प्रभु से (Kavita)

April 1940

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प्रभो पड़ी है नाव भंवर में आकर पार लगा दो।

प्रबल पवन के झोंके आते, इनका वेग मिटा दो॥

उड़ता फिरता हूँ तृण जैसा आश्रय प्राप्त न होता।

भव सागर की पीड़ाओं से व्याकुल होता, रोता॥

गज के फन्द छुड़ाने वाले! मेरे प्राण बचाओ।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, प्रेम पियूष पिलाओ॥

गणिका, गीध, अजामिल, तारे, मुझको पार लगाना।

शिला अहिल्या की उद्धारी, मुझे भूल मत जाना॥

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चरण शरण में पड़ा हुआ हूँ, नाथ न ठुकरा देना।

दीन बन्धु! डूबा जाता हूँ, मेरी भी सुधि लेना॥

(श्री. विश्वम्भरदयाल अग्रवाल, ‘विश्व’ बरेली)



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