मैस्मरेजम से अपना लाभ

April 1940

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(ले. प्रो. धीरेन्द्र नाथ चक्रवर्ती, बी.एस.सी.)

पिछले तीन अंकों के पाठकों को अब मुझे यह नहीं बताना है कि मैस्मरेजम आत्मशक्ति के विकास का अमोघ साधन है। हमारे एक मित्र ने मैस्मरेजम का हिन्दी नामकरण ‘आत्मशक्ति विकास विद्या’ कहा है। उनका कहना है कि मैस्मरेजम नाम अनुपयुक्त और अपूर्ण है। क्योंकि इस विद्या की एक खास प्रणाली में बाँध देने का डाक्टर मेस्मर ने प्रयत्न भले ही किया हो पर इसका मूल विज्ञान भारतीय ऋषि मुनि लाखों वर्षों से जानते और काम में लाते रहे हैं। दूसरे मेस्मरेजम की वर्तमान प्रणाली में कुछ थोड़े ही काम हो सकते हैं, जबकि यह महाविज्ञान उससे हजारों गुने चमत्कार बताने में समर्थ है।

उपरोक्त मित्र की बात बहुत हद तक सच है। संसार में इस विद्या की शिक्षा भारत वर्ष से ही गई है और पाश्चात्य लोग अभी एक छोटे दायरे तक ही खोजें कर सके हैं। किन्तु जब तक भारतीय योग विज्ञान की कोई सर्व सुलभ और क्रमबद्ध प्रणाली को खोज न निकाला जय तब तक अपने पाठकों से हम यही कहने को तैयार हो सकते हैं कि मैस्मरेजम प्रणाली का उपयोग न किया जाय। यह तो अनुचित होता है कि दूसरों द्वारा आविष्कृत या संस्कारित प्रणाली को ही अपना बताया जाता। अस्तु अभी हम इस पद्यति को मैस्मरेजम के नाम से ही पुकारेंगे और उसके अनुसार जो कार्य हो सकते हैं उन्हीं का उल्लेख करेंगे।

मैस्मरेजम प्रणाली के अभ्यास से मनुष्य की अपनी इच्छा शक्ति बढ़ती है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में यह कार्यों को चलाने के योग्य उत्साह, साहस, बल और प्रेरणा मिलती है। डाक्टरों की दृष्टि में यही इच्छा शक्ति अभाव पूरक है। वे कहते है कि स्मरण शक्ति, कल्पना शक्ति धारण शक्ति, सन्तुलन शक्ति आदि मानसिक शक्तियों का विकास इच्छा शक्ति पर अवलम्बित है और उसी के प्रभाव से सारे रोग अच्छे होते हैं। रोग मुक्त होने की जितनी ही तीव्र इच्छा होगी उतनी ही जल्दी सफलता मिलेगी। निर्बल इच्छा शक्ति वाले अधिक दिन बीमार पड़े रहते हैं एवं जिनकी इच्छा बिलकुल कमजोर हो गई होती है उनका तो जीवन भी दुर्लभ होता है। योगियों की दृष्टि में इच्छा शक्ति समाधि मूलक है। वे स्वीकार करते हैं कि धारणा, ध्यान, कल्प, मन्त्र, तन्त्र तथा अलौकिक शक्तियों सिद्धियाँ प्राप्त करने का मार्ग तीव्र इच्छा के अतिरिक्त और कोई है ही नहीं। भौतिक वैज्ञानिक इच्छा को मनुष्य की आकर्षण शक्ति मानते हैं। वे कहते हैं कि प्रकृति में सब प्रकार के दिव्य परमाणु घूमते रहते हैं। इनमें से जो जिस प्रकार के जितने परमाणु लेना चाहता है अपनी आकर्षण शक्ति से खींच सकता है। बड़े बड़े शक्ति शालियों की शक्ति का वे यही विश्लेषण करते हैं कि इतना पदार्थ उन्हें किसी वरदान में नहीं मिला वरन् अपनी इच्छा शक्ति के आकर्षण द्वारा उन्होंने उसे खींच कर अपने में भर लिया है। मैस्मरेजम प्रणाली के आविष्कारक डाक्टर मेस्मर स्वयं कहते हैं- इस प्रणाली में बहुत अधिक सामर्थ्य है। इसकी सम्भावनाऐं आशातीत हैं। इस विद्या की आधारशिला इच्छा शक्ति है। जो जितना चाहे आत्मिक बल सम्पादन कर सकता है और उसके आधार पर वर्तमान समय में होने वाले चमत्कार या इससे भी अधिक हो सकते हैं।

