु प्रहार को वहीं रोक कर वहाँ से भगाया जा सकता है। स्वर योग द्वारा, रोग के लक्षणों का तनिक भी आभास न होने पर भविष्य का ज्ञान होकर उससे बचने का भी उपाय हो सकता है।

इच्छा शक्ति के दो भेद हैं ऑटो सजेशन और सैल्फ सजेशन। अर्थात् झाड़ फूँक, जंत्र, मंत्र आदि द्वारा दूसरों को भला चंगा करना ऑटो सजेशन है। स्वर योग सैल्फ सजेशन है।

निःसंदेह रोग पर अंदर से क्रिया की जा सकती है परन्तु कार्य सदा सहज नहीं होता। कारण जड़ प्रकृति बहुत अधिक प्रतिरोध किया करती है, इसमें अकथ प्रयत्न की आवश्यकता है संभवतः आरम्भ में यह प्रयास असफल प्रतीत हो किंतु क्रमशः अभ्यास करने पर शरीर या किसी रोग विशेष पर नियंत्रण करने की शक्ति बढ़ जाती हैं और रोग के आकस्मिक आक्रमण को आँतरिक साधनों के द्वारा आराम कर लेना सहज हो जाता हैं, हाँ जीर्ण रोग का अंतः क्रिया द्वारा उपचार करना आरम्भ में कठिन अवश्य है, किंतु फिर भी शरीर की सामयिक अस्वस्थता सहज में दूर होकर लाभ हो सकता हैं यह भी सफलता प्राप्त की एक सीढ़ी हैं इसके बाद अपने अभ्यास को इतना बढ़ाओं कि तुम्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हो।

श्वास विज्ञान में प्रधानता इस बात की है कि श्वास सदा नाक से ली जावे जिसे मुंह से श्वास लेने की आदत हो उसे छोड़ दें तब आगे अभ्यास करे श्वास लेने के रक्षा की सामग्री प्रकृतिप्रदत्त है किंतु मुँह से लेकर फेफड़े तक ऐसी कोई चीज नहीं है जो हवा को छान करके साफ करे, मुँह से श्वास लेने में जब सर्द हवा फेफड़ों में पहुँचती हैं तो भारी शाँति पहुँचाती है यहाँ तक कि श्वास अवयवों में प्रायः सूजन आ जाती है और नाक के नथुनों से काम लिये जाने के कारण वे साफ नहीं रहते और नासिका सम्बन्धी रोग हो जाया करते हैं।

अनेक रोग प्रायः अपान वायु की गड़बड़ी के कारण ही हुआ करते हैं नाभि से गुदा तक अपान वायु का स्थान है और हम जो श्वास मुख अथवा नाक से लेते हैं वह नाभि तक जाती है जिसका नाम प्राणवायु है, इस प्रकार नाभि समान वायु का स्थान और भी वायुओं के पृथक स्थान शरीर में हैं जिनका रोग और निरोगता से क्या संबंध है यह किसी अगले अंक में वर्णन करूंगा।

अपूर्ण)


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