जीवन मेला (kavita)

April 1940

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जीवन-मेला दो दिन का है, यहाँ किसी का रहना क्या।

क्षण भर में मैदान साफ हैं दुख-सुख का फिर कहना क्या।

तरह-तरह के रूप लिये जो बैठे मानव इधर उधर।

कह सकता है कहो कौन, कब चला जायगा कहाँ, किधर?

‘गिरह-कटों- से होशियार रह, साफ निकल जा बचकर तू।

‘घोर उमस है, अमित भीड़ है’ हो न विकल जा बचकर तू।

लगीं दुकानें देख-भाल ले, माल कहाँ का सच्चा है।

समझ बूझ कर दाम लगाना, काम यहाँ का कच्चा है।

ध्रुव-निश्चित, है यह परदेशी यहाँ न रहने पायेंगे।

एक-एक कर आये थे जो, एक-एक कर जायेंगे॥

पल भर के इस मेले में क्यों ऐंठा ऐंठा फिरता रे!

दौड़ा दौड़ा घूम व्यर्थ मत, मन में ला सुस्थिरता रे!


(मास्टर उमादत्त सारस्वत, बिसवाँ (सीतापुर)


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