उपरोक्त सब दृष्टिकोणों से हमें सहमत होना चाहिये। क्योंकि इन सभी प्रकार के परीक्षकों के मत सत्य से परिपूर्ण हैं। महात्मा ईसा ने एक शब्द में इन सबों की पुष्टि कर दी है कि जो द्वार खटखटावेगा उसके लिए खोला जायेगा। भारतीय जनता जहाँ चाह तहाँ राह की उक्ति को सन्देह रहित होकर मानती है। गत अंक में कहे हुये उन शब्दों को मुझे फिर दुहराने दीजिऐ। लोग पूछते हैं इस विद्या से क्या हो सकता है? मैं उनसे पूछता हूँ इस विद्या से क्या नहीं हो सकता?

मैस्मरेजम विद्या द्वारा होने वाले चमत्कारों की ऊँचाई इच्छा शक्ति के अभ्यास पर अवलम्बित है। जिसके पास जितना है वह उतने से अपना बिराना हित कर सकेगा। कई आदमी काम काज में जुटे रहने पर भी थोड़े समय में काफी अभ्यास कर लेते हैं और कई मुद्दों से झक मारते रहने पर भी कुछ नहीं पाते। क्योंकि जैसे तैसे वे अभ्यास करते तो हैं, पर मन सन्देहों से भरा रहता है। क्षण- क्षण पर संकल्प विकल्प उठते रहते हैं कि न जाने कुछ लाभ होगा या नहीं। सफलता नहीं होगी या उलटी हानि तो नहीं हो जायेगी। जिनका ऐसा मन है वे इस महाविद्या की तो बात ही क्या, साधारण काम काजों में सफलीभूत नही हो सकेंगे। साधारण कोटि के श्रद्धालु अभ्यासी तीन से लेकर छै मास तक के समय में काम चलाऊ शक्ति उपार्जन कर सकते हैं। निरन्तर अभ्यास के साथ दीर्घकाल सेवन करने पर जब दृढ़ भूमि हो जाती है उस समय की तो बात ही दूसरी है।

बढ़ी हुई इच्छा शक्ति के आधार पर विभिन्न साधना द्वारा अपने शारीरिक रोग आसानी से दूर किये जा सकते हैं, निर्बल और कुरूप अंगों को सुडौल बनाया जा सकता है। विज्ञापन बाजों द्वारा दिखाये गये सब्ज बाग या उच्च कोटि के योगियों जैस काया कल्प तो नहीं परन्तु हाँ साधारण ऐसा कायाकल्प किया जा सकता है जिससे शरीर बदला हुआ मालूम पड़े। सब अवयव ऐसे हो जाय जिनमें पर्याप्त चेतना और स्फूर्ति भरी हुई हो। नसों में नवीन खून दौड़ता हुआ प्रतीत हो। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि शरीर का ढांचा जैसा बन चुका है वह घट बढ़ नहीं सकता। रक्त मांस में सफाई और वृद्धि हो सकती है परन्तु टेढ़े दाँत सीधे नहीं हो सकते। दाँतों में दर्द है तो वह बन्द हो जायेगा पर वे रहेंगे उसी शकल में। मानसिक लाभ भी खूब होता है। मस्तिष्क में छाई हुई गर्मी, आंखों काा जलना, मन का एक काम पर न जमना, बार बार चित्त का उचाट खाना, शिर में चक्कर आना या भारीपन रहना, पागलपन, उन्माद, बुद्धि में भ्रम, अच्छी नींद न आना, स्वप्न अधिक आना, स्थूल बुद्धि, किसी बात को बारीकी से सोच न सकना, याददाश्त की कमी, मस्तक शूल आदि विकारों पर मैस्मरेजम विद्या का उत्तम असर पड़ता है। कुछ दिन का अभ्यास साधक को सुलझा हुआ दिमाग दे देता है।

