जीवन-मेला दो दिन का है, यहाँ किसी का रहना क्या।
क्षण भर में मैदान साफ हैं दुख-सुख का फिर कहना क्या।
तरह-तरह के रूप लिये जो बैठे मानव इधर उधर।
कह सकता है कहो कौन, कब चला जायगा कहाँ, किधर?
‘गिरह-कटों- से होशियार रह, साफ निकल जा बचकर तू।
‘घोर उमस है, अमित भीड़ है’ हो न विकल जा बचकर तू।
लगीं दुकानें देख-भाल ले, माल कहाँ का सच्चा है।
समझ बूझ कर दाम लगाना, काम यहाँ का कच्चा है।
ध्रुव-निश्चित, है यह परदेशी यहाँ न रहने पायेंगे।
एक-एक कर आये थे जो, एक-एक कर जायेंगे॥
पल भर के इस मेले में क्यों ऐंठा ऐंठा फिरता रे!
दौड़ा दौड़ा घूम व्यर्थ मत, मन में ला सुस्थिरता रे!
(मास्टर उमादत्त सारस्वत, बिसवाँ (सीतापुर)