वे कौन हैं?

April 1940

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(ले. श्री सुदर्शन, सं. संकीर्तन)

जो ईश्वर को कहीं मानते, जो कहते हैं कि धर्म कोई चीज नहीं लेकिन जिनका हृदय दीनों की आर्त पुकार पर रो उठता है, जो किसी के क्षुधा से तड़पते हुए शिशु को देखकर अपने वैभव को धिक्कारते हैं, जो भूखों को रोटी और नंगों को वस्त्र देने के लिए संसार की शक्तियों से युद्ध करते हैं और ऐसे युद्ध में अपने धन, गृह, परिवार, शरीर एवं प्राणों तक की आहुति दे देने से नहीं हिचकिचाते, हम कहते है कि वे नास्तिक हैं।

जो धर्म के नाम पर आडम्बर करना नहीं जानते, वो साधुता की आड़ में अपनी दुर्बलताओं को नहीं छिपाना चाहते, जो ईश्वर के नाम पर दूसरों का रक्त शोषण नहीं करते, जिन्हें भगवान की पूजा के नाम पर विलास करना पसन्द नहीं, जो परमार्थ की बहाने बाजी करके दीनों की गांठ का पैसा नहीं छीनते और न उसकी आड़ में अपनी दुर्वासनाओं की पूर्ति ही करते हैं, उन्हें हम अधार्मिक और नास्तिक बताते हैं।

मनुष्य फिर भी मनुष्य है, यदि उसमें त्रुटियाँ न होती तो वह मनुष्य होकर देवता होता। पर जो अपनी त्रुटियों को स्पष्ट स्वीकार कर लेते हैं, जो अपने हृदय को किसी विशेष स्वार्थ से छिपाये नहीं रहना चाहते, जो अपने विचार को स्पष्टतः व्यक्त कर देते हैं, जो अपनी दुर्बलताओं को दूसरे के सिर नहीं मढ़ते वे मनुष्य सच्चे मनुष्य हैं। चाहे उनके विचारों में कितनी ही भ्रान्ति क्यों न हो, उनमें कितनी ही त्रुटियाँ क्यों न हों। वे मनुष्य हैं और यदि देवता कभी मनुष्य में अवतरित हो सकता है तो सर्व प्रथम उनमें अवतरित होगा।

जो दोष करके छिपाना चाहते हैं जो अपनी त्रुटियों को दूसरे के सिर मढ़ने का अवसर देखा करते हैं, जिनमें इतना साहस नहीं कि अपने सच्चे विचारों को अभिव्यक्त कर सकें, जो स्वार्थ और यश के नाश के भय से हृदय में कुछ कहते और करते कुछ रहते हैं वे मनुष्याकृति में पशु हैं। उन्हें अभी मनुष्य बनने के लिये साधन करना होगा। जो दोष करते हैं स्वयं- दोषी बताते हैं औरों को, जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का शोषण करते फिरते हैं, जिन्हें अकारण किसी को सताने और किसी का अपमान करने में आनन्द आता है, जो निन्दा करने में प्रसन्न होते हैं, जिनके लिए निर्बल का उत्पीड़न एक मनोरंजन है, दूसरों का अपमान कला है वे न तो मनुष्य हैं न पशु। भगवान ही जाने कि वे पिशाच भी हैं या उससे भी........। वे कभी मनुष्य बन पायेंगे इसकी आशा कम से कम कोई मनुष्य तो नहीं कर सकता।

यहाँ तक तो ठीक। मुझे आज ऐसे लोगों के विषय में पूछना है जो इनसे भी कुछ आगे हैं। मनुष्य समाज में विशेषकर भारतीय हिन्दू समाज में एक ऐसे नराकृति रखने वाली प्राणी हैं जो अपने को देवता घोषित करते हैं। जनता के समक्ष वे साक्षात ईश्वर हैं, जिन्हें धर्म की घनीभूत मूर्ति, धर्म के प्रवर्तक, संरक्षक, प्रचारक, प्रतिष्ठापक, उपदेशक और सर्वेसर्वा समझते हैं, जो मनुष्य को धर्म में प्रवृत्त करने का अपने को एक मात्र उत्तरदायी कहते हैं। इतना होने पर भी जो घोर से घोर पाप करते नहीं हिचकते, जो सचमुच पाप और व्यभिचार के पुजारी और प्राचारक हैं शोषण उत्पीड़ण और विलास जिनका स्वाभाविक कृत्य है मैं पूछता हूँ कि उन्हें क्या कहकर पुकारा जावे?

श्रद्धा के पावन पुष्पों को जो कुचल कर फेंक देना कुछ समझते ही नहीं, जिनके लिये देव प्रतिमाओं की ओट केवल विलास का साधन है, वे दान के उपहार जा हृदय के अगाध प्रेम के साथ अपने आराध्य के चरणों में चढ़ाये गये हैं केवल विषय तृप्ति के उपकरण हैं, जिनके वचन लोगों को मुग्ध करके अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये हैं वे कौन हैं?

जो अपने को त्यागी कहते हैं पर भोग जिनके रोम रोम में भरा है, जो अपने को भक्त कहते हैं पर जो पूजा के उपहार को वेश्या के घर फेंकते हैं, जो दूसरों के धर्माचार्य हैं पर धर्म जिनके कृत्यों से कोसों दूर रहता है, जो परमार्थ का बागाडम्बर करके भी हृदय में उसे कुछ नहीं मानते वे कौन हैं?

मुख में हाथ भर की जिह्वा है जो कहने का साहस करेगा? आस्तिक और धर्ममूर्ति के वेश में नास्तिकता और अधर्म विस्तारक कौन है? समाज दे सकेगा इस प्रश्न का उत्तर?

जो पवित्र आध्यात्मिक केन्द्रों से लम्बे चौड़े उपदेश देते हैं पर जिनका एकान्तवास सुरा की दुर्गन्धि से पूरित होता है, जिन्होंने पूजा के पवित्र स्थानों को चोर, ठग, गुण्डों का अड्डा बना रखा है, जिन धर्म के प्रतिनिधियों का इन लोगों की सहायता के बिना कार्य ही नहीं चलता, श्रद्धा और धर्म की भावना से गई माता बहनों की ओर जो दूषित दृष्टि से देखते हैं, उनके साथ कुचेष्टाओं के करने से भी नहीं चूकते, जिनकी दृष्टि गरीबों की गांठ और उपासिकाओं पर ही रहती है, वे देवता और धर्माचार्य कहलाने वाले वस्तुतः कौन हैं?

धार्मिक समाज को अब इन प्रश्नों का उत्तर देना होगा। अन्ध श्रद्धा में अपना सर्वनाश करते हुए हम अब यों ही भटकते नहीं रह सकते। भगवान और धर्म के नाम पर कुत्सित कर्मों के इन आडम्बर प्रधान लोगों को एक बार खुले नेत्रों से देखना होगा। हमें सोचना होगा कि हमारी पूजा और धार्मिक श्रद्धा अपने आराध्य तक पहुँचती भी है या नहीं। नहीं पहुँचती है तो मध्य में हड़प जाने वाले इन बने हुये देव दानवों को पहचानना होगा कि ये कौन हैं? इनके द्वारा अपनी होती हुई लूट की हमें रक्षा करनी ही पड़ेगी।


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