कई प्रकार के बाहरी कारणों से आदमी चिन्ता, निराशा, भय, क्रोध, शोक, बेचैनी आदि का शिकार बन जाता है। परिस्थितियों का वातावरण निर्बल मन से उलझकर कुछ ऐसे मानसिक विषम लाज रच देते हैं जिसमें उलझकर जाल में जकड़े हुए पक्षी की तरह मन फड़फड़ाता रहता है और हर क्षण किसी विपत्ति का आभाष करता रहता। इन्हीं मानसिक विषम जालों को प्रायः दुर्भाग्य, दुॢदत, ग्रह अनिष्ट, दैवी कोप, अभिशाप आदि नामों से पुकारते हैं। मैस्मरेजम का शस्त्र इन विषम जालों को काटने में पूरी तरह समर्थ होता है। इसके द्वारा ऐसी स्थिति का प्राप्त होना स्वाभाविक ही है जो दूसरों पर प्रभाव डाल सके और साधक का व्यक्तित्व ऊँचा कर सके। जहाँ वह जावे लोगों को अपने काबू में कर सके, अपनी छाप उनके मनों पर बिठा सके।

जिनका झुकाव ईश्वर पथ, आत्म साधना, दैवी खोज की ओर है उनके लिए इस विद्या का थोड़ा सा साधन भी अन्य क्रियाओं को वर्षों करने की अपेक्षा अधिक लाभप्रद होगा। मैस्मरेजम विद्या हमारे सूक्ष्म शरीर को परिपुष्ट बनाती है, उसकी गुप्त शक्तियों को जगाती है। इस प्रकार अदृश्य शरीर इतना बलवान हो जाता है कि शरीर के अन्दर की पाचन क्रिया रक्त संचार आदि को प्रत्यक्ष देख सके। दूर- दूर की चीजों को देख सके। उड़कर दूसरे स्थानों पर जा सके और वहाँ के घटनाओं का दर्शन कर सकें। उस दशा में वह पारदर्शी हो जाता है। ‘ऐक्स रे किरणें’ जिस प्रकार बाक्स के अन्दर रखे हुए जेवरों का भी फोटो ले सकती है सी प्रकार परिपुष्ट सूक्ष्म शरीर दूसरे लोग क्या सोच रहे हैं? कहाँ क्या गुप्त रहस्य है? यह भी जान सकता है। ‘छाया पुुरुष’ के सिद्ध करने की योगियों में बड़ी चर्चा होती है। इस पथ के पथिक जानते हैं कि जिन लोगों को छाया पुरुष सिद्ध होता है वह उससे दैवी सेवक की भाँति काम ले सकते हैं। विक्रमादित्य के पास ‘वीर’ का होना प्रसिद्ध है। जिनके पास ऐसे दैवी दूत होते हैं वे उनसे परोक्ष कार्यों मे भरपूर मदद लेते हैं। यह छाया पुरुष और कुछ नहीं केवल अपने सूक्ष्म शरीर को उन कार्यों के योग्य बना लेना है। यक्षिणी, कर्ण पिशाचिनी, भैरवी, बेताल कई आदमियों को सिद्ध होते हैं। तन्त्र शास्त्रों में ऐसी सिद्धियों के वर्णन और प्रयोग भरे पड़े हैं। एक वैज्ञानिक की भाँति उनकी कसौटी पर कसना यही सिद्ध करेगा कि यह और कुछ नहीं केवल सूक्ष्म शरीर की शक्ति है। शास्त्रज्ञों ने उसे बाहरी शक्ति का स्वरूप यह सोच कर दिया है कि साधक में कहीं हीन या अविश्वास का भाव न आ जावे। आदमी स्वभावतः अपने को तुच्छ समझता है और किसी दैवी सहायता की याचना करता रहता है। शास्त्रज्ञों ने इसी मानवी कमजोरी को ध्यान में रखते हुए उन सिद्धियों को बाह्य शक्ति का रूप दे दिया है।

आत्म दर्शन और ईश्वर साक्षात्कार के लिए राजयोग के आचार्य पातञ्जलि ने धारणा, ध्यान और समाधि को अन्तिम सीढ़ियाँ बताया है। इसकी साधना का प्रयोग भी उनमें उपयोगी है। ईश्वर साक्षात्कार का यह सुगम और अल्प समय साध्य उपाय हो सकता है।


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