(रचयिता- श्री मोहनलाल गुप्ता)
मुझमें दुख का संसार बसा करता है,
माया में मन लाचार फँसा करता हैं,
हूँ चढ़ा रहा नित अश्रुमाल मैं जिस पर
वह भी मुझसे हर बार हँसा करता है!
मैं सब को बराबर प्यार किया करता हूँ,
पर किसी पर न अधिकार किया करता हूँ,
अमृत क्या, विष भी प्रेम सहित जो देता-
मैं कभी नहीं इन्कार किया करता हूँ!
भूलों पर भी मैं भूल किया करता हूँ,
आघातों पर मैं धूल दिया करता हूँ,
मेरे पथ में जो शूल निरन्तर बोते-
उनको भी मैं मृदु फूल दिया करता हूँ!
मैं सबको जग में आस दिया करता हूँ,
पर अपना ही विश्वास किया करता हूँ,
मेरा उपवन जो लूट, दे रहे पतझड़-
मैं उनको भी मधुमास दिया करता हूँ!
विपदाओं को मैं स्वयं वरा करता हूँ,
तूफानों में घर स्वयं खड़ा करता हूँ,
है नहीं विजय का हर्ष, पराजय का दुख-
बाधाओं से मैं नित्य लड़ा करता हूँ!
दिल से जिसको मान लिया करता हूँ,
अहरह उसका ही ध्यान किया करता हूँ,
वसुधा की विपुल विभूति नहीं है भाती-
उस पर ही जीवन दान किया करता हूँ!
असह्य वेदना भार लिये फिरता हूँ,
उस में अगणित उद्गार लिए लिए फिरता हूँ,
घन-स्वाति-बूँद पाने की अभिलाषा में-
चातक सी बिकल पुकार लिए फिरता हूँ!
रह मौन, सभी कुछ झेल लिया करता हूँ,
अंगारों से भी खेल लिया करता हूं,
जो समझ मंझेडडडडड भू, दुरडडडडड व्योम से रहते-
मैं उनसे भी मेल किया करता हूँ!
जग में सबकी, पहचान करता हूँ,
दे सुधा स्वयं विषपान किया करता हूँ,
अभिशापों को वरदान भाग्य का कहकर-
रादन में भी मुस्कान किया करता हूँ!
*समाप्